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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
    62

    अप॑पा॒पं प॑रिक्ष॒वं पुण्यं॑ भक्षी॒महि॒ क्षव॑म्। शि॒वा ते॑ पाप॒ नासि॑कां॒ पुण्य॑गश्चा॒भि मे॑हताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प॒ऽपा॒पम्। प॒रि॒ऽक्ष॒वम्। पुण्य॑म्। भ॒क्षी॒महि॑। क्षव॑म्। शि॒वा। ते॒। पा॒प॒। नासि॑काम्। पुण्य॑ऽगः। च॒। अ॒भि। मे॒ह॒ता॒म् ॥८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपपापं परिक्षवं पुण्यं भक्षीमहि क्षवम्। शिवा ते पाप नासिकां पुण्यगश्चाभि मेहताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽपापम्। परिऽक्षवम्। पुण्यम्। भक्षीमहि। क्षवम्। शिवा। ते। पाप। नासिकाम्। पुण्यऽगः। च। अभि। मेहताम् ॥८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अपपापम्) बहुत दोषयुक्त (परिक्षवम्) नाक के फुरफुराहट को [हे परमात्मन् ! दूर कर दे-म० ४], (पुण्यम्) शुद्ध [निर्दोष] (क्षवम्) छींक को (भक्षीमहि) हम भोगें। (पाप) हे पापी ! [रोगी वा दोषी] (ते) तेरी (नासिकाम्) नासिका [आदि इन्द्रियों] को (शिवा) कल्याणकारक [क्रिया] (च) और (पुण्यगः) पवित्रता पहुँचानेवाला [व्यवहार] (अभि) सब ओर से (मेहताम्) सींचे [शोधे] ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य अशुद्धिकारक, रोगजन्य छींक आदि दोषों को हटाकर उत्तम-उत्तम व्यवहारों और चेष्टाओं से इन्द्रियों को प्रबल करके सुखी होवें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(अपपापम्) बहुदोषयुक्तम् (परिक्षवम्) म० ४। नासातो वायुनिसरणजन्यशब्दम्-सवितः परासुव इति पूर्वेणान्वयः (पुण्यम्) पवित्रम्। श्रेयस्करम्। निर्दोषम् (भक्षीमहि) भज सेवायाम्-आशीर्लिङि। सेविषीमहि लप्सीमहि (क्षवम्) नासिकाशब्दम् (शिवा) शुभा क्रिया (ते) तव (पाप) हे पापिन् रोगिन् दोषिन् वा (नासिकाम्) (पुण्यगः) शुद्धिप्रापको व्यवहारः (च) (अभि) सर्वतः (मेहताम्) सिञ्चतु। शोधयतु ॥

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    विषय

    पुण्य क्षव भक्षण

    पदार्थ

    १. (पापम्) = पाप से कमाये गये (परिक्षवम्) = वर्जनीय अन्न को [क्षु अन्ननाम नि०] हे प्रभो! (अप) = हमसे दूर कीजिए। २. हे (पाप) = पाप की ओर झुकाववाले पुरुष ! (ते नासिकाम्) = तेरी नासिका को (शिवा) = कल्याणकारिणी प्राणायाम की क्रिया (अभिमेहताम्) = सब ओर से सिक्त करे। यह प्राणायाम की क्रिया तेरी पापवृत्ति को दूर करनेवाली हो। (च) = और (पुण्य-ग:) = पुण्य की ओर ले जानेवाला वह प्रभु तुझे सब ओर से सिक्त करे। प्रभु की भावना से सिक्त हुआ-हुआ तू पवित्र जीवनवाला बन जाए।

    भावार्थ

    'हम पवित्र अन्न का सेवन करें, प्राणसाधना को अपनाएँ तथा प्रभु का स्मरण करें, यही मार्ग है जिससे हमारा जीवन निष्पाप बन सकेगा।

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    भाषार्थ

    (पापम्) पापी (परिक्षवम्) छींकों और खांसी के रोग को (अप) हम दूर करते हैं, और (पुण्यम्) पुण्य (क्षवम्) छींकों और खांसी का (भक्षीमहि) हम सेवन करते हैं। (पाप) हे पापी जन! (ते) तेरी (नासिकाम्) नाक को (शिवा) शिवा नामक ओषधियाँ, (च) और (पुण्यगः) पुण्यमार्गगामी वैद्य (अभि मेहताम्) प्रतिश्याय-स्रावण द्वारा रोगरहित करें।

    टिप्पणी

    [अपपापम्=परिक्षव रोग प्रदेशव्यापी (Endemic) होता है— परि (परितः व्यापी)+क्षव। सम्भवतः यह इन्ल्फूएन्जा रोग हो। रोग हैं पापों के परिणाम। इसलिए “परिक्षव” को पाप कहा है। परन्तु “क्षव” अर्थात् यदा कदाचित् छींकों का आना और खांसी का होना पाप नहीं। अपितु यह पुण्यकर्मों का परिणाम है। ऐसी छींकों द्वारा नासिका की खुजलाहट कम हो जाती है, और खांसी द्वारा बलगम निकल जाती है। परिक्षव और क्षव में अन्तर है। परिक्षव दुःखदायक रोग है, जब कि क्षव रोग नहीं, क्षव स्वास्थ्यकारी है। नासिका में खुजलाहट, और गले और छाती में बलगम का कुछ काल के लिए रुक जाना “क्षव” है। भक्षीमहि=भज् सेवायाम्। शिवा= आंवला, हर्र, हल्दी। इनका अलग-अलग या सम्मिलित प्रयोग परिक्षव रोग का शामक प्रतीत होता है। पुण्यगः= वैद्य, जो कि परोपकाररूपी पुण्यकर्मों को करता हुआ चिकित्सा करता है, लोभ-भावना से नहीं। अभि मेहताम्= मिह सेचने। जमे जुकाम को द्रव बना कर प्रवाहित कर उसे स्वस्थ करना।]

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    विषय

    नक्षत्रों का वर्णन।

    भावार्थ

    (पापम्) पाप अर्थात् दूर करने योग्य, दोष से युक्त (परिक्षवम्) वर्जनीय अन्न को (अप) हम दूर करें। और (पुण्यम्) पुण्य पवित्र (क्षवम्*) अन्नका हम (भक्षीमहि) भोगकरें। हे (पाप) पाप ! पापी पुरुष (ते) ते (नासिकाम्) नासिका (अभि) पर (शिवा) कल्याणकारी जनता या स्त्री और (पुण्यगः च) पुण्य पवित्र मार्ग से जाने वाला पुरुष अर्थात् उत्तम स्त्री पुरुष दोनों (मेहताम्) मूत्र करें अर्थात् तेरा अपमान करें तुझे मान आदर न दें।

    टिप्पणी

    क्षु—इत्यन्ननाम [ निघं० अ० ७। ९ ] ‘अनुहवं परिहवं परीवादंप रिक्षपम्’ दुस्वप्नं दुरुदितं तद्विषद्भ्यो दिशास्यहम्। अनुहूतं परिहूतं शकुनैर्यदशाकुनं मृगस्यसृतं अक्ष्ण्यातत् इत्या पा०। गृ० सू०। ‘परिच्छव’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Nakshatras, Heavenly Bodies

    Meaning

    Let us avoid sin and evil and reject polluted food, let us eat only holy food. O sinner, let the moon of the path of virtue wash away your evil smelling nose and turn it to good.

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    Translation

    Good food free from sin and free from abhorrence, may we enjoy. And O sin, let him who walks on holy paths, urinate on your nose.

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    Translation

    Let us cast away the evil act and the food full of abomination. Let us eat the food which is free from sin. Let the benevolent act and pious dealing water down or purify the nose of sin and sinner.

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    Translation

    Keep away the food, unfit for consumption. Let us take the wholesome food. O evil-doer, let the peace-loving and righteous people spurn you in disgust (literally-make water on very nose).

    Footnote

    क्षु–इत्यन्ननाम निघं० 7.9. Pari Kshava—adulterated or impure food and not sneeze, as interpreted by Sayana and Griffith. It is a mistake to interpret Vedic words in the light of ordinary Sanskrit words

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(अपपापम्) बहुदोषयुक्तम् (परिक्षवम्) म० ४। नासातो वायुनिसरणजन्यशब्दम्-सवितः परासुव इति पूर्वेणान्वयः (पुण्यम्) पवित्रम्। श्रेयस्करम्। निर्दोषम् (भक्षीमहि) भज सेवायाम्-आशीर्लिङि। सेविषीमहि लप्सीमहि (क्षवम्) नासिकाशब्दम् (शिवा) शुभा क्रिया (ते) तव (पाप) हे पापिन् रोगिन् दोषिन् वा (नासिकाम्) (पुण्यगः) शुद्धिप्रापको व्यवहारः (च) (अभि) सर्वतः (मेहताम्) सिञ्चतु। शोधयतु ॥

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