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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - एकपदा गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    44

    तं श्र॒द्धा च॑य॒ज्ञश्च॑ लो॒कश्चान्नं॑ चा॒न्नाद्यं॑ च भू॒त्वाभि॑प॒र्याव॑र्तन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । श्र॒ध्दा । च॒ । य॒ज्ञ: । च॒ । लो॒क: । च॒ । अन्न॑म् । च॒ । अ॒न्न॒ऽअद्य॑म् । च॒ । भू॒त्वा । अ॒भि॒ऽप॒र्याव॑र्तन्त ॥७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं श्रद्धा चयज्ञश्च लोकश्चान्नं चान्नाद्यं च भूत्वाभिपर्यावर्तन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । श्रध्दा । च । यज्ञ: । च । लोक: । च । अन्नम् । च । अन्नऽअद्यम् । च । भूत्वा । अभिऽपर्यावर्तन्त ॥७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्माकी व्यापकता का उपदेश।

    पदार्थ

    (श्रद्धा) श्रद्धा [धर्म में प्रतीति] (च च) और (यज्ञः) यज्ञ [सद्व्यवहार] (च) और (लोकः) समाज (च)और (अन्नम्) अन्न [जौ चावल आदि] (च) और (अन्नाद्यम्) अनाज [रोटी पूरी आदि बनाभोजन] (तम्) उस [व्रात्य परमात्मा] में (भूत्वा) व्यापकर (अभिपर्यावर्तन्त)सामने सब ओर से आकर वर्तमान हुए हैं ॥४॥

    भावार्थ

    उस परमात्मा के हीसामर्थ्य से पुरुषार्थी पुरुष के लिये श्रद्धा आदि उपयोगी गुण, सब समाज और अन्नआदि भोग्य पदार्थ सर्वत्र सर्वदा वर्तमान रहते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(तम्) व्रात्यंपरमात्मानम् (श्रद्धा) धर्मविश्वासः (यज्ञः) सद्व्यवहारः (लोकः) समाजः (अन्नम्)सस्यम् (अन्नाद्यम्) भक्षणीयं संस्कृतमन्नम् (भूत्वा) व्याप्य (अभिपर्यावर्तन्त) अभि+परि+आ+अवर्तन्त। अभितः परित आगत्य वर्तमाना अभवन्।अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    श्रद्धा, यज्ञ, प्रकाश तथा अन्न और अन्नाद्य

    पदार्थ

    १. (तम्) = उस व्रात्य को (श्रद्धा च यज्ञः च) = श्रद्धा और यज्ञ (लोक: च) = प्रकाश, (अन्नं च अन्नाचं च) = जौ, चावलादि अन्न तथा भात आदि खाने योग्य पदार्थ (भूत्वा) = [भू गती] प्राप्त होकर (अभिपर्यावर्तन्त) = अभ्युदय व निःश्रेयस [अभि] के साधक कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इसप्रकार 'श्रद्धा, यज्ञ व प्रकाश के तथा अन्न और अन्नाद्य' के महत्त्व को समझ लेता है, (एनम्) = इस व्रात्य को श्रद्धा (आगच्छति) = श्रद्धा प्राप्त होती है, (एनम्) = इसे यज्ञः (आगच्छति) = यज्ञ प्राप्त होता है, (एनम्) = इसको (लोक:) = प्रकाश (आगच्छति) = प्राप्त होता है, (एनम्) = इसे (अन्नम्) = अन्न (आगच्छति) = प्राप्त होता है। (एनम्) = इसे (अन्नाद्यं आगच्छति) = खानेयोग्य भातादि पदार्थ प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ

    यह व्रात्य 'श्रद्धा, यज्ञ, प्रकाश, अन्न व अन्नाद्य' से युक्त होकर अभ्युदय व निःश्रेयस-साधक कर्मों में प्रवृत्त होता है।

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    भाषार्थ

    (तम्) उस योगी व्रात्य-संन्यासी को (श्रद्धा, च) लोगों की श्रद्धा, (यज्ञः च) परमेश्वर देव की पूजा, संगति तथा आत्मसमर्पण की भावना, (लोकश्च) प्रजाजन, (अन्नम्, च) पेय-लेह्य आदि अन्न, (अन्नाद्यम्, च) और खाद्य-अन्न (भूत्वा) वर्षारूप हो कर (अभि पर्यावर्तन्त) सब ओर से प्राप्त होते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Faith, yajna, progeny and people around, food and delicacies, being enjoyable, come to him.

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    Translation

    Faith and sacrifice and free movement turned towards, and surrounded him taking thé form of food and edibles.

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    Translation

    The faith, Yajna, worlds and grain becoming good stay around him.

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    Translation

    Faith and noble deeds, and the society, cereals, and nourishing meals in their excellence remain under His control.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(तम्) व्रात्यंपरमात्मानम् (श्रद्धा) धर्मविश्वासः (यज्ञः) सद्व्यवहारः (लोकः) समाजः (अन्नम्)सस्यम् (अन्नाद्यम्) भक्षणीयं संस्कृतमन्नम् (भूत्वा) व्याप्य (अभिपर्यावर्तन्त) अभि+परि+आ+अवर्तन्त। अभितः परित आगत्य वर्तमाना अभवन्।अन्यद् गतम् ॥

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