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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    61

    यस्मि॑न्दे॒वामन्म॑नि सं॒चर॑न्त्यपी॒च्ये न व॒यम॑स्य विद्म। मि॒त्रो नो॒अत्रादि॑ति॒रना॑गान्त्सवि॒ता दे॒वो वरु॑णाय वोचत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । दे॒वा: । मन्म॑नि । स॒म्ऽचर॑न्ति । अ॒पी॒च्ये᳡ । न । व॒यम् । अ॒स्य॒ । वि॒द्म॒ । मि॒त्र: । न॒: । अत्र॑ । अदि॑ति: । अना॑गान् । स॒वि॒ता । दे॒व: । वरु॑णाय । वो॒च॒त् ॥१.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्देवामन्मनि संचरन्त्यपीच्ये न वयमस्य विद्म। मित्रो नोअत्रादितिरनागान्त्सविता देवो वरुणाय वोचत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । देवा: । मन्मनि । सम्ऽचरन्ति । अपीच्ये । न । वयम् । अस्य । विद्म । मित्र: । न: । अत्र । अदिति: । अनागान् । सविता । देव: । वरुणाय । वोचत् ॥१.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिस [परमात्मा] में (देवाः) दिव्य नियम (अपीच्ये) गुप्त (मन्मनि) ज्ञान के बीच (संचरन्ति) चलते रहते हैं, (वयम्) हम लोग (अस्य) उसे (न) नहीं (विद्म) जानतेहैं। (मित्रः) सबका मित्र, (अदितिः) अखण्ड, (सविता) सबका उत्पन्न करने हारा, (देवः) प्रकाशमान परमात्मा (अनागान् नः) हम निरपराधियों [धार्मिक पुरुषार्थियों]को (अत्र) इस [विषय] में (वरुणाय) श्रेष्ठ गुण के लिये (वोचत्) उपदेश करे ॥३६॥

    भावार्थ

    परमात्मा के नियमसंसार में ऐसे गुप्त हैं कि जितना-जितना विद्वान् लोग उन्हें खोजते हैं, उतना हीअधिक जानते जाते हैं। मनुष्य निरालसी होकर परमेश्वर की शरण में रहकर सदापुरुषार्थ करें ॥३६॥

    टिप्पणी

    ३६−(यस्मिन्) परमात्मनि (देवाः) दिव्यनियमाः (मन्मनि) ज्ञाने (संचरन्ति) विचरन्ति (अपीच्ये) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। अपि+अञ्चतेः क्विन्।भवे छन्दसि च। पा० ४।४।११०। इति यत्। अपीच्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५।अन्तर्हिते। गुप्ते (न) निषेधे (वयम्) विद्वांसः (अस्य) इदम् (विद्म) जानीमः (मित्रः) सुहृत् (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् विषये (अदितिः) अखण्डः। अविनाशी (अनागान्) इण आगोऽपराधे च्। उ० ४।२१। इति श्रवणाद् इण् गतौ-ड, आगादेशः। अनागसः। निरपराधिनः (सविता) सर्वोत्पादकः (देवः) प्रकाशमयःपरमात्मा (वरुणाय) श्रेष्ठगुणाय (वोचत्) कथयेत्। उपदिशेत् ॥

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    विषय

    निष्यापता व प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    १. (यस्मिन्) = जिस परमात्मा की उपासना होने पर (देवा:) = देववृत्ति के लोग मन्मनि उस ज्ञानस्वरूप प्रभु में (संचरन्ति) = विचरते हैं, जो प्रभु (अपीच्ये) = अन्तर्हित हैं-हृदयरूप गुहा में स्थित होते हुए भी हमारे ज्ञान का विषय नहीं बनते। (वयम्) = हम (अस्य न विद्य) = इस प्रभु के स्वरूप को नहीं जानते। हृदय में होते हुए भी वे हमारे लिए अचिन्त्य ही बने रहते हैं। २.ये प्रभु (नः मित्र:) = हमारे मित्र हैं, (अदिति:) = अपने उपासक के स्वास्थ्य को न नष्ट होने देनेवाले हैं। [अविद्यमाना दितिर्यस्मात्] । मित्ररूप में वे प्रभु हमें पापों से बचाते हैं तो अदिति के रूप में रोगों से। ये सविता-सब प्रेरणओं को देनेवाले (देवः) = ज्ञानप्रकाश के पुज प्रभु (अनागान्) = निरपराध जीवनवाले हम लोगों को (वरुणाय वोचत्) = द्वेषनिवारण के लिए उपदेश देते हैं। द्वेषशून्यता होने पर प्रभु-साक्षात्कार सम्भव होता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे मित्र हैं। निर्द्वषता से ही हम इस मित्र का साक्षात्कार कर पाएंगे।

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    भाषार्थ

    (यस्मिन्) जिस (मन्मनि) ज्ञानवान् (अपीच्ये) परन्तु अन्तर्हित परमेश्वर में, (देवाः) जीवन्मुक्त दिव्य योगी (संचरन्ति) सम्यक् विचरते हैं, (अस्य) इस परमेश्वर के विधिविधान को (वयम्) हम संसारी लोग (न विद्म) नहीं जानते। (मित्रः) मित्रजन, (अदितिः) माता, तथा (सविता देवः) पितृदेव इन में से प्रत्येक (नः) हमें, (अत्र) इस जीवन में, (अनागान्) पापरहित (वोचत्) कहे, उद्घोषित करे। ताकि हम भी (वरुणाय) वरण करनेवाले श्रेष्ठ परमेश्वर की प्राप्ति के योग्य हो सकें।

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (यस्मिन्) जिस (मन्मनि) मनन योग्य (अपीच्ये) सबके लय होने के स्थान या परम दर्शनीये या परम गुप्त, गूढ़तम परमेश्वर में (देवाः) ज्ञानी, विद्वान् पुरुष (संचरन्ति) विचरते हैं (अस्य) उसके विषय में (वयम्) हम स्थूल बुद्धि के पुरुष (न विद्म) नहीं जानते, हम उस तक नहीं पहुँचते। (अत्र) इस संसार में (आनागान्) अपराध रहित (नः) हमारा (मित्रः) मित्र (अदितिः) अखण्डनीय, अविनश्वर (सविता) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक (देवः) परमेश्वर, देव ही (वरुणाय) उसको वरण करनेहारे भक्त या साधक के प्रति (वोचत्) ज्ञान का उपदेश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    In whose illuminative yet mysterious being all divine powers exist and act, we know not well. May the same refulgent Agni, the divine powers reveal to us who are simple, sincere and conscientious seekers of Divinity, so that we may distinctly and intelligently know and serve the divine power. May Mitra, universal spirit of divine love as the sun, Aditi, imperishable mother Nature, self-refulgent Savita, creator and inspirer, reveal the mysterious power and presence of Agni.

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    Translation

    In what secret devotion the gods go about - we know it not: may Mitra; may Aditi, may god Savitar declare us here guiltless to Varuna. [Also Rg.X.I2.8]

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    Translation

    We do not know the Inscrutable God, Who is worthy of meditation. May God, the Friend, Immortal, the Creator, preach unto us the sinless and His devotee.

    Footnote

    See Rig, 10-12-8

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(यस्मिन्) परमात्मनि (देवाः) दिव्यनियमाः (मन्मनि) ज्ञाने (संचरन्ति) विचरन्ति (अपीच्ये) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। अपि+अञ्चतेः क्विन्।भवे छन्दसि च। पा० ४।४।११०। इति यत्। अपीच्यं निर्णीतान्तर्हितनाम-निघ० ३।२५।अन्तर्हिते। गुप्ते (न) निषेधे (वयम्) विद्वांसः (अस्य) इदम् (विद्म) जानीमः (मित्रः) सुहृत् (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् विषये (अदितिः) अखण्डः। अविनाशी (अनागान्) इण आगोऽपराधे च्। उ० ४।२१। इति श्रवणाद् इण् गतौ-ड, आगादेशः। अनागसः। निरपराधिनः (सविता) सर्वोत्पादकः (देवः) प्रकाशमयःपरमात्मा (वरुणाय) श्रेष्ठगुणाय (वोचत्) कथयेत्। उपदिशेत् ॥

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