अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अभय सूक्त
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अभ॑यं मि॒त्रादभ॑यम॒मित्रा॒दभ॑यं ज्ञा॒तादभ॑यं पु॒रो यः। अभ॑यं॒ नक्त॒मभ॑यं दिवा नः॒ सर्वा॒ आशा॒ मम॑ मि॒त्रं भ॑वन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअभ॑यम्। मि॒त्रात्। अभ॑यम्। अ॒मित्रा॑त्। अभ॑यम्। ज्ञा॒तात्। अभ॑यम्। पु॒रः। यः। अभ॑यम्। नक्त॑म्। अभ॑यम्। दिवा॑। नः॒। सर्वाः॑। आशाः॑। मम॑। मि॒त्रम्। भ॒व॒न्तु॒ ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभयं मित्रादभयममित्रादभयं ज्ञातादभयं पुरो यः। अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअभयम्। मित्रात्। अभयम्। अमित्रात्। अभयम्। ज्ञातात्। अभयम्। पुरः। यः। अभयम्। नक्तम्। अभयम्। दिवा। नः। सर्वाः। आशाः। मम। मित्रम्। भवन्तु ॥१५.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मित्रात्) मित्र से (अभयम्) अभय और (अमित्रात्) अमित्र [पीड़ा देने हारे] से (अभयम्) अभय हो, (ज्ञातात्) जानकार से (अभयम्) अभय और (यः) जो (पुरः) सामने है [उससे भी] (अभयम्) अभय हो। (नः) हमारे लिये (नक्तम्) रात्रि में (अभयम्) अभय और (दिवा) दिन में (अभयम्) अभय हो, (मम) मेरी (सर्वाः) सब (आशाः) आशाएँ (मित्रम्) मित्र (भवन्तु) होवें ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिये कि सर्वदा सब प्रकार चौकस रहकर परमात्मा के विश्वास से और राजा के सुप्रबन्ध से अपनी रक्षा करे ॥६॥
टिप्पणी
६−(अभयम्) भयराहित्यम् (मित्रात्) सुहृदः सकाशात् (अभयम्) (अमित्रात्) अम पीडने-इत्रप्रत्ययः। पीडकात् (अभयम्) (ज्ञातात्) परिचितात् (अभयम्) (पुरः) पुरस्तात् (यः) (अभयम्) (नक्तम्) रात्रौ (अभयम्) (दिवा) दिने (नः) अस्मभ्यम् (सर्वाः) (आशाः) दीर्घाकाङ्क्षाः (मित्रम्) (भवन्तु) ॥६॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( मित्रात् अभयं ) = मित्र से अभय हो ( अमित्रात् अभयम् ) = शत्रु से अभय ( ज्ञातात् अभयम् ) = द्वेष्टा रूप से ज्ञात शत्रु से अभय ( यः पुरः ) = ज्ञात से अन्य जो अज्ञात शत्रु उससे भी अभय हो ( नक्तम् ) = रात्रि में ( अभयम् ) = अभय हो ( दिवा नः अभयम् ) = दिन में हमको भय-राहित्य हो ( सर्वा आशा: ) = सब दिशाएँ ( मम मित्रं भवन्तु ) = मेरी हितकारिणी होवें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे सर्व भयहर्ता परमात्मन्! मित्र से हमें अभय, अर्थात् भय से अन्य हितफल, सर्वदा प्राप्त हो । शत्रु से अभय हो, जो ज्ञात शत्रु है उससे तथा अज्ञात शत्रु से भी भय-राहित्य हो, रात्रि में तथा दिन में अभय हो । पूर्व पश्चिम आदि सब दिशा, हमारे हित के करनेवाली हों । यह सब फल आपकी कृपा से प्राप्त हो सकते हैं, आपकी कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता ।
विषय
'मित्र व अमित्र' सभी से अभय
पदार्थ
१. (मित्रात् अभयम्) = मित्र से हमें अभय हो। (अमित्रात् अभयम्) = शत्रु से अभय प्राप्त हो। (ज्ञातात्) = ज्ञात-परिचित से (अभयम्) = अभय हो और (परोक्षात्) = जो परोक्ष है, उससे भी (न:) = हमें (अभयम्) = अभय हो। २. (नक्तम् अभयम्) = रात्रि में अभय हो। (न:) = हमारे लिए दिवा-दिन में (अभयम्) = अभय हो। (सर्व: आशा:) = सब दिशाएँ मम मेरी (मित्रं भवन्तु) = मित्र हों।
भावार्थ
मित्र-अमित्र, परिचित व अपरिचित सभी से हमें अभय हो। रात व दिन में हमें सदा अभय हो। सब दिशाओं में सर्वत्र हमें स्नेह प्राप्त हो।
भाषार्थ
(मित्रात्) मित्र से (अभयम्) अभय हो, (अमित्रात्) जो मित्र नहीं उस से (अभयम्) अभय हो, (ज्ञातात्) जाने-पहिचाने से (अभयम्) अभय हो, (यः) जो (पुरः) सामने उपस्थित है उससे (अभयम्) अभय हो। (नः) हमें (नक्तम्) रात्रि (अभयम्) भयरहित हो, (दिवा) दिन (अभयम्) भयरहित हो, (सर्वाः आशाः) सब दिशाएं अर्थात् सब दिशाओं के निवासी (मम) मेरे (मित्रम्) मित्र (भवन्तु) हो जायें।
टिप्पणी
[मित्रात्= सच्चाई के कथन में मित्र-अमित्र का भेद नहीं करना चाहिए। मित्र के खराबी को मित्र से कहते (झेंपना) न चाहिए। तथा कोई व्यक्ति चाहे अपने सामने ही उपस्थित क्यों न हो, उसे भी उस की खाराबी के कहने में संकोच न करना चाहिए। परन्तु इतना अवश्य चाहिए कि खाराबी कहते समय वाणी प्रियरूप होनी चाहिए। यथा “सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्” (मनु०)। राथह्विटनी ने पुरो यः के स्थान में परोक्षात् पाठ माना है। यही महर्षि दयानन्द ने संस्कारविधि के शान्तिकरण के अन्त में इस मन्त्र में स्वीकार किया है। द्र०, संस्करण २।]
विषय
अभय की प्रार्थना।
भावार्थ
(मित्रात् अभयम्) मित्र से भय न रहे, (अभित्रात् अभयम्) अमित्र, शत्रु से भय न रहे। (ज्ञातात् अभयम्) जाने ही परिचित पुरुष से भी भय न रहे। (ये पुरः) और जो अनजान हमारे आगे आ जांय उनसे भी (अभयम्) भय न रहे (नक्तम् अभयम्) रात को अभय रहे। (दिवा अभयम्) दिनको भी भय न रहे। (सर्वाः आशाः) समस्त दिशाएं, सब दिशाओं के वासी जन्तु (मम मित्रं भवन्तु) मेरे मित्र होकर रहें।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘परो यः’ इति सायणाभिमतः। ‘परोक्षात्’ इति क्वचित्, ह्विटनिकामितश्च।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १-४ इन्द्रः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः । १ पथ्या बृहती। २-५ चतुष्पदा जगत्यः । ३ विराट् पथ्यापंक्तिः। ४, ६ त्रिष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Fearlessness
Meaning
May there be fearlessness from friends, no fear from non-friends, no fear from those we know, no fear from whatever is upfront, no fear by night, no fear by day for us. May all quarters of space be friends to us, free from hate and fear.
Translation
May there be no fear from a friend;no fear from a foe; no fear from óne known to us; no fear from the unknown one. May there be no fear at night, no fear in the day for us. May all the regions be friendly to me.
Translation
May we be fearless of our friends, and even of those who are unfriendly to us, may we never fall in dread of whom we know and even of those whom we do not know, may we remain free from any apprehension by night and in the day time, and may all the quarters be friendly to us.
Translation
Let there be fearlessness for us, from the friend, from the enemy, from the known, from the unknown, during the day and the night. Let all quarters (i.e., the people from all quarters) be my friends.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अभयम्) भयराहित्यम् (मित्रात्) सुहृदः सकाशात् (अभयम्) (अमित्रात्) अम पीडने-इत्रप्रत्ययः। पीडकात् (अभयम्) (ज्ञातात्) परिचितात् (अभयम्) (पुरः) पुरस्तात् (यः) (अभयम्) (नक्तम्) रात्रौ (अभयम्) (दिवा) दिने (नः) अस्मभ्यम् (सर्वाः) (आशाः) दीर्घाकाङ्क्षाः (मित्रम्) (भवन्तु) ॥६॥
बंगाली (1)
পদার্থ
অভয়ং মিত্রাদভয়মমিত্রাদভয়ং জ্ঞাতাদভয়ং নো পরোক্ষাৎ ৷
অভয়ং নক্তমভয়ং দিবা নঃ সর্বা আশা মম মিত্রং ভবন্তু।।৬।।
(অথর্ব ১৯।১৫।৬)
পদার্থঃ (মিত্রাৎ অভয়ম্) মিত্র থেকে অভয় হই, (অমিত্রাৎ অভয়ম্) শত্রু থেকে অভয় হই, (জ্ঞাতাৎ অভয়ম্) জ্ঞাতজন থেকে অভয় হই (নঃ পরোক্ষাৎ অভয়ম্) অজ্ঞাত ব্যক্তি থেকে আমরা অভয় হই। (নক্তম্) রাত্রি (অভয়ম্) [আমাদের] অভয় হোক, (দিবা নঃ অভয়ম্) দিবস আমাদের ভয়রহিত হোক। (সর্বা আশাঃ) সকল দিক (মম মিত্রং ভবন্তু) আমার হিতকারিণী হোক।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে সর্বভয়হরণকারী পরমাত্মা! মিত্রদের থেকে আমাদের অভয় অর্থাৎ ভয় ভিন্ন অন্য উপকারী ফল প্রাপ্ত হোক। শত্রু থেকে অভয় হোক, জ্ঞাত ও অজ্ঞাত ব্যক্তি থেকে ভয় দূর হোক, রাত্রি তথা দিন ও অভয় হোক। পূর্ব-পশ্চিম ইত্যাদি সকল দিক আমাদের হিতকারী হোক। তোমার কৃপায় এই সকল ফল প্রাপ্ত হওয়া যায়, তোমার কৃপা ছাড়া কোনো কিছুই প্রাপ্ত হওয়া যায় না ।।৬।।
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