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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - सूर्यः छन्दः - सप्तापदा धृतिः सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
    72

    तासु॑ त्वा॒न्तर्ज॒रस्या द॒धामि॒ प्र यक्ष्म॑ एतु॒ निरृ॑तिः परा॒चैः। ए॒वाहं त्वां क्षे॑त्रि॒यान्निरृ॑त्या जामिशं॒साद्द्रु॒हो मु॑ञ्चामि॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॑त्। अ॑ना॒गसं॒ ब्रह्म॑णा त्वा कृणोमि शि॒वे ते॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तासु॑ । त्वा॒ । अ॒न्त:। ज॒रसि॑ । आ । द॒धा॒मि॒ । प्र । यक्ष्म॑: । ए॒तु॒ । नि:ऋ॑ति:। प॒रा॒चै: । ए॒व । अ॒हम् । त्वाम् । क्षे॒त्रि॒यात् । नि:ऋ॑त्या: । जा॒मि॒ऽशं॒सात् । द्रु॒ह: । मु॒ञ्चा॒मि॒ । वरु॑णस्य । पाशा॑त् । अ॒ना॒गस॑म् । ब्रह्म॑णा । त्वा॒ । कृ॒णो॒मि॒ । शि॒वे इति॑ । ते॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । स्ता॒म् ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तासु त्वान्तर्जरस्या दधामि प्र यक्ष्म एतु निरृतिः पराचैः। एवाहं त्वां क्षेत्रियान्निरृत्या जामिशंसाद्द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात्। अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तासु । त्वा । अन्त:। जरसि । आ । दधामि । प्र । यक्ष्म: । एतु । नि:ऋति:। पराचै: । एव । अहम् । त्वाम् । क्षेत्रियात् । नि:ऋत्या: । जामिऽशंसात् । द्रुह: । मुञ्चामि । वरुणस्य । पाशात् । अनागसम् । ब्रह्मणा । त्वा । कृणोमि । शिवे इति । ते । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । स्ताम् ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मुक्ति की प्राप्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (तासु) उन [दिशाओं] में (त्वा) तुझको (जरसि) स्तुति के (अन्तः) मध्य में (आ) भले प्रकार से (दधामि) धारण करता हूँ, (यक्ष्मः) राज रोग [क्षय आदि] और (निर्ऋतिः) अलक्ष्मी [महामारी दरिद्रता आदि] भी (पराचैः) ओंधे मुँह होकर (प्र+एतु) चली जावे। (एव) ऐसे ही (अहम्) मैं (त्वाम्) तुझको (क्षेत्रियात्) शारीरिक वा वंशागत रोग से.... [मन्त्र २] ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य को परमेश्वर ने सब प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया है, इसलिये पुरुष पुरुषार्थ करके सब विघ्नों को हटावे और कीर्त्तिमान् होकर सदा आनन्द भोगे और अमर होवे ॥५॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–हमारे विचार में यहाँ भी (जरस्) पद का अर्थ निघण्टु और निरुक्त आदि के अनुसार स्तुति वा कीर्त्ति है [बुढ़ापे का अर्थ बेमेल है]। अथर्ववेद १।३०।२। और टिप्पणी देखिये और यजु० ३६।२४। भी विचारिये। तच्चक्षु॑र्देवहि॑तं पु॒रस्ता॑च्छु॒क्रमुच्च॑रत्। पश्ये॑म श॒रदः॑ शतं जीवेम श॒रदः॑ शत॒ शृणु॑याम श॒रदः श॒तं प्रब्रवाम श॒रदः॑ श॒तमदी॑नाः स्याम श॒रदः॑ श॒तं भूय॑श्च श॒रदः श॒तात् ॥१॥ (तत्) परब्रह्म (चक्षुः) सबका द्रष्टा, (देवहितम्) विद्वान् देवताओं का हितकारी, (शुक्रम्) वीर्यवान्, (पुरस्तात्) पहिले काल से वा सन्मुख होकर (उच्चरत्) ऊँचा चढ़ रहा है। [ऐसा ध्यान करते हुए] (शतम् शरदः) सौ शरद् ऋतु वा वर्ष तक (पश्येम) हम देखते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (जीवेम) हम जीते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (शृणुयाम) हम सुनते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (प्रब्रवाम) हम बोलते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (अदीनाः) दीनतारहित (स्याम) हम रहें, (च) और (शतात् शरदः) सौ वर्ष से (भूयः) अधिक। अर्थात् हम सर्वथा पुष्टाङ्ग रहें और कभी अङ्गहीन और धनहीन न हों ॥ ५–तासु। पूर्वोक्तासु दिक्षु। त्वा। त्वां मनुष्यम्। आत्मानम्। अन्तर्। मध्ये। जरसि। १।३०।२। जॄ स्तुतौ, यद्वा, गॄ शब्दे–असुन्। जरिता स्तोतृनाम–निघ० ३।१६। स्तुतौ। यशसि। आ। सम्यक्। यथाविधि। दधामि। अहं मनुष्यः स्वपौरुषेण धारयाम्यात्मानमित्यर्थः। यक्ष्मः। अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति यक्ष पूजायाम्–मन्। पूज्यते वैद्यो रोगे। राजरोगः। क्षयः। प्र+एतु। प्रैतु। प्रगच्छतु। निर्गच्छतु। निर्ऋतिः। म० १। अलक्ष्मीः। दरिद्रतादिविपत्तिः। पराचैः। नौ दीर्घश्च। उ० ५।१३। इति बाहुलकात्, पर+चिञ् चयने–डैसि। अकारस्य दीर्घश्च। पराङ्मुखी ॥

