अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
ऋषिः - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिपदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
63
सं राजा॑नो अगुः॒ समृ॒णान्य॑गुः॒ सं कु॒ष्ठा अ॑गुः॒ सं क॒ला अ॑गुः। सम॒स्मासु॒ यद्दुः॒ष्वप्न्यं॒ निर्द्वि॑ष॒ते दुः॒ष्वप्न्यं॑ सुवाम ॥
स्वर सहित पद पाठसम्। राजा॑नः। अ॒गुः॒। सम्। ऋ॒णानि॑। अ॒गुः॒। सम्। कु॒ष्ठाः। अ॒गुः॒। सम्। क॒लाः। अ॒गुः॒। सम्। अ॒स्मासु॑। यत्। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। निः। द्वि॒ष॒ते। दुः॒ऽस्वप्न्य॑म्। सु॒वा॒म॒ ॥५७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं राजानो अगुः समृणान्यगुः सं कुष्ठा अगुः सं कला अगुः। समस्मासु यद्दुःष्वप्न्यं निर्द्विषते दुःष्वप्न्यं सुवाम ॥
स्वर रहित पद पाठसम्। राजानः। अगुः। सम्। ऋणानि। अगुः। सम्। कुष्ठाः। अगुः। सम्। कलाः। अगुः। सम्। अस्मासु। यत्। दुःऽस्वप्न्यम्। निः। द्विषते। दुःऽस्वप्न्यम्। सुवाम ॥५७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुरे स्वप्न दूर करने का उपदेश।
पदार्थ
(राजानः) राजा लोग (सम् अगुः) एकत्र हुए हैं, (ऋणानि) अनेक ऋण (सम् अगुः) एकत्र हुए हैं, (कुष्ठाः) कुष्ठ [कूट आदि औषध विशेष] (सम् अगुः) इकट्ठे हुए हैं, (कलाः) कलाएँ [समय के अंश] (सम् अगुः) एकत्र हुए हैं। (अस्मासु) हममें, (यत्) जो (दुःष्वप्न्यम्) दुष्ट स्वप्न (सम्=सम् अगात्) एकत्र हुआ है, (दुःष्वप्न्यम्) उस दुष्ट स्वप्न को (द्विषते) वैर करनेवाले के लिये (निः सुवाम) हम बाहर निकालें ॥२॥
भावार्थ
(कुष्ठ) अर्थात् कूट औषध के लिये देखो-अ० १९।३९। जैसे राजा लोग एकत्र होकर संसार के कष्ट दूर करते हैं, वैसे ही वैद्य लोग दुष्ट स्वप्न आदि रोगों का नाश करें ॥२॥
टिप्पणी
२−(राजानः) (सम् अगुः) इण् गतौ-लुङ्। संहता अभवन् (ऋणानि) (सम् अगुः) बहूनि अभवन् (कुष्ठाः) अ० १९।३९।१। रोगाणां निष्कर्षकाः। औषधविशेषाः (सम् अगुः) (कलाः) कालांशाः (सम् अगुः) (सम्) सम् अगात् (अस्मासु) (यत्) (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावः (द्विषते) द्वेष्टे (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावम् (निः सुवाम) बहिर्गमयाम ॥
भाषार्थ
(राजानः) राजा लोग (सम् अगुः) इकट्ठे हो जाते हैं, (ऋणानि) ऋण (सम् अगुः) इकट्ठे हो जाते हैं, (कुष्ठाः) कुष्ठ रोग (सम् अगुः) इकट्ठे हो जाते हैं, (कलाः) चन्द्रमा की कलाएं (सम् अगुः) इकट्ठी हो जाती हैं, इसी प्रकार (दुष्वप्न्यम्) दुःस्वप्नों के संस्कार भी (सम्) इकट्ठे हो जाते हैं। (अस्मासु) हम में (यत्) जो (दुष्वप्न्यम्) इकट्ठे हुए दुःस्वप्नों के संस्कार हैं, उन्हें (द्विषते) द्वेष्य पक्ष में (सुवाम) हम प्रेरित करते हैं, और (निः) अपने में से बाहर निकाल देते हैं।
टिप्पणी
[राजानः= “यत्रौषधीः समगमत राजानः समिताविव” (यजु० १२।८०), अर्थात् राजा लोग समिति में इकट्ठे होते हैं। ऋणानि= यदि ऋणों को शनैः शनैः न चुकाया जाय, तो सूद-दर-सूद द्वारा ऋण बढ़ जाते हैं। कुष्ठाः= कुष्ठ १८ प्रकार के होते हैं। यदि आरम्भ में ही कुष्ठ की चिकित्सा न की जाए, तो इन १८ प्रकार के कुष्ठों के आक्रमण की संभावना बनी रहती है। कलाः= पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा की १६ कलाएं इकट्ठी हो जाती हैं। इसी प्रकार मनोबल आदि द्वारा यदि दुःस्वप्नों का संयम न किया जाय, तो इन के भी संस्कार इकट्ठे होकर दुःखदायी हो जाते हैं। इस लिये दुःस्वप्नों को अपने दुश्मन जानकर, दृढ़ संकल्प द्वारा उन्हें चित्तभूमि से बाहर कर देने का यत्न करते रहना चाहिए।]
विषय
संगृहीत दुःष्वप्न्य को द्विषत् में प्रसूत करना
पदार्थ
१. जैसे (राजानः) = राजा लोग (सम् अगुः) = युद्ध-काल में एक-एक करके बहुत-से एकत्र हो जाते हैं। (ऋणानि सम् अगु:) = ऋण भी जुड़ते-जुड़ते बहुत-से एकत्र हो जाते हैं। (कुष्ठा:) = कुत्सित त्वचा के रोग भी (समगुः) = अचिकित्सित होने पर बढ़ते जाते हैं। (कलाः सम् अगु:) = कलाएँ जुड़ती-जुड़ती चन्द्रमा में पूर्णतया संगत हो जाती हैं। इसीप्रकार (अस्मासु) = हममें (यत्) = जो (दुःष्वप्न्य) = अशुभ स्वप्नों का कारणभूत तत्त्व (सम्) [अगात्] = संगत हो गया है, उस सब (दुःष्वप्न्यम्) = अशुभ स्वप्नों के कारणभूत तत्त्व को (द्विषते) = द्वेष करनेवाले पुरुष के निमित्त (निःसुवाम) = अपने से बाहर प्रेरित करते हैं।
भावार्थ
थोड़ा-थोड़ा करके वे तत्त्व हममें संगृहीत हो जाते हैं, जोकि अशुभ स्वप्नों के कारण बना करते हैं। हम उन्हें अपने से पृथक् करके द्वेष करनेवाले पुरुषों के लिए प्रेरित करते हैं।
विषय
आलस्य प्रमाद को दूर करने का उपाय।
भावार्थ
जैसे (राजानः) राजा लोग (सम् अगुः) युद्धकाल में एक एक करके बहुतसे एकत्र हो जाते हैं। और जैसे (ऋणानि) ऋण भी जुड़ते जुड़ते (सम् अगुः) बहुतसे एकत्र हो जाते हैं। और (कुष्ठाः) कुत्सित त्वचा के रोग भी जमा होते होते (सं अंगुः) एकत्र हो जाते हैं। और जिस प्रकार चन्द्र में (कलाः) कलाएं जुड़ती जुड़ती (सम् अगुः) एकत्र हो जाती हैं। उसी प्रकार (यद्) जो (दुःस्वप्न्यम्) दुःखदायी स्वप्न निद्रा या आलस्य की मात्रा है वह भी क्रमसे (अस्मासु) हममें (सम्) एकत्र होती जाती है। हम उस (दुःस्वप्न्यम्) दुखदायी स्वप्न या आलस्य को (द्विषते) द्वेष करने वाले पुरुष के निमित्त (निः सुवाम) त्याग दें।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘स कलां’ इति बहुत्र। (तृ०) ‘यत् दुष्वप्न्यं’ इति क्वचित्। ‘सः श्रृणानि’, ‘सः। कला’ इति पदपाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यम ऋषिः। दुस्वप्ननाशनो देवता। १ अनुष्टुप्। ३ त्र्यवसाना चतुष्पा त्रिष्टुप्। ४ उष्णिग् बृहतीगर्भा विराड् शक्वरीच। ५ त्र्यवसाना पञ्चपदा परशाक्वरातिजगती। पञ्चर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Duh-Svapna
Meaning
All rulers (and all ruling values) have come together (as objects of honour). All debts and obligations have come together (for clearance). All Kushtha herbs have come together (for our health and happiness). All digits of the moon have come together (for light against the dark). Let all evil dreams in us come together and let us put all those evil dreams aside and assign them to that part of our value system which we dislike and reject as totally negative.
Translation
Kings are well gone away; debts are well gone away; leprosies are well gone away; interests on capital (kala) are wéll gone away. Whatever bad dream has accumulated within us, that bad dream we send out to him, who hates us.
Translation
As the men indebted discharge the whole debt collecting sixteen and eighth parts so we transfer all the bad dream to its own unfavorable effects.
Translation
Just as the kings assemble in a war, just debts accumulate just as various kinds of leprosy gather together, just Kalas i.e., 16th part pile up to make the full moon; similarly the bad dreams that accumulate in us, may we drive them off to our foes in toto.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(राजानः) (सम् अगुः) इण् गतौ-लुङ्। संहता अभवन् (ऋणानि) (सम् अगुः) बहूनि अभवन् (कुष्ठाः) अ० १९।३९।१। रोगाणां निष्कर्षकाः। औषधविशेषाः (सम् अगुः) (कलाः) कालांशाः (सम् अगुः) (सम्) सम् अगात् (अस्मासु) (यत्) (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावः (द्विषते) द्वेष्टे (दुःष्वप्न्यम्) दुष्टस्वप्नभावम् (निः सुवाम) बहिर्गमयाम ॥
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