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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    65

    स॒भाया॑श्च॒ वै ससमि॑तेश्च॒ सेना॑याश्च॒ सुरा॑याश्च प्रि॒यं धाम॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒भाया॑: । च॒ । वै । स: । सम्ऽइ॑ते: । च॒ । सेना॑या: । च॒ । सुरा॑या: । च॒ । प्रि॒यम् । धाम॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सभायाश्च वै ससमितेश्च सेनायाश्च सुरायाश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सभाया: । च । वै । स: । सम्ऽइते: । च । सेनाया: । च । सुराया: । च । प्रियम् । धाम । भवति । य: । एवम् । वेद ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजधर्मकी व्यवस्था का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [विद्वान्]पुरुष (वै) निश्चय करके (सभायाः) सभा का (च च) और (समितेः) संग्रामव्यवस्था का (च) और (सेनायाः) सेना का (च) और (सुरायाः) राज्यलक्ष्मी का (प्रियम्) प्रिय (धाम) धाम [घर] (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मा कीव्यवस्था जानकर सभा आदि की यथावत् संस्था करते हैं, वे राज्यलक्ष्मी बढ़ा करकीर्ति पाते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−उपरि व्याख्यातं यथोचितं योजनीयम् ॥

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    विषय

    'सभा, समिति, सेना, सुरा' का अनुचलन

    पदार्थ

    १. (स:) = वह गत सूक्त का राजन्य व्रात्य (विशः अनुव्यचलत्) = प्रजाओं की उन्नति का लक्ष्य करके गतिवाला हुआ। 'प्रजा-समृद्धि' ही उसके शासन का धेय बना। ऐसा होने पर (तम्) = उस राजन्य व्रात्य को (सभा च समितिः च) = व्यवस्थापिका सभा व कार्यकारिणी समिति (च) = तथा सेना (सुरा च) = [सुर ऐश्वर्य] राष्ट्ररक्षक सेना व राज्यकोष [राज्यलक्ष्मी] (अनुव्यचलन) = अनुकूलता से प्राप्त हुए। २. (यः एवं वेद) = जो राजन्य व्रात्य 'प्रजा-समृद्धि को ही शासन का लक्ष्य समझ लेता है (स:) = वह व्रात्य (वै) = निश्चय से (सभाया: च समिते: च) = सभा व समिति का (च) = तथा (सेनायाः सुरायाः च) = सेना व राज्यलक्ष्मी का (प्रियं धाम भवति) = प्रिय स्थान बनता है।

    भावार्थ

    प्रजा की उन्नति को ही शासन का लक्ष्य समझनेवाला राजन्य व्रात्य-व्रती राजा-सभा-समिति, सेना व सुर [लक्ष्मी] का प्रिय बनता है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो अन्य राजा भी (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है, (सः) वह (वै) निश्चय से, (सभायाः, च) पूर्वोक्त तीन सभाओं का, (समितेः, च) और युद्धसभा का, (सेनायाः, च) और सेनाओं का, (सुरायाः, च) और राज्यैश्वर्य का तथा जल विभाग का (प्रियम्, धाम) प्रेमस्थान (भवति) हो जाता है। अर्थात् ऐसे राजा के सुशासन में सभा आदि सहयोग देने लगते हैंI

    टिप्पणी

    [सूक्त ८ में अन्न और अन्नाद्य का वर्णन हुआ है। इन की सत्ता जल पर निर्भर है। अतः सूक्त ९ में "सुरा" द्वारा जल का भी वर्णन हुआ है।]

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    विषय

    व्रात्य, सभापति, समितिपति, सेनापति और गृहपति।

    भावार्थ

    (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य के राजन्य स्वरूप को जानता है (सः) वह (सभायाः च वै सः समितेः च, सुरायाः च, प्रियं धाम भवति) सभा, समिति, सेना और सुरा अर्थात् स्त्री का प्रिय आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ आसुरी, २ आर्ची गायत्री, आर्ची पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The ruler who knows this partnership of the ruler and the people becomes the favourite of the love and reverence of the Sabha, Samiti, army and the commonalty of social prosperity.

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    Translation

    He, who knows it thus, becomes the pleasing abode of the assembly, of the war-council of the army and of the treasury.

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    Translation

    He who knows this becomes the beloved abode of Parliament, Assembly, army and medicinal preparation.

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    Translation

    He who possesses this knowledge of God becomes the dear home of Assembly, and Association, Army and Treasury.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−उपरि व्याख्यातं यथोचितं योजनीयम् ॥

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