अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
सूक्त - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
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नाभ्या॑ आसीद॒न्तरि॑क्षं शी॒र्ष्णो द्यौः सम॑वर्तत। प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रा॒त्तथा॑ लो॒काँ अ॑कल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठनाभ्याः॑। आ॒सी॒त्। अ॒न्तरि॑क्षम्। शी॒र्ष्णः। द्यौः। सम्। अ॒व॒र्त॒त॒। प॒त्ऽभ्याम्। भूमिः॑। दिशः॑। श्रोत्रा॑त्। तथा॑। लो॒कान्। अ॒क॒ल्प॒य॒न् ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठनाभ्याः। आसीत्। अन्तरिक्षम्। शीर्ष्णः। द्यौः। सम्। अवर्तत। पत्ऽभ्याम्। भूमिः। दिशः। श्रोत्रात्। तथा। लोकान्। अकल्पयन् ॥६.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (1)
विषय
सृष्टिविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[इस पुरुष की] (नाभ्याः) नाभि से (अन्तरिक्षम्) लोकों के बीच का आकाश (आसीत्) हुआ, (शीर्ष्णः) शिर से (द्यौः) प्रकाशयुक्त लोक, और (पद्भ्याम्) दोनों पैरों से (भूमिः) भूमि (सम्) सम्यक् (अवर्तत) वर्तमान हुई, (श्रोत्रात्) कान से (दिशः) दिशाओं की (तथा) इसी प्रकार (लोकान्) सब लोकों की (अकल्पयन्) उन [विद्वानों] ने कल्पना की ॥८॥
भावार्थ
जैसे नाभि में शरीर की धारण शक्ति है, वैसे ही आकाश में सब लोकों का धारण सामर्थ्य है, जैसे शिर शरीर में ज्ञान और नाड़ियों का केन्द्र है, वैसे ही सूर्य आदि प्रकाशमान लोक अन्य लोकों के प्रकाशक और आकर्षक हैं, जैसे पैर शरीर के ठहरने के आधार हैं, वैसे ही भूमिलोक सब प्राणियों के ठहरने का आश्रय है, जैसे शब्द आकाश में सब ओर व्यापकर कानों में आता है, वैसे ही सब पूर्व आदि दिशाएँ आकाश में सर्वत्र व्यापक हैं। इसी प्रकार परमात्मा ने सब लोकों को रचकर परस्पर सम्बन्ध में रक्खा है ॥८॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१९।१४। और यजुर्वेद ३१।१३ ॥ ८−(नाभ्याः) नाभिरूपादवकाशमयान् मध्यवर्तिसामर्थ्यात् (आसीत्) (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्त्याकाशम् (शीर्ष्णः) ज्ञानस्य नाडीनां च केन्द्रं शिरइवोत्तमसामर्थ्यात् (द्यौः) प्रकाशयुक्तलोकः (सम्) सम्यक् (अवर्तत) अभवत् (पद्भ्याम्) पादाविव धारणसामर्थ्यात् (भूमिः) आश्रयभूता भूम्यादिलोकाः (श्रोत्रात्) श्रोत्रवदवकाशमयात् सामर्थ्यात् (तथा) तेनैव प्रकारेण (लोकान्) अन्यान् दृश्यमानान् लोकान् (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः। निश्चितवन्तः ॥
इंग्लिश (1)
Subject
Purusha, the Cosmic Seed
Meaning
From the navel region is born the sky, the high heaven is from the head, the earth comes from the feet, and directions of space from the ear. Thus did the sages visualise the worlds of existence as Purusha, and the Purusha as the universe, a living, breathing, organismic, self-sustaining, self-organising sovereign system.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१९।१४। और यजुर्वेद ३१।१३ ॥ ८−(नाभ्याः) नाभिरूपादवकाशमयान् मध्यवर्तिसामर्थ्यात् (आसीत्) (अन्तरिक्षम्) मध्यवर्त्याकाशम् (शीर्ष्णः) ज्ञानस्य नाडीनां च केन्द्रं शिरइवोत्तमसामर्थ्यात् (द्यौः) प्रकाशयुक्तलोकः (सम्) सम्यक् (अवर्तत) अभवत् (पद्भ्याम्) पादाविव धारणसामर्थ्यात् (भूमिः) आश्रयभूता भूम्यादिलोकाः (श्रोत्रात्) श्रोत्रवदवकाशमयात् सामर्थ्यात् (तथा) तेनैव प्रकारेण (लोकान्) अन्यान् दृश्यमानान् लोकान् (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः। निश्चितवन्तः ॥
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