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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, चन्द्रमाः छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    136

    संसं॑ स्रवन्तु न॒द्यः सं वाताः॒ सं प॑त॒त्रिणः॑। य॒ज्ञमि॒मं व॑र्धयता गिरः संस्रा॒व्येण ह॒विषा॑ जुहोमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। सम्। स्र॒व॒न्तु॒। न॒द्यः᳡। सम्। वाताः॑। सम्। प॒त॒त्रिणः॑। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। व॒र्ध॒य॒त॒। गि॒रः॒। स॒म्ऽस्रा॒व्ये᳡ण। ह॒विषा॑। जु॒हो॒मि॒ ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संसं स्रवन्तु नद्यः सं वाताः सं पतत्रिणः। यज्ञमिमं वर्धयता गिरः संस्राव्येण हविषा जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। सम्। स्रवन्तु। नद्यः। सम्। वाताः। सम्। पतत्रिणः। यज्ञम्। इमम्। वर्धयत। गिरः। सम्ऽस्राव्येण। हविषा। जुहोमि ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (1)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (नद्यः) नदियाँ (सम् सम्) बहुत अनुकूल (स्रवन्तु) बहें, (वाताः) विविध प्रकार के पवन और (पतत्रिणः) पक्षी (सम् सम्) बहुत अनुकूल [बहें]। (गिरः) हे स्तुतियोग्य विद्वानो ! (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] को (वर्धयत) बढ़ाओ, (संस्राव्येण) बहुत अनुकूलता से भरी हुई (हविषा) भक्ति के साथ [तुम को] (जुहोमि) मैं स्वीकार करता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि नौका, खेती आदि में प्रयोग करने से नदियों को, विमान आदि शिल्पों से पवनों को और यथायोग्य व्यवहार से पक्षी आदि को अनुकूल करें और नम्रतापूर्वक विद्वानों से मिलकर सुख के व्यवहारों को बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।१५।१ ॥ इस सूक्त का मिलान करो-अ० १।१५ ॥ १−(सम् सम्) अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। अत्यन्तसम्यक्। अत्यनुकूलाः (स्रवन्तु) वहन्तु (नद्यः) सरितः (सम् सम्) अत्यनुकूलाः (वाताः) विविधपवनाः (पतत्रिणः) पक्षिणः (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (वर्धयत) समृद्धं कुरुत (गिरः) गीर्यन्ते स्तूयन्त इति गिरः, कर्मणि-क्विप्। हे स्तूयमाना विद्वांसः (संस्राव्येण) स्रु गतौ−ण। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। संस्राव−यत्। संस्रावेण सम्यक् स्रवणेन आर्द्रभावेन युक्तेन (हविषा) आत्मदानेन। भक्त्या (जुहोमि) अहमाददे। स्वीकरोमि युष्मान् ॥

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    May the rivers flow together in unison, may the winds blow together in unison, may the birds fly together in unison. O songs of divinity, extend and elevate this yajna of togetherness and unity. I offer oblations with the fragrant havi of the unity of diversity-in-unison.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से आ चुका है-अ० १।१५।१ ॥ इस सूक्त का मिलान करो-अ० १।१५ ॥ १−(सम् सम्) अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते-निरु० १०।४२। अत्यन्तसम्यक्। अत्यनुकूलाः (स्रवन्तु) वहन्तु (नद्यः) सरितः (सम् सम्) अत्यनुकूलाः (वाताः) विविधपवनाः (पतत्रिणः) पक्षिणः (यज्ञम्) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारम् (वर्धयत) समृद्धं कुरुत (गिरः) गीर्यन्ते स्तूयन्त इति गिरः, कर्मणि-क्विप्। हे स्तूयमाना विद्वांसः (संस्राव्येण) स्रु गतौ−ण। तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। संस्राव−यत्। संस्रावेण सम्यक् स्रवणेन आर्द्रभावेन युक्तेन (हविषा) आत्मदानेन। भक्त्या (जुहोमि) अहमाददे। स्वीकरोमि युष्मान् ॥

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