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    विषय

    यक्ष्म व निर्गति का निराकरण

    पदार्थ

    १. (तासु) = ऊपर के मन्त्र में वर्णित वायुप्रवाह व सूर्य प्रकाशवाली दिशाओं के (अन्तः) = अन्दर हे रुग्ण-पुरुष! (त्वाम्) = तुझे (जरसि आदधामि) = जरा में स्थापित करता हूँ, अर्थात् सदा इन दिशाओं में जीवन यापन का अवसर देते हुए मैं तुझे जरापर्यन्त नीरोग रखते हुए सौ वर्ष के आयुष्यवाला करता हूँ। २. ऐसे स्थान में रहने से (यक्ष्म:) = तेरा राजयक्ष्मादि क्षेत्रिय रोग (प्रैतु) = तुझे छोड़कर चला जाए। (निर्ऋति:) = तेरे रोग की निदानभूत पापदेवता (पराचैः) =  पराङ्मुखी होकर दूर चली जाए। ३. (एव) = इसप्रकार खुले स्थान में निवास के द्वारा (अहम्) = मैं (त्वाम्) = तुझे क्षेत्रिय आदि रोगों से (मुञ्चामि) = मुक्त करता हूँ। [शेष पूर्ववत्] |

    भावार्थ

    खुले स्थान में निवास हमें रोगों से बचाए और दीर्घ जीवन प्राप्त कराए।

     

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    भाषार्थ

    (तासु अन्तः) उन द्योतमान दिशाओं के मध्य, ( जरसि ) जरावस्था में (त्वा) तुझे (आ दधामि) मैं स्थापित करता हूँ। (निर्ऋतिः यक्ष्मः) कृच्छ्रापत्तिरूप यक्ष्म (पराचैः) परे के अर्थात् दूर के मार्गों द्वारा ( प्र एतु ) प्रगत हो जाय। (एवाहम्) इस प्रकार मैं प्रयोक्ता ( त्वा) तुझे (क्षेत्रियात्...) क्षेत्रिय आदि से; पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में कष्टदायक यक्ष्मरोग का वर्णन हुआ है। यक्ष्मरोगी को, जबकि वह विशेषतया वृद्धावस्था में हो, तो उसका निवास द्योतमान तथा खुले घर में होना चाहिए । यथा "ता वां वास्तून्यश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमवभाति भूरि। (ऋ० १।१५४।६) गाव:= सूर्य रश्मयः। भूरिशृङ्गा:= बहुज्वलनाः, बहुप्रदीप्ताः" शृङ्गाणि ज्वलतो नाम (निघं० १।१०)। उरुगायस्य =महागृहस्य। वृष्णः= वर्षाकारिणः सूर्यस्य, अथवा रश्मीणाम् वर्षाकारिणः सूर्यस्य।]

