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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
    सूक्त - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
    57

    ब्रा॑ह्म॒णोऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्योऽभवत्। मध्यं॒ तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्यां शू॒द्रो अ॑जायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒णः। अ॒स्य॒। मुख॑म्। आ॒सी॒त्। बा॒हू इति॑। रा॒ज॒न्यः᳡। अ॒भ॒व॒त्। मध्य॑म्। तत्। अ॒स्य॒। यत्। वैश्यः॑। प॒त्ऽभ्याम्। शू॒द्रः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्योऽभवत्। मध्यं तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणः। अस्य। मुखम्। आसीत्। बाहू इति। राजन्यः। अभवत्। मध्यम्। तत्। अस्य। यत्। वैश्यः। पत्ऽभ्याम्। शूद्रः। अजायत ॥६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (1)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्राह्मणः) ब्राह्मण [वेद और ईश्वर का जाननेवाला मनुष्य] (अस्य) इस [पुरुष] का (मुखम्) मुख (आसीत्) था, (राजन्यः) क्षत्रिय [शासक मनुष्य] (बाहू) [उसकी] दोनों भुजाएँ (अभवत्) हुआ। (अस्य) इसका (यत्) जो (मध्यम्) मध्य [घुटनों का भाग] है, (तत्) वह (वैश्यः) वैश्य [मनुष्यों का हितकारी] और (पद्भ्याम्) [उसके] दोनों पैरों से (शूद्राः) शूद्र [शोचनीय मूर्ख] (अजायत) उत्पन्न हुआ ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य के शरीर में अङ्ग के समान परमात्मा की सृष्टि में ब्रह्मचर्य आदि शम दम व्रत से वेद और ईश्वर का जाननेवाला मनुष्य ब्राह्मण मुख के समान मुख्य सर्वहितकारी, वेदवेत्ता अधिक बल पराक्रमवाला क्षत्रिय भुजाओं के समान रक्षक, वेदज्ञ कृषि व्यापार आदि से धनी होकर मनुष्यों का हित करनेवाला पोषक वैश्य शरीर के मध्यभाग घुटनों के तुल्य, और मूर्ख विद्याहीन चल-फिर कर सेवा करनेवाला शूद्र मनुष्य पैरों के समान उपयोगी है ॥६॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१२, यजुर्वेद−३१।११ ॥ ६−(ब्राह्मणः) वेदेश्वरवित् (अस्य) पुरुषस्य (मुखम्) मुखमिवोत्तमः (आसीत्) अभवत् (बाहू) भुजाविव बलवीर्ययुक्तः (राजन्यः) क्षत्रियः शासकः (अभवत्) (मध्यम्) मध्याङ्गम्। ऊर्वोरुपलक्षणमेतत् (तत्) मध्यम् (अस्य) पुरुषस्य (यत्) मध्यम् (वैश्यः) विशो मनुष्यनाम-निघ० २।३। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। विश−यञ्। विड्भ्यो मनुष्येभ्यो हितः। वेदाध्ययनकृषिवाणिज्यादिवृत्तिकः (पद्भ्याम्) पद्भ्यां गमनागमनव्यवहाराभ्यां सेवाशीलः (शूद्रः) शुचेर्दश्च। उ–० २।१९। शुच शोके−रक्। दश्चान्तादेशो घातोर्दीर्घश्च। शोचनीयो विद्याहीनो मूर्खो जनः (अजायत) उत्पन्नोऽभवत् ॥

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    Brahmana, (man of knowledge, divine vision and the Vedic Word in the human community) is the mouth of the Samrat Purusha. Kshatriya, man of justice and polity, is the arms of defence and organisation. The middle part is the Vaishya who produces and provides food and energy. And the ancillary services that provide sustenance and support with auxiliary labour are the feet, the Shudra that bears the burden of society.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।१२, यजुर्वेद−३१।११ ॥ ६−(ब्राह्मणः) वेदेश्वरवित् (अस्य) पुरुषस्य (मुखम्) मुखमिवोत्तमः (आसीत्) अभवत् (बाहू) भुजाविव बलवीर्ययुक्तः (राजन्यः) क्षत्रियः शासकः (अभवत्) (मध्यम्) मध्याङ्गम्। ऊर्वोरुपलक्षणमेतत् (तत्) मध्यम् (अस्य) पुरुषस्य (यत्) मध्यम् (वैश्यः) विशो मनुष्यनाम-निघ० २।३। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। विश−यञ्। विड्भ्यो मनुष्येभ्यो हितः। वेदाध्ययनकृषिवाणिज्यादिवृत्तिकः (पद्भ्याम्) पद्भ्यां गमनागमनव्यवहाराभ्यां सेवाशीलः (शूद्रः) शुचेर्दश्च। उ–० २।१९। शुच शोके−रक्। दश्चान्तादेशो घातोर्दीर्घश्च। शोचनीयो विद्याहीनो मूर्खो जनः (अजायत) उत्पन्नोऽभवत् ॥

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