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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    51

    यद्वो॑ व॒यं प्र॑मि॒नाम॑ व्र॒तानि॑ वि॒दुषां॑ देवा॒ अवि॑दुष्टरासः। अ॒ग्निष्टद्वि॒श्वादा पृ॑णातु वि॒द्वान्त्सोम॑स्य॒ यो ब्रा॑ह्म॒णाँ आ॑वि॒वेश॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। वः॒। व॒यम्। प्र॒ऽमि॒नाम॑। व्र॒तानि॑। वि॒दुषा॑म्। दे॒वाः॒। अवि॑दुःऽतरासः। अ॒ग्निः। तत्। वि॒श्व॒ऽअत्। आ। पृ॒णा॒तु॒। वि॒द्वान्। सोम॑स्य। यः। ब्रा॒ह्म॒णान्। आ॒ऽवि॒वेश॑ ॥५९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः। अग्निष्टद्विश्वादा पृणातु विद्वान्त्सोमस्य यो ब्राह्मणाँ आविवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। वः। वयम्। प्रऽमिनाम। व्रतानि। विदुषाम्। देवाः। अविदुःऽतरासः। अग्निः। तत्। विश्वऽअत्। आ। पृणातु। विद्वान्। सोमस्य। यः। ब्राह्मणान्। आऽविवेश ॥५९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्तम मार्ग पर चलने का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विद्वानो ! (यत्) यदि (अविदुष्टरासः) निपट अजान (वयम्) हम (वः विदुषाम्) तुम विद्वानों के (व्रतानि) नियमों को (प्रमिनाम) तोड़ डालें। (विश्वात्) सबका प्रबन्ध करनेवाला (अग्निः) [वह] अग्नि [ज्ञानवान् परमेश्वर] (तत्) उसको (आ पृणातु) पूरा कर देवे, (यः) जिस (सोमस्य) ऐश्वर्य के (विद्वान्) जानकार [परमेश्वर] ने (ब्राह्मणान्) ब्राह्मणों [ब्रह्मज्ञानियों] में (आविवेश) प्रवेश किया है ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अज्ञानी होकर दोष करें, वे विद्वानों के सत्सङ्ग से परमात्मा की उपासनापूर्वक अपने दोषों को हटावें ॥२॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।२।४ और चौथा पाद कुछ भेद से आ चुका है-अ० १८।३।५५ ॥ २−(यत्) यदि (वः) युष्माकम् (वयम्) (प्रमिनाम) मीञ् हिंसायाम्-लोट्। मीनातेर्निगमे। पा० ७।३।८१। इति ह्रस्वः। प्रकर्षेण हिनसाम विनाशयाम (व्रतानि) कर्माणि (विदुषाम्) जानताम् (देवाः) हे विद्वांसः (अविदुष्टरासः) अत्यर्थम् अविद्वांसः (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (तत्) (विश्वात्) अत सातत्यगमने बन्धने च-क्विप्। सर्वप्रबन्धकः (आ) समन्तात् (पृणातु) पूरयतु (विद्वान्) ज्ञानवान् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (यः) परमेश्वरः (ब्राह्मणान्) ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषान् (आविवेश) प्रविष्टवान् ॥

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे दिव्यगुणी विद्वानों! (वः विदुषाम्) आप विद्वानों के दर्शाएं (व्रतानि) सत्यधर्माचरण आदि व्रतों को (वयम्) हमने (यद्) जो (प्रमिनाम) तोड़ा है, जो हम कि (अविदुष्टरासः) आप की अपेक्षया अविद्या अर्थात् अज्ञानवाले हैं, (तत्) उसे (विश्वाद्) प्रलय में सब का भक्षण करनेवाला, (अग्निः) धर्मपथ पर चलानेवाला परमेश्वर (आ पृणातु) हमें शक्ति प्रदान करके पूरित करदे, (यः) जो परमेश्वर कि (सोमस्य विद्वान्) भक्तिरस को जानता हुआ, (ब्राह्मणान्) ब्रह्मवेत्ताओं में (आ विवेश) आ प्रकट होता है। [अग्निः=“अग्ने नय सुपथा” (यजु० ४०|१६)।]

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    विषय

    प्रभु के अनुग्रह से वपालनसामर्थ्य की प्रासि

    पदार्थ

    १. हे (देवा:) = विद्वानो! (विदुषां वः) = ज्ञानवाले आपके (व्रतानि) = कर्मों को (अविदुष्टरास:) = कर्ममार्ग को अतिशयेन न जानते हुए (वयम्) = हम (यत् प्रमिनाम) = जो हिंसा कर बैठते हैं। हे विद्वानो! 'माता, पिता, आचार्य व अतिथिरूप देवो!' हमें आपके प्रति कुछ कर्त्तव्यकर्म करने होते हैं। अज्ञानवश उन कर्मों में हम मालती कर बैठते हैं । २. हमारी प्रार्थना यह है कि (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (तत् आपृणातु) = उस लुसकर्म को पूर्ण करें। प्रभु-कृपा से हमें उस कर्म की अपूर्णता को दूर करने का सामर्थ्य प्राप्त हो। वे प्रभु हमारे इन कर्मों को पूर्ण करें जोकि (विश्वात) = सम्पूर्ण संसार में गतिवाले हैं [विश्व+अत्]। (सोमस्य विद्वान्) = हमारी सौम्यता को जानते हैं-हमने जानबूझकर अभिमान से व्रतों को तोड़ा हो, ऐसी बात नहीं है। वे प्रभु हमारे इन व्रतों को पूर्ण करें (यः) = जोकि (ब्राह्मणान् आविवेश) = ज्ञानी पुरुषों के हृदयों में आविष्ट होते हैं।

    भावार्थ

    हम अज्ञानवश 'माता, पिता, आचार्य व अतिथि' आदि के विषय में कर्तव्यकर्मों को पूर्ण न कर सकें तो वे प्रभु हमें सामर्थ्य दें कि हम इन्हें पूर्ण कर सकें। वस्तुत: प्रभु-कृपा से ही हम इन्हें पूर्ण कर पाएँगे।

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    विषय

    विद्वानों की सेवा और अनुसरण करने की आज्ञा।

    भावार्थ

    हे (देवाः) विद्वान्ः पुरुषो ! ज्ञानदर्शी गुरुजनो ! हम लोग (विदुषाम्) विद्वान् लोगों के (व्रतानि) व्रतों और शुभकर्मों को (अविः दुष्टरासः) सर्वथा न जानने वाले, उनसे बहुत ही अनभिज्ञ हैं। (वयम्) हम लोग (वः) आप लोगों की सेवा में (यत्) जो कुछ भी (प्रमिनाम) त्रुटि करदें उसको वह (अग्निः) सर्वज्ञानी, परमेश्वर (विश्वाद्) सब प्रकार से (आ पृणोतु) पूर्ण करे, हमारी समस्त त्रुटियों को दूर करे। (यः) जो (सोमस्य) सोम सर्वप्रेरक ज्ञानमय परमेश्वर का (विद्वान्) जानने हारा होकर (ब्राह्मणान्) ब्राह्मणों में (आविवेश) आदर पूर्वक विराजमान है।

    टिप्पणी

    (तृ०) विश्वमापृणाति इति ऋ०। ‘विश्वम्’ इति सायणः। ‘विश्वअत्०’ इति पदपाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ गायत्री। २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    O Devas, divinities of nature and brilliant sages of humanity, if we, because of our limited knowledge and relative ignorance among the learned, fall short of your discipline or transgress your laws, then, we pray, may Agni, lord self-refulgent, all leading light, sustainer of the world, omniscient lord of Soma, peace of life and pleasure of love and devotion, make up that mortal deficiency, the lord that blesses the heart of the lovers of Brahma within and fulfils their love. (The mantra emphasises the divine acceptance of sincere love and devotion over mortal limitations and human trespasses.)

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    Translation

    O divine forces, being ignorant of Nature's laws, if we show negligence in the works assigned to us, may the all-wise fire divine, compensate it fully on his own accord by providing well-timed Seasons,. through which he; regulateds the functions of thé cosmic forces. (Rg. X. 24, Var.)

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    Translation

    preceptor, you ate the observer of vows and discipline, you are meritorious amongs men and you are praiseworthy in the Yajnas.

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    Translation

    Oh! learned people, whatever rules and regulations of yours, we, the ignorant people, have broken, may God or the scholar make good the deficiency of all that. He, who, knowing the All-moving God, is present among the Brahmans.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।२।४ और चौथा पाद कुछ भेद से आ चुका है-अ० १८।३।५५ ॥ २−(यत्) यदि (वः) युष्माकम् (वयम्) (प्रमिनाम) मीञ् हिंसायाम्-लोट्। मीनातेर्निगमे। पा० ७।३।८१। इति ह्रस्वः। प्रकर्षेण हिनसाम विनाशयाम (व्रतानि) कर्माणि (विदुषाम्) जानताम् (देवाः) हे विद्वांसः (अविदुष्टरासः) अत्यर्थम् अविद्वांसः (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (तत्) (विश्वात्) अत सातत्यगमने बन्धने च-क्विप्। सर्वप्रबन्धकः (आ) समन्तात् (पृणातु) पूरयतु (विद्वान्) ज्ञानवान् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (यः) परमेश्वरः (ब्राह्मणान्) ब्रह्मज्ञानिनः पुरुषान् (आविवेश) प्रविष्टवान् ॥

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