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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - एकपदा विराट् बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    82

    तं प्र॒जाप॑तिश्चपरमे॒ष्ठी च॑ पि॒ता च॑ पिताम॒हश्चाप॑श्च श्र॒द्धा च॑ व॒र्षंभू॒त्वानु॒व्यवर्तयन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । प्र॒जाऽप॑ति: । च॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । च॒ । प‍ि॒ता । च॒ । पि॒ता॒म॒ह: । च॒ । आप॑: । च॒ । श्र॒ध्दा । च॒ । व॒र्षम् । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡वर्तयन्त ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं प्रजापतिश्चपरमेष्ठी च पिता च पितामहश्चापश्च श्रद्धा च वर्षंभूत्वानुव्यवर्तयन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । प्रजाऽपति: । च । परमेऽस्थी । च । प‍िता । च । पितामह: । च । आप: । च । श्रध्दा । च । वर्षम् । भूत्वा । अनुऽव्यवर्तयन्त ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्माकी व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजापालक [राजा] (च च) और (परमेष्ठी) परमेष्ठी [सबसे ऊँचे पदवाला आचार्य वा संन्यासी] (च) और (पिता) बाप (च) और (पितामहः) दादा (च) और (आपः) सत्कर्म (च) और (श्रद्धा)श्रद्धा [धर्म मे प्रतीति] (वर्षम्) श्रेष्ठपन को (भूत्वा) पाकर (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] के (अनुव्यवर्तयन्त) पीछे विविध प्रकार वर्तमान हुए हैं ॥२॥

    भावार्थ

    सब शूर वीर ज्ञानी औरपूजनीय महात्मा संसार में उस परमात्मा ही का आश्रय लेकर श्रेष्ठ होते हैं॥२॥

    टिप्पणी

    २−(तम्) व्रात्यम् (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०८। आप्लृव्याप्तौ-असुन्। सुकर्म (श्रद्धा) धर्मविश्वासः (वर्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२।वृञ् वरणे-स प्रत्ययः। वरत्वं श्रेष्ठताम् (भूत्वा) भू प्राप्तौ-क्त्वा।प्राप्य (अनुव्यवर्तयन्त) अनुसृत्य वर्तमाना अभवन्। अन्यत् पूर्ववत्-सू० ६। म०२५ ॥

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    विषय

    महिमा-सद्रुः, समुद्रः

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (महिमा) = [मह पूजायाम] पूजा की वृत्तिवाला-प्रभुपूजनपरायण तथा (सद्रुः) = द्रुतगति से युक्त-अतिकर्मनिष्ठ (भूत्वा) = होकर (पृथिव्याः अन्तम्) = पृथिवी के अन्त को पार्थिव भागों की समाप्ति को (आगच्छत्) = प्राप्त हुआ और परिणामतः (सः) = वह व्रात्य (समुद्रः) = अत्यन्त आनन्द-[मोद]-मय जीवनवाला हुआ। पार्थिव भागों से ऊपर उठकर प्रभुस्मरणपूर्वक कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होना ही आनन्द का मार्ग है। २. (तम्) = उस व्रात्य को (प्रजापति: च परमेष्ठी च) = प्रजारक्षक, परम स्थान में स्थित प्रभु, (पिता च पितामहः च) = पिता और पितामह, (आपः च श्रद्धा च) = [आपः रेतो भूत्वा] शरीरस्थ रेत:कण और श्रद्धा की भावना (वर्ष भूत्वा) = आनन्द की वृष्टि का रूप धारण करके (अनुवर्तयन्त) = अनुकूलता से कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। 'प्रभु प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा' इसे कर्तव्य-कर्मों में प्रेरित करते हैं। यह उन्हीं में आनन्द का अनुभव करता है। ३. (एनम्) = इस व्रात्य को आप: शरीरस्थ रेत:कण (आगच्छन्ति) = समन्तात् प्राप्त होते है। (एनम्) = इसे श्रद्धा-श्रद्धा आगच्छति-प्राप्त होती है। (एनम्) = इसे (वर्षम्) = आनन्द की वृष्टि (आगच्छति) = प्राप्त होती है। ये उस व्रात्य को प्राप्त होती हैं जो (एवं वेद) = इस प्रकार कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होने के महत्व को समझ लेता है। वह यह समझ लेता है कि परमेष्ठी बनने का उपाय प्रजापति बनना ही है, अर्थात् सर्वोच्च स्थिति तभी प्राप्त होती है जब हम प्रजारक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों।

    भावार्थ

    व्रात्य प्रभुपूजन-परायण होकर कर्तव्यकर्मों में लगा रहता है, पार्थिव भोगों से ऊपर उठकर आनन्दमय जीवनवाला होता है। इसे प्रभु-प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा सदा कर्मों में प्रेरित करती हैं।

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    भाषार्थ

    (तम्) उस योगी व्रात्य-संन्यासी के (अनु) अनुकूल,-(प्रजापतिः, च) प्रजाजनों का रक्षक राजा (परमेष्ठी, च) और सर्वोच्च स्थान में स्थित सम्राट्, (पिता च, पितामहः च) पिता, पितामह अर्थात् प्रजावर्ग के बुजुर्ग, (आपः च) व्यापक परमेश्वर (व्यावर्तन्त) वर्तने लगे। (वर्षम् भूत्वा, श्रद्धा च) और श्रद्धा वर्षा का रूप धारण कर वर्तने लगी, बरसने लगी।

    टिप्पणी

    [आपः = व्यापक परमेश्वर, आप्लृ व्याप्तौ। यथा "तदेवाग्निस्तदाद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः" (यजु० ३२।१) में, परमेश्वर को “आपः" शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया है। श्रद्धा वर्षभ भूत्वा = प्रजाजनों, राजा-महाराजाओं, बुजुर्ग को श्रद्धा की वर्षा मानो इस योगमुद्रासम्पन्न व्रात्य-संन्यासी पर बरसने लगती है]

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    विषय

    व्रात्य की समुद्र विभूति।

    भावार्थ

    (तम्) उसके पीछे पीछे (प्रजापतिः च) प्रजापति (परमेष्ठी च) और परमेष्ठी (पिता च) और पिता और (पितामहः च) पितामह (आपः च, श्रद्धा च) आपः और श्रद्धा (वर्षं भूत्वा) और वर्षा रूप होकर (अनुवि-अवर्त्तन्त) रहने लगे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ त्रिपदानिचृद गायत्री, २ एकपदा विराड् बृहती, ३ विराड् उष्णिक्, ४ एकपदा गायत्री, ५ पंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    And him followed Prajapati, Parmeshthi, progenitor, grand progenitor, all activity and faith, having taken the form of generous shower.

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    Translation

    The Lord of the creature;, and the Lord dwelling in the highest abode, and the father, and the grand-father, the waters and faith, taking the form of the rain, followed him carefully.

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    Translation

    Prajapati (fire) Parmesthin (law and truth) father, grand- father, waters, and faith turning them in to rain stay (with him).

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    Translation

    The King, and the Acharya or Sanyasi, the Father, and the Grandfather, and the noble deeds and religious faith in their excellence remain under His control.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तम्) व्रात्यम् (आपः) आपः कर्माख्यायां ह्रस्वो नुट् च वा। उ० ४।२०८। आप्लृव्याप्तौ-असुन्। सुकर्म (श्रद्धा) धर्मविश्वासः (वर्षम्) वृतॄवदिवचि०। उ० ३।६२।वृञ् वरणे-स प्रत्ययः। वरत्वं श्रेष्ठताम् (भूत्वा) भू प्राप्तौ-क्त्वा।प्राप्य (अनुव्यवर्तयन्त) अनुसृत्य वर्तमाना अभवन्। अन्यत् पूर्ववत्-सू० ६। म०२५ ॥

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