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    विषय

    आरोग्य और रोग विनाश ।

    भावार्थ

    हे व्याधिपीड़ित ! (त्वा) तुझको मैं वैद्य (जरसि) वृद्धावस्था तक भी (तासु) पूर्वोक्त प्रकार से बतलाये गुण वाली दिशाओं में अर्थात् जिनमें उत्तम वायु और उत्तम सूर्य-प्रकाश अच्छी प्रकार से हों उनमें ही (आदधामि) रहने का आदेश करता और तुझे रखता हूं, (यक्ष्म) यक्ष्मा, राजयक्ष्मा जो सूक्ष्म जीवकीट या रोगजन्तुओं से उत्पन्न होने वाली व्याधि है वह (प्र एतु) सर्वथा दूर हो जाय और (निर्ऋतिः) शरीर की सब क्लेशदशा भी (पराचैः) दूर हो जाय, ‘एवाहं०’ इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। निर्ऋतिर्धावापृथिव्यादयो नानादेवताः। १ ब्रह्मणा सह द्यावापृथिवी स्तुतिः। २ अद्भिः सह अग्निस्तुतिः। ओषधीभिः सह सोमस्तुतिश्च। ३ वातस्तुतिश्चतुर्दिवस्तुतिश्च। ४, ६ वातपत्नी सूर्ययक्ष्मनिर्ऋतिप्रभूतिस्तुतिः। १ त्रिष्टुप् । २ सप्तपाद अष्टिः। ३, ५, ७, ८ सप्तपादो धृतयः। सप्तपाद अत्यष्टिः। ८ अत्रोत्तरौ द्वौ औष्णिहौ पादौ । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Adversity

    Meaning

    Thus do I prepare a place for you in the quarters and sub-quarters of space under the sun with good health till full age and self-fulfillment. Thus do I free you from disease, adversity, hate, jealousy and malignity of equals’ rivalry and release you from the chains of Varuna. I render you blameless and declare you free from sin and disease by Veda, and I pray may both heaven and earth be good and kind to you.

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    Translation

    I put you in the midst of them to reach the ripe old age. May your wasting disease and the wretchedness go far away. Thus I hereby free you from the wretchedness of the hereditary disease, from the unpleasant consequences of attachment to women, and from the noose of the venerable Lord. With my prayer, I make you free from faults and ills. May both the heaven and earth be benevolent to you.

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    Translation

    O’ patient; I set you in midst of them for long life till oldness and let the calamity caused by disease pass away and let pass away the tuberculosis. etc. etc.

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    Translation

    O patient, for long life, in the midst of these directions I set thee. May consumption and poverty pass away. From family sickness, poverty domestic calumny, malice, and God’s punishment for sin, do I free and save thee. I render thee sinless through the knowledge of the Vedas. May both, the Earth and Heaven be auspicious to thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी–हमारे विचार में यहाँ भी (जरस्) पद का अर्थ निघण्टु और निरुक्त आदि के अनुसार स्तुति वा कीर्त्ति है [बुढ़ापे का अर्थ बेमेल है]। अथर्ववेद १।३०।२। और टिप्पणी देखिये और यजु० ३६।२४। भी विचारिये। तच्चक्षु॑र्देवहि॑तं पु॒रस्ता॑च्छु॒क्रमुच्च॑रत्। पश्ये॑म श॒रदः॑ शतं जीवेम श॒रदः॑ शत॒ शृणु॑याम श॒रदः श॒तं प्रब्रवाम श॒रदः॑ श॒तमदी॑नाः स्याम श॒रदः॑ श॒तं भूय॑श्च श॒रदः श॒तात् ॥१॥ (तत्) परब्रह्म (चक्षुः) सबका द्रष्टा, (देवहितम्) विद्वान् देवताओं का हितकारी, (शुक्रम्) वीर्यवान्, (पुरस्तात्) पहिले काल से वा सन्मुख होकर (उच्चरत्) ऊँचा चढ़ रहा है। [ऐसा ध्यान करते हुए] (शतम् शरदः) सौ शरद् ऋतु वा वर्ष तक (पश्येम) हम देखते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (जीवेम) हम जीते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (शृणुयाम) हम सुनते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (प्रब्रवाम) हम बोलते रहें, (शतम् शरदः) सौ वर्ष तक (अदीनाः) दीनतारहित (स्याम) हम रहें, (च) और (शतात् शरदः) सौ वर्ष से (भूयः) अधिक। अर्थात् हम सर्वथा पुष्टाङ्ग रहें और कभी अङ्गहीन और धनहीन न हों ॥ ५–तासु। पूर्वोक्तासु दिक्षु। त्वा। त्वां मनुष्यम्। आत्मानम्। अन्तर्। मध्ये। जरसि। १।३०।२। जॄ स्तुतौ, यद्वा, गॄ शब्दे–असुन्। जरिता स्तोतृनाम–निघ० ३।१६। स्तुतौ। यशसि। आ। सम्यक्। यथाविधि। दधामि। अहं मनुष्यः स्वपौरुषेण धारयाम्यात्मानमित्यर्थः। यक्ष्मः। अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति यक्ष पूजायाम्–मन्। पूज्यते वैद्यो रोगे। राजरोगः। क्षयः। प्र+एतु। प्रैतु। प्रगच्छतु। निर्गच्छतु। निर्ऋतिः। म० १। अलक्ष्मीः। दरिद्रतादिविपत्तिः। पराचैः। नौ दीर्घश्च। उ० ५।१३। इति बाहुलकात्, पर+चिञ् चयने–डैसि। अकारस्य दीर्घश्च। पराङ्मुखी ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (তাসু অন্তঃ) সেই দ্যোতমান দিশার মধ্যে, (জরসি) জরাবস্থায় (ত্বা) তোমাকে (আ দধামি) আমি স্থাপিত করি। (নিঋতিঃ যক্ষ্মঃ) কৃচ্ছ্রাপত্তিরূপ যক্ষ্মা (পরাচৈঃ) দূরের মার্গ দ্বারা (প্র এতু) চলে যাক। (এবাহম্) এইভাবে আমি প্রযুক্তকারী (ত্বা) তোমাকে (ক্ষেত্রিয়াৎ) ক্ষেত্রিয় আদি থেকে; ক্ষেত্র অর্থাৎ শরীরসম্বন্ধিত রোগ থেকে, (নির্ঋত্যাঃ) কৃচ্ছ্রাপত্তি থেকে, (জামিশংসাৎ) বোনের প্রতি কুপ্রবৃত্তি থেকে (দ্রুহঃ) দ্রোহ থেকে, (বরুণস্য পাশাৎ) বরুণের বন্ধন থেকে, অর্থাৎ অসত্য বচন আদি থেকে (ত্বা মুঞ্চামি) তোমাকে আমি [চিকিৎসক] মুক্ত করি। (ব্রহ্মণা) বেদোক্ত বিধি দ্বারা (ত্বা) তোমাকে [আমি] (অনাগসম্) পাপরহিত (কৃণোমি) করি। (তে) তোমার জন্য (দ্যাবাপৃথিবী উভে) দ্যৌঃ এবং পৃথিবী উভয়ই (শিবে স্তাম্) কল্যাণকারী হোক।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে কষ্টদায়ক যক্ষ্মা রোগের বর্ণনা হয়েছে। যক্ষ্মা রোগীকে, বিশেষ করে সে যখন বৃদ্ধাবস্থায় আছে, তখন তাঁর নিবাস দ্যোতমান ও বাতানুকূল ঘরে হওয়া উচিত। যথা "তা বাং বাস্তূন্যশ্মসি গমধ্যৈ যত্র গাবো ভূরিশৃঙ্গা অয়াসঃ। অত্রাহ তদুরুগায়স্য বৃষ্ণঃ পরমং পদমবভাতি ভূরি। (ঋ০ ১।১৫৪।৬) গাবঃ= সূর্যরশ্ময়ঃ। ভূরিশৃঙ্গাঃ= বহুজ্বলনাঃ, বহু-প্রদীপ্তাঃ" শৃঙ্গাণি জ্বলতো নাম (নিঘং০ ১।১০)। উরুগায়স্য= মহাগৃহস্য। বৃষ্ণঃ= বর্ষাকারিণঃ সূর্যস্য অথবা রশ্মীণাম্ বর্ষাকারিণঃ সূর্যস্য।]

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    मन्त्र विषय

    মুক্তিপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ

    भाषार्थ

    (তাসু) সেই [দিশা-সমