अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - जातवेदाः, सूर्यः, वज्रः
छन्दः - अतिजगती
सूक्तम् - असुरक्षयणम् सूक्त
103
अयो॑जाला॒ असु॑रा मा॒यिनो॑ऽय॒स्मयैः॒ पाशै॑र॒ङ्किनो॒ ये चर॑न्ति। तांस्ते॑ रन्धयामि॒ हर॑सा जातवेदः स॒हस्रऋ॑ष्टिः स॒पत्ना॑न्प्रमृ॒णन्पा॑हि॒ वज्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअयः॑ऽजालाः। असु॑राः। मा॒यिनः॑। अ॒य॒स्मयैः॑। पाशैः॑। अ॒ङ्किनः॑। ये। चर॑न्ति। तान्। ते॒। र॒न्ध॒या॒मि॒। हर॑सा। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। स॒हस्र॑ऽऋष्टिः। स॒ऽपत्ना॑न्। प्र॒ऽमृ॒णन्। पा॒हि॒। वज्रः॑ ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अयोजाला असुरा मायिनोऽयस्मयैः पाशैरङ्किनो ये चरन्ति। तांस्ते रन्धयामि हरसा जातवेदः सहस्रऋष्टिः सपत्नान्प्रमृणन्पाहि वज्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअयःऽजालाः। असुराः। मायिनः। अयस्मयैः। पाशैः। अङ्किनः। ये। चरन्ति। तान्। ते। रन्धयामि। हरसा। जातऽवेदः। सहस्रऽऋष्टिः। सऽपत्नान्। प्रऽमृणन्। पाहि। वज्रः ॥६६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पराक्रम करने का उपदेश।
पदार्थ
(अयोजालाः) लोहे के जालवाले, (असुराः) असुर [विद्वानों के विरोधी], (मायिनः) छली, (अयस्मयैः) लोहे के बने हुए (पाशैः) फन्दों से (अङ्किनः) आँकड़ा लगानेवाले (ये) जो [शत्रु] (चरन्ति) घूमते-फिरते हैं। (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! [शूर] (तान्) उनको (ते) तेरे (हरसा) बल से (रन्धयामि) मैं वश में करता हूँ, (सहस्रऋष्टिः) सहस्रों दो धारा तरिवारवाला, (वज्रः) वज्रवान् (सपत्नान्) विरोधियों को (प्रमृणन्) मार डालता हुआ तू [हमें] (पाहि) पाल ॥१॥
भावार्थ
बड़े लोग शूर पराक्रमी पुरुषों का सदा सहाय और सत्कार करते रहें, जिससे वे छली कपटी दुष्टों को मारकर प्रजा का पालन करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अयोजालाः) लोहमयवागुरावन्तः (असुराः) सुराणां विदुषां विरोधिनः (मायिनः) छलिनः (अयस्मयैः) लोहनिर्मितैः (पाशैः) बन्धनैः (अङ्किनः) अङ्कुशवन्तः (ये) दुष्टाः (चरन्ति) विचरन्ति (तान्) दुष्टान् (ते) तव (रन्धयामि) रध्यतिर्वशगमने-निरु० १०।४०। वशयामि। स्वाधीनान् करोमि (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे बहुधन, (सहस्रऋष्टिः) ऋष्टिः उभयतो धारायुक्तः खड्गः। सहस्रैर्ऋष्टिभिर्युक्तः (सपत्नान्) शत्रून् (प्रमृणन्) प्रकर्षेण मारयन् (पाहि) पालय (वज्रः) वज्र-अर्शआद्यच्। वज्रवान् ॥
भाषार्थ
(अयोजालाः) सुवर्णरूपी जालोंवाले, (मायिनः) छल-कपट से युक्त, (अयस्मयैः) सुवर्णप्रचुर (पाशैः) फंदों द्वारा (अङ्किनः) अङ्कित अर्थात् चिह्नित (ये) जो (असुराः) आसुर विचार (चरन्ति) तेरे मन में विचरते हैं, (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ! (ते) तेरे (तान्) उन आसुर विचारों को (हरसा) निज हरण करने के सामर्थ्य द्वारा (रन्धयामि) मैं परमेश्वर तेरे वश में करता हूँ। तू (सहस्रभृषिः) हजार धाराओं वाला (वज्रः) वज्र होकर (सपत्नान्) आसुर विचाररूपी शत्रुओं का (प्रमृणन्) हनन करता हुआ (पाहि) आत्म-रक्षा कर।
टिप्पणी
[अयः=अयस्=हिरण्यनाम (निघं० १.२)। योगाभ्यासी को धनसम्पत् प्राप्ति की लालसा योगविरोधिनी है। धन-सम्पत् प्राप्ति के विचार आसुर विचार हैं। योग में सफलता के लिये पूर्ण वैराग्य की आवश्यकता होती है। धन-सम्पत् को जाल और पाश कहा है। धन के जाल में बन्धा, और धन के फंदों में फंसा “मन” योग में उन्नति नहीं कर सकता। परमेश्वर की सहायता तो सच्चे योगाभ्यासी को ही प्राप्त होती है, परन्तु तभी जब कि अभ्यासी स्वयं भी उग्ररूप होकर, वज्ररूप होकर, आसुर विचारों का हनन करता है।]
विषय
दुष्टों का दण्डन व प्रजा-रक्षण
पदार्थ
१. (अयोजाला:) = लोहे के जालवाले (असुरा:) = आसुरवृत्तिवाले (मायिनः) = छली-कपटी (अयस्मयैः पाशै:) = लोहे के बने पाशों के साथ (अङ्किन:) = कुटिल गति करते हुए (ये) = जो (चरन्ति) = राष्ट्र में औरों को पीड़ित करते हुए घूमते हैं, हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! (तान्) = उनको (ते) = आपके (हरसा) = तेज से (रन्धयामि) = वशीभूत करता हूँ। राजा, प्रभु का स्मरण करता हुआ-प्रभु से तेज प्राप्त करके, प्रजापीड़क छली, आसुरवृत्ति के लोगों को दण्ड द्वारा वशीभूत करे। २. प्रजा राजा से यही निवेदन करती है कि (सहस्त्रभृष्टिः) = हज़ारों भालोंवाला (वन:) = [व्रजं अस्य अस्ति इति] वग्रहस्त तू (सपत्नान्) = शत्रुओं को (प्रमृणत्) = कुचलता हुआ (पाहि) = प्रजा का रक्षण कर।
भावार्थ
राजा, दुष्टों को दण्डित करता हुआ, प्रजा का रक्षण करे। सुरक्षित प्रजा न्याय्य मार्ग पर आगे और आगे बढ़े।
विषय
दुष्टदमन और प्रजा पालन।
भावार्थ
(अयोजालाः) लोहे के जाल धारण करने वाले (मायिनः) माया, विद्या के जानने वाले (असुराः) असुर शक्तिशाली लोग (अङ्किनः) अङ्कों से युक्त होकर (अयस्मयैः) लोहे के बने (पाशैः) पाशों सहित (चरन्ति) विचरते हैं। हे (जातवेदः) जातवेदः, अग्ने ! राजन् ! (ते) तेरे (हरसा) तेजोमय बल से (तान् रन्धयामि) उन को वश करूं, उनको भून डालूं। और तू (सहस्र-ऋष्टिः) हज़ारों भालों वाले या ‘ऋष्टि’ नामक घातक शस्त्रों से सुसज्जित होकर स्वयं (वज्रः) शत्रुओं के वर्जन करने में समर्थ, विद्युत् के समान बलशाली होकर (सपत्नात्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) विध्वंस करता हुआ (पाहि) हमारी रक्षा कर।
टिप्पणी
(च०) ‘सहस्रसृष्टिः’, ह्रुष्टिः, हृष्टि, दृष्टि, रिष्टि, ह्रष्टिः, इति नाना पाठाः। ‘वाहि’ इति बहुत्र।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। जातवेदः सूर्यः वज्रेश्च देवताः। अतिजगती एकर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Down with Obstructions
Meaning
Whoever the obstructionists with nets of steel, evil-minded sourcerers who prowl around with arrestive snares, all these I stop, O Jataveda, with your power and passion. O power of a thousand spears, wielder of the thunderbolt, protect and promote us, crushing the adversaries to dust.
Subject
To Agni
Translation
Those life destroyers, tricky fellows who move about with iron-nots and; with hooks and bonds made of iron them subdue with your flame. O cognizant of all beings. May you go about, crushing our rivals like a thousand- pointed bolt.;
Translation
I, the man having the knowledge of fire through the powerful fiery weapon keep under my control all of those wicked who having nets of iron, possessing the tricks and followed by large number of others room hither and thither. The weapon made of fire like lightning with thousand points quelling the enemies let save us.
Translation
Whoever the powerful, the deceitful enemies, with iron nets and bearing numbers of these regiments, move about with iron snares, crush them all. Oh! fiery king, with thy force of destruction. Let thou, who possessest thousands of arms and is like a thunder-bolt, protect us by thoroughly killing thy enemies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अयोजालाः) लोहमयवागुरावन्तः (असुराः) सुराणां विदुषां विरोधिनः (मायिनः) छलिनः (अयस्मयैः) लोहनिर्मितैः (पाशैः) बन्धनैः (अङ्किनः) अङ्कुशवन्तः (ये) दुष्टाः (चरन्ति) विचरन्ति (तान्) दुष्टान् (ते) तव (रन्धयामि) रध्यतिर्वशगमने-निरु० १०।४०। वशयामि। स्वाधीनान् करोमि (हरसा) बलेन (जातवेदः) हे बहुधन, (सहस्रऋष्टिः) ऋष्टिः उभयतो धारायुक्तः खड्गः। सहस्रैर्ऋष्टिभिर्युक्तः (सपत्नान्) शत्रून् (प्रमृणन्) प्रकर्षेण मारयन् (पाहि) पालय (वज्रः) वज्र-अर्शआद्यच्। वज्रवान् ॥
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