अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
आ दे॒वाना॒मपि॒ पन्था॑मगन्म॒ यच्छ॒क्नवा॑म॒ तद॑नु॒प्रवो॑ढुम्। अ॒ग्निर्वि॒द्वान्त्स य॑जा॒त्स इद्धोता॒ सोऽध्व॒रान्त्स ऋ॒तून्क॑ल्पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठआ। दे॒वाना॑म्। अपि॑। पन्था॑म्। अ॒ग॒न्म॒। यत्। श॒क्नवा॑म। तत्। अ॒नु॒ऽप्रवो॑ढुम्। अ॒ग्निः। वि॒द्वान्। सः। य॒जा॒त्। सः। इत्। होता॑। सः। अ॒ध्व॒रान्। सः। ऋ॒तून्। क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥५९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्। अग्निर्विद्वान्त्स यजात्स इद्धोता सोऽध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति ॥
स्वर रहित पद पाठआ। देवानाम्। अपि। पन्थाम्। अगन्म। यत्। शक्नवाम। तत्। अनुऽप्रवोढुम्। अग्निः। विद्वान्। सः। यजात्। सः। इत्। होता। सः। अध्वरान्। सः। ऋतून्। कल्पयाति ॥५९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
उत्तम मार्ग पर चलने का उपदेश।
पदार्थ
(देवानाम्) विद्वानों के (अपि) ही (पन्थाम्) मार्ग को (आ) सब ओर से (अगन्म) हम प्राप्त हुए हैं (तत्) उस [श्रेष्ठ कर्म] को (अनुप्रवोढुम्) लगातार ले चलने के लिये (यत्) जो कुछ (शक्नवाम) समर्थ होवें। (सः) वह (विद्वान्) विद्वान् (अग्निः) अग्नि [ज्ञानी परमात्मा] (यजात्) [बल] देवे, (सः इत्) वह ही (होता) दाता है, (सः) वह (अध्वरान्) हिंसारहित व्यवहारों को, (सः) वही (ऋतून्) ऋतुओं [अनुकूल समयों] को (कल्पयाति) समर्थ करें ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों के परीक्षित वैदिक मार्ग पर चलें। और सबको चलावें ॥३॥
टिप्पणी
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।२।३ ॥ ३−(आ) समन्तात् (देवानाम्) विदुषाम् (अपि) एव (पन्थाम्) पन्थानम् (अगन्म) वयं प्राप्तवन्तः (यत्) कर्म कर्तुम् (शक्नवाम) शक्नुयाम। समर्थो भवेम (तत्) श्रेष्ठं कर्म (अनुप्रवोढुम्) निरन्तरं प्रापयितुम् (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (विद्वान्) (सः) प्रसिद्धः (यजात्) लेटि रूपम्। यजेत् दद्यात् बलम् (सः) परमेश्वरः (इत्) एव (होता) दाता (अध्वरान्) हिंसारहितान् यज्ञान् (सः) (ऋतून्) अनुकूलकालान् (कल्पयाति) समर्थयेत् ॥
भाषार्थ
(देवानाम्) प्राकृतिक देवों के (पन्थाम्) मार्ग को (अपि) भी (आ अगन्म) हम प्राप्त हुएं हैं, उस मार्ग पर भी हम चले हैं, (यद्) यदि (तद्) उस मार्ग को (अनु) निरन्तर (प्रवोढुम्) निभा सकने, उस पर चल सकने में (शक्नवाम) हम समर्थ हो जांय। (विद्वान्) सर्वज्ञ (सः) वह (अग्निः) व्रतों के पथ पर ले चलनेवाला, चलानेवाला परमेश्वर (यजात्) हमारे इन व्रतयज्ञों को सफल करे। क्योंकि (सः इत्) वह ही (होता) शक्तिदाता है, (सः) वह (अध्वरान्) हिंसारहित यज्ञों को (कल्पयाति) सामर्थ्य-सम्पन्न करता है। (सः) वही (ऋतून्) तदनुकूल समयों को सामर्थ्य-सम्पन्न करता है।
टिप्पणी
[मन्त्र २ में “विदुषां देवानाम्” के व्रतों पर चलने का वर्णन हुआ है। मन्त्र ३ में प्राकृतिक देवों के पथ पर चलने का वर्णन है। प्राकृतिक देवों, अर्थात् सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु के व्रत अर्थात् कर्म परमेश्वर के अधीन हैं। इसलिए इन के व्रत अटूट हैं। इन पर निरन्तर चल सकना मनुष्यों के लिये अति कठिन है। इसलिये परमेश्वर से शक्ति की प्रार्थना की गई है।]
विषय
देवों के मार्ग पर
पदार्थ
१. हम देवानाम्-देवों के-ज्ञानियों के पन्थाम-मार्ग को अपि-ही आ आगन्म-सर्वथा प्राप्त हो। यत् शक्नवाम-जिस कर्म को करने में समर्थ हों, तत्-उस कर्म को अनु प्रवोदुम्-अनुक्रम से वहन करने के लिए विद्वानों के मार्ग का ही अनुसरण करें। शक्ति होने पर भी, ज्ञानियों का संपर्क न होने पर, हम ग़लत कर्म कर बैठेंगे। वे अग्नि:-अग्रणी प्रभु विद्वान्-ज्ञानी हैं। सः यजात्-उनका हमारे साथ संगतिकरण हो। प्रभु के मेल से ही तो हमें सामर्थ्य प्रास होगा। सः इत् होता-वे प्रभु ही सब-कुछ देनेवाले हैं। सः वे प्रभु ही अध्वरान्-यज्ञों को कल्पयाति-करते हैं-हमारे माध्यम से प्रभु ही यज्ञों को करते हैं। स: ऋतून-वे प्रभु ही यज्ञों के लिए अवसरों को देते हैं।
भावार्थ
देवों के मार्ग पर चलते हुए हम शक्ति को यज्ञों की पूर्ति में ही लगाएँ। प्रभु के सम्पर्क में स्थित होकर शक्ति प्राप्त करें। प्रभु को ही यज्ञों का करनेवाला जानें। प्रभु ही यज्ञों के लिए अवसरों को प्राप्त कराते हैं।
विषय
विद्वानों की सेवा और अनुसरण करने की आज्ञा।
भावार्थ
हम लोग (देवानाम्) देव, विद्वान् पुरुषों के (पन्थाम् आ अगन्म) मार्ग का अनुसरण करें। और (यत्) जितना भी (अनु प्रवोढुम्) उसका अनुसरण करने में (शक्नवाम) समर्थ हो सकें (तत्) उतना ही अनुसरण करें। (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर ही (विद्वान्) सब कुछ जानता है। (सः यजात्) वह सब कुछ प्रदान करता है (सः इत् होता) वह सबको देने वाला और सबकी भक्ति को स्वीकार करने वाला है। (सः) वह (अध्वरान्) समस्त हिंसा रहित यज्ञों को और (सः) वही (ऋतून् कल्पयाति) ऋतुओं को उत्पन्न करता है। अथवा (सः) वही (अध्वरान्) अहिंसित नित्य आत्माओं को और (ऋतून्) प्राणों को (कल्पयाति) देहधारी रूप में उत्पन्न करता और उनको कार्य करने में समर्थ करता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘से दु होता’ इति सायणाभिमतः ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ गायत्री। २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna
Meaning
Let us take to and follow the path of the Devas, divinities of nature and brilliant sages of humanity as far as we can, possibly, and relentlessly maintain that effort with faith and sincerity. May Agni, lord self- refulgent, give us strength and make thatpossible : He is the sole initiation and high priest of all yajnas of love, faith and non-violence. He ordains the yajnic seasons, and He fulfils all of them.
Translation
May we pursue; the path of enlightened ones and accomplish all that we are capable of; may that wise fire divine become our inspirer; verily, he is the main source of inspiration in all our beneficial acts; may He guide us to accomplish all benevolent acts, performed at proper seasons. (Rg.X.23.Var.)
Translation
O learned persons, when we being ignorant violate the vows and disciplines concerned with you, the learned ones, may self-refulgent God, who is the knower of Soma, the created universe and is present within the reces of the wise ones entirely correct us (for violation).
Translation
Let us also follow the path of the learned people. May he follow it as far as we can. God knows it. He enables us to stick to it. He is the giver of all comforts. He produces all the non-violent sacrifices and seasons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।२।३ ॥ ३−(आ) समन्तात् (देवानाम्) विदुषाम् (अपि) एव (पन्थाम्) पन्थानम् (अगन्म) वयं प्राप्तवन्तः (यत्) कर्म कर्तुम् (शक्नवाम) शक्नुयाम। समर्थो भवेम (तत्) श्रेष्ठं कर्म (अनुप्रवोढुम्) निरन्तरं प्रापयितुम् (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वरः (विद्वान्) (सः) प्रसिद्धः (यजात्) लेटि रूपम्। यजेत् दद्यात् बलम् (सः) परमेश्वरः (इत्) एव (होता) दाता (अध्वरान्) हिंसारहितान् यज्ञान् (सः) (ऋतून्) अनुकूलकालान् (कल्पयाति) समर्थयेत् ॥
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