अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोपथः
देवता - रात्रिः
छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
53
यत्किं चे॒दं प॒तय॑ति॒ यत्किं चे॒दं स॑रीसृ॒पम्। यत्किं च॒ पर्व॑ताया॒सत्वं॒ तस्मा॒त्त्वं रा॑त्रि पाहि नः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। किम्। च॒। इ॒दम्। प॒तय॑ति। यत्। किम्। च॒। इ॒दम्। स॒री॒सृ॒पम्। यत्। किम्। च॒। पर्व॑ताय। अ॒सत्व॑म्। तस्मा॑त्। त्वम्। रात्रि॑। पा॒हि॒। नः॒ ॥४८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्किं चेदं पतयति यत्किं चेदं सरीसृपम्। यत्किं च पर्वतायासत्वं तस्मात्त्वं रात्रि पाहि नः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। किम्। च। इदम्। पतयति। यत्। किम्। च। इदम्। सरीसृपम्। यत्। किम्। च। पर्वताय। असत्वम्। तस्मात्। त्वम्। रात्रि। पाहि। नः ॥४८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यत् किम् च) जो कुछ (इदम्) यह (पतयति) उड़ता है, (यत् किम् च) जो कुछ (इदम्) यह (सरीसृपम्) टेढ़ा-टेढ़ा रेंगनेवाला [सर्प आदि] है। (यत् किम् च) और जो कुछ (पर्वताय) पहाड़ पर (असत्वम्) दुष्ट जन्तु [सिंह आदि] है, (तस्मात्) उससे, (त्वम्) तू (रात्रि) हे रात्रि ! (नः) हमें (पाहि) बचा ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य घरों को ऐसा सुडौल बनावें कि रात्रि में सब प्रकार के हिंसक प्राणियों से रक्षा रहे ॥३॥
टिप्पणी
३−(यत्) (किञ्च) किञ्चित् (इदम्) दृश्यमानम् (पतयति) उड्डीयते (यत्) (किञ्च) (इदम्) (सरीसृपम्) सृप्लृ गतौ-यङ्, पचाद्यच् कुटिलगतिशीलं सर्पादिकम् (यत् किम् च) (पर्वताय) सप्तम्यर्थे चतुर्थी पर्वते (असत्वम्) सत्त्वशब्दः प्राणिवाची। दुष्टं सत्त्वम् असत्त्वम्, व्याघ्रसिंहादिकम् (तस्मात्) पूर्वोक्तात् सर्वस्मात् (त्वम्) (रात्रि) (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् ॥
भाषार्थ
(इदम्) यह (यत् किं च) जो कुछ (पतयति) आकाश में उड़नेवाले श्येनादि हैं; (इदम्) यह (यत् किं च) जो कुछ (सरीसृपम्) सरकने वाले सर्प आदि हैं; (यत्) जो (किं च) कुछ (पर्वताय) पर्वत को प्राप्त (असत्वम्) सत्त्वगुण रहित राजस तामस स्वभाव वाले प्राणी प्राप्त हैं (तस्मात्) उस सब से (रात्रि) हे रात्रि! (त्वम्) तू (नः) हमें (पाहि) सुरक्षित कर।
विषय
"बाज़-साँप व व्याघ्र' से रक्षण
पदार्थ
१. (यत् किञ्च) = जो कुछ (इदम्) = यह परिदृश्मान बाज़ आदि (पतयति) = आकाश में गति करता है और (यत् किञ्च) = जो कुछ (इदम्) = यह (सरीसृपम्) = भूमि पर सरकनेवाला साँप आदि प्राणिजात है और (यत् किञ्च) = जो कुछ (पर्वताया) = पर्वत-सम्बन्धी (अ-सत्वम्) = [अ-अप्रशस्त] दुष्ट व्यान, सिंह आदि प्राणी हैं, हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! (तस्मात्) = उससे (त्वम्) = तू (नः पाहि) = हमें रक्षित कर।
भावार्थ
रात्रि हमें उड़नेवाले उल्लू, बाज़ आदि पक्षियों से, रेंगनेवाले सर्प आदि से तथा दुष्ट व्याघ्रादि से रक्षित करे।
विषय
राष्ट्रशक्ति रूप ‘रात्रि’।
भावार्थ
(यत् किं च) जो कुछ प्राणिवर्ग (इदं) यह या इस प्रकार (पतयति) घूमा करते हैं या ऊपर से हम पर टूटते हैं और (यत् किं च इदम्) ये जो कुछ (सरीसृपम्) सरकने वाले, सांप आदि प्राणि हैं। और (यत् किंञ्च) जो कुछ प्राणी (पर्वते) पर्वतों में (आ, असत्) विद्यमान हैं अथवा (पद्वत् आ सुन्वत्) पैरों वाले प्राणिवर्ग हमारे समीप विचरता है, हे (रात्रि) राजशक्ते ! (तस्मात्) उन सब प्राणियों से (त्वं) तू (नः पाहि) हमारी रक्षा कर। तृतीय चरण में नाना पाठ उपलब्ध हैं ‘पर्वतायासत्व’, ‘पर्वतास त्वं’ ‘पर्वण्यासक्तं’। इत्यादि। पैप्पलाद में— ‘पद्वदासुन्वन्’ है हमारी सम्मति में पाठका रूप होना चाहिये॥ ‘यत् किंच पदासुन्वन् तस्मात् त्वं रात्रि पाहि नः’। अर्थात् एक ‘त्वं’ पद अधिक है। पैप्पलाद का पाठ अधिक स्पष्टार्थ है। सायणसम्मत पाठ है—‘यत् किंच पर्वतायासत्वं’ अर्थात् (यत् किंच) जो कोई (पर्वताय) पर्वत का (असत्वम्) असत्व अर्थात् दुष्ट सत्व, व्याघ्र सिंह आदि हैं।
टिप्पणी
(तृ०) ‘पर्वतायासत्वं’ इति प्रायिकः पाठः। ‘पर्वताय। सः। त्वम्’ इति पदपाठो बहुत्र। ‘पर्वताय। असत्वम्’ इति सायणाभिमतः। ‘च पर्वतासत्वं’ इति शं० पा० नुमितः पाठः। ‘पर्वण्यासक्तं’ इति ह्विटन्यनुमितः। ‘पद्वदासुन्वत्’ इति पैप्प० सं०। (प्र०) पतयति इति क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपथ ऋषिः। रात्रिर्देवता। १ त्रिपदा आर्षी गायत्री। २ त्रिपदा विराड् अनुष्टुप। ३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। ५ पथ्यापंक्तिः। शेषाः अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
Whatever it is that flies, all this that creeps, whatever wild ones roam around on the mountain, from all that, O Night, pray protect us.
Translation
Whatsoever that flies, whatsoever that glides, and whatsoever a rougue beast of mountains is there, (grips our joints) from that, O night, may you protect us.
Comments / Notes
Text is not clear in the book. If someone has a clearer copy, please edit this translation
Translation
Let this night guard us from whatever is flying in the sky, whatever is creaping and crawling and whatever is creatures are on the hilly places.
Translation
Whatever there is that falls. (like the meteorites), whatever there is that crawls and creeps, (like serpents). Whatever there is evil in the mountains, (like the beasts of prey) mayst thou protect us from all these.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यत्) (किञ्च) किञ्चित् (इदम्) दृश्यमानम् (पतयति) उड्डीयते (यत्) (किञ्च) (इदम्) (सरीसृपम्) सृप्लृ गतौ-यङ्, पचाद्यच् कुटिलगतिशीलं सर्पादिकम् (यत् किम् च) (पर्वताय) सप्तम्यर्थे चतुर्थी पर्वते (असत्वम्) सत्त्वशब्दः प्राणिवाची। दुष्टं सत्त्वम् असत्त्वम्, व्याघ्रसिंहादिकम् (तस्मात्) पूर्वोक्तात् सर्वस्मात् (त्वम्) (रात्रि) (पाहि) रक्ष (नः) अस्मान् ॥
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