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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 65
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    41

    अभू॑द्दू॒तःप्रहि॑तो जा॒तवे॑दाः सा॒यं न्यह्न॑ उप॒वन्द्यो॒ नृभिः॑। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभू॑त् । दू॒त: । प्रऽहि॑त: । जा॒तऽवे॑दा: । सा॒यम् । नि॒ऽअह्ने॑ । उ॒प॒ऽवन्द्य॑: । नृऽभि॑: । प्र । अ॒दा॒: । पि॒तृऽभ्य॑: । स्व॒धया॑ । ते । अ॒क्ष॒न् । अ॒ध्दि । त्वम् । दे॒व॒ । प्रऽय॑ता । ह॒वींषि॑ ॥४.६५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभूद्दूतःप्रहितो जातवेदाः सायं न्यह्न उपवन्द्यो नृभिः। प्रादाः पितृभ्यःस्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभूत् । दूत: । प्रऽहित: । जातऽवेदा: । सायम् । निऽअह्ने । उपऽवन्द्य: । नृऽभि: । प्र । अदा: । पितृऽभ्य: । स्वधया । ते । अक्षन् । अध्दि । त्वम् । देव । प्रऽयता । हवींषि ॥४.६५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 65
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (दूतः) चलनेवाला [उद्योगी] (प्रहितः) बड़ा हितकारी (जातवेदाः) महाज्ञानी [वा महाधनी] पुरुष (सायम्) सायंकाल में और (न्यह्ने) प्रातःकाल में (नृभिः) नेताओं करके (उपवन्द्यः) बहुत प्रशंसनीय (अभूत्) हुआ है। [इसलिये] (पितृभ्यः) पितरों [रक्षकमहात्माओं] को (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (प्रयता) शुद्ध [वा प्रयत्न से सिद्धकिये] (हवींषि) ग्रहण करने योग्य भोजन (प्र) अच्छे प्रकार (अदाः) तूने दियेहैं, (ते) उन्होंने (अक्षन्) खाये हैं, (देव) हे विद्वान् ! (त्वम्) तू (अद्धि)खा ॥६५॥

    भावार्थ

    उद्योगी, हितकारीविद्वान् लोग सदा से बड़े लोगों के माननीय हुए हैं, इसलिये मनुष्य भोजन आदि सेविद्वानों का सत्कार करके अपनी रक्षा करें और कीर्ति बढ़ावें ॥६५॥इस मन्त्र काउत्तरार्द्ध ऊपर आचुका है-अ० १८।३।४२। और पूर्वार्द्ध का मिलान करो-ऋग्० ४।५४।१॥

    टिप्पणी

    ६५−(अभूत्) (दूतः) दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। दु गतौ-क्त। गमनशीलः। उद्योगी (प्रहितः) प्रकृष्टो हितकारी (जातवेदाः) उत्पन्नज्ञानः। बहुधनः (सायम्)सूर्यास्ते (न्यह्ने) निगते निश्चयेन प्राप्ते दिने। प्रातःकाले (उपवन्द्यः)महाप्रशंसनीयः (नृभिः) नेतृभिः (प्र) प्रकर्षेण (अदाः) दत्तवानसि (पितृभ्यः) (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (ते) पितरः (अक्षन्) अघसन्। अभक्षयन् (अद्धि) भक्षय (त्वम्) (देव) हे विद्वन् (प्रयता) शुद्धानि। प्रयत्नेन साधितानि (हवींषि)ग्राह्याणि भोजनानि ॥

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    विषय

    दूतः प्रहितः

    पदार्थ

    १. वानप्रस्थाश्रम से समय-समय पर हमारे समीप प्राप्त होनेवाला यह पिता (दूतः अभूत) = प्रभु का सन्देशवाहक होता है। (प्रहित:) = यह हमारा प्रकृष्ट हित करनेवाला व (जातवेदा:) = ज्ञानी होता है। यह पिता (सायम्) = सायं और (नि अह्ने) = प्रात: (नृभिः उपबन्ध:) = गृहस्थ लोगों से वन्दनीय होता है। २. हे गृहस्थ! तू (पितृभ्यः प्रादा:) = पितरों के लिए स्वधा [अन्न] देता है। (स्वधया ते अक्षन्) = आत्मधारण के हेतु से वे इसे खाते हैं। हे (देवः) = दिव्यवृत्तिवाले पुरुष! (त्वम्) = तू भी (प्रयता हवीषि) = इन पवित्र यज्ञशिष्ट भोजनों को अद्धि-खा। पितरों को खिलाने के बाद ही खाना ठीक है।

    भावार्थ

    वानप्रस्थ से आये पितर प्रभु के दूत ही होते हैं-वे हमें हितकर प्रिय ज्ञान देते हैं। हम पितरों को खिलाकर यज्ञशिष्ट पवित्र भोजनों का ही ग्रहण करें।

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    भाषार्थ

    (जातवेदाः) सब उत्पन्न चराचर जगत् में विद्यमान परमेश्वर (दूतः) पापों को परितप्त करनेवाला, उन्हें जला देनेवाला, तथा (प्रहितः) अतिशय हितकर (अभूत्) हुआ है। वह (सायम्) सायंकाल और (न्यह्ने) दिनोद्गम के समय (नृभिः) नर-नारियों द्वारा (उपवन्द्यः) उपासना विधि द्वारा स्तुत्य और अभिवन्दनीय है। हे परमेश्वर! आप ने ही (पितृभ्यः) पितरों के लिए (प्रयता हवींषि) पवित्र हविष्यान्न (प्रादाः) प्रदान किया है, जिसका कि (ते) वे पितर (स्वधया) आत्मधारण-पोषण की दृष्टि से (अक्षन्) भक्षण करते हैं। (देव) हे मेरे पितृदेव! (त्वम्) आप भी यह पवित्र हविष्यान्न (अद्धि) खाया कीजिए।

    टिप्पणी

    [जातवेदाः=मन्त्र ४(६४) में ‘जातवेदाः’ द्वारा आहवनीय आदि अग्नियों का वर्णन हुआ है। परन्तु मन्त्र ४(६५) में इन जातवेदा-अग्नियों में नियामकरूप में स्थित परमेश्वर जातवेदाः का वर्णन हुआ है। जातवेदा-अग्नियों में स्थित परमेश्वर को भी जातवेदा कहा है। जैसे कि अग्नि में स्थित परमेश्वर को अग्नि कहा है। यथा “अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः” (अथर्व० ४.३९.९)। निरुक्तकार ने भी जातवेदा के निर्वचनों में “जातप्रज्ञः” में लिखा है। “जातप्रज्ञ” आहवनीयादि अग्नियाँ नहीं हो सकतीं। जातप्रज्ञ तो परमेश्वर ही है (निरु० ७.५.१९)। तथा “जातवेदस इति जातमिदं सर्वं सचराचरं स्थित्युत्पत्तिप्रलयन्यायेना-स्थाय विद्यते” (निरु॰ १३(१४)। ३(२)। ३३(४६)। तथा “उपवन्द्यः” द्वारा जातवेदा को उपासनाविधि द्वारा स्तुत्य और अभिवन्दनीय कहा है। महर्षि दयानन्द प्रथम समुल्लास, सत्यार्थप्रकाश में कहते हैं कि— “जहाँ-जहाँ स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्त्ता आदि विशेषण लिखे हैं, वहीं-वहीं इन नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है”। प्रादाः=वनस्थ पितरों को परमेश्वर ने आरण्य कन्द मूल फल तथा आरण्यान्न दे रखे हैं, ये हविष्यान्न हैं। देव=पितृदेव, यथा—आचार्य-देव, मातृदेव, अतिथिदेव। जो गृहस्थी देव बनना चाहते हैं, उन्हें भी हविष्यान्न का सेवन करना चाहिए।]

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    विषय

    देवयान और पितृयाण।

    भावार्थ

    (जातवेदाः) वेदों का जानने हारा जो पुरुष सूर्य के समान हमारे पास (दूतः) दूत, उत्तम संदेश पहुंचाने वाले के रूप में (प्रहितः) भेजा (अभूत्) जाता है। वह (सायं विन्यह्नः) सायं प्रातः दोनों समय (नृभिः) पुरुषों द्वारा (उपवन्द्यः) सदा नमस्कार करने योग्य होता है। हे (जातवेदः) विद्वान् ! तू (हवींषि) नाना अन्न (पितृभ्यः) अपने पूज्यपितरों को (प्र अदाः) प्रदान कर। (ते) वे (स्वधया) अपने प्राणशक्ति से या अपने शरीर के धारण के हेतु (हवींषि अक्षन्) उन अन्नों का भोजन करें। और हे (देव) देव ! विद्वन् ! तब (त्वम्) तभी (प्रयता) अति नियमित (हवींषि) अन्नों का स्वयं (अद्धि) भोगकर।

    टिप्पणी

    ‘अभूद्देवः सविता वन्द्योनु न इदानांमन्ह उपवाच्यो नृभिः। वि यो रत्ना मजति मान्वेभ्यः श्रेष्ठंनो अत्र द्रविणं यथा दधत’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः, मन्त्रोक्ताः बहवश्च देवताः (८१ पितरो देवताः ८८ अग्निः, ८९ चन्द्रमाः) १, ४, ७, १४, ३६, ६०, भुरिजः, २, ५,११,२९,५०, ५१,५८ जगत्यः। ३ पश्चपदा भुरिगतिजगती, ६, ९, १३, पञ्चपदा शक्वरी (९ भुरिक्, १३ त्र्यवसाना), ८ पश्चपदा बृहती (२६ विराट्) २७ याजुषी गायत्री [ २५ ], ३१, ३२, ३८, ४१, ४२, ५५-५७,५९,६१ अनुष्टुप् (५६ ककुम्मती)। ३६,६२, ६३ आस्तारपंक्तिः (३९ पुरोविराड्, ६२ भुरिक्, ६३ स्वराड्), ६७ द्विपदा आर्ची अनुष्टुप्, ६८, ७१ आसुरी अनुष्टुप, ७२, ७४,७९ आसुरीपंक्तिः, ७५ आसुरीगायत्री, ७६ आसुरीउष्णिक्, ७७ दैवी जगती, ७८ आसुरीत्रिष्टुप्, ८० आसुरी जगती, ८१ प्राजापत्यानुष्टुप्, ८२ साम्नी बृहती, ८३, ८४ साम्नीत्रिष्टुभौ, ८५ आसुरी बृहती, (६७-६८,७१, (८६ एकावसाना), ८६, ८७, चतुष्पदा उष्णिक्, (८६ ककुम्मती, ८७ शंकुमती), ८८ त्र्यवसाना पथ्यापंक्तिः, ८९ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः, शेषा स्त्रिष्टुभः। एकोननवत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Jataveda Agni, that is, the Ahavaniya, Garhapatya and Dakshinagni, yajnic fires of the house¬ holder, are a messenger, an agent on natural and divine duty, and this yajnic fire is sacred, worthy of adoration and service every morning and evening by the house¬ holders. O Jataveda Agni, sacred messenger, take to the pitaras the homage offered, let them share and consume it as their own rightful share, and you too have and consume your share of the offerings, O divine and refulgent fire.

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    Translation

    Jatavedas has been the messenger sent forth, at evening, at close of day to be honored by men;—thou hast given to the Fathers; they have eaten after their wont; eat thou, O god, the presented oblation.

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    Translation

    This fire of Yajna present in all objects is sent as an envoy (to all the Yajna-devas). This is praised by men at evening and at morning, this fire give oblatory substance to sun- rays and they grasp it by their capacity. Let this blazing fire consume the oblations according to procedure.

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    Translation

    The learned person, well-versed in Vedic lore. sent as preachers should be respected morning and evening by men. O learned person of divine qualities, regularly take food, offered to thee and safely carry the vitalizing food to the elders so that they may eat it.

    Footnote

    The verse refers to the regular contact between the Banprasthi elders and the Grihasthi progeny, through a learned person, who might be one of their disciples. cf. Rig 4.54.1.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६५−(अभूत्) (दूतः) दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। दु गतौ-क्त। गमनशीलः। उद्योगी (प्रहितः) प्रकृष्टो हितकारी (जातवेदाः) उत्पन्नज्ञानः। बहुधनः (सायम्)सूर्यास्ते (न्यह्ने) निगते निश्चयेन प्राप्ते दिने। प्रातःकाले (उपवन्द्यः)महाप्रशंसनीयः (नृभिः) नेतृभिः (प्र) प्रकर्षेण (अदाः) दत्तवानसि (पितृभ्यः) (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (ते) पितरः (अक्षन्) अघसन्। अभक्षयन् (अद्धि) भक्षय (त्वम्) (देव) हे विद्वन् (प्रयता) शुद्धानि। प्रयत्नेन साधितानि (हवींषि)ग्राह्याणि भोजनानि ॥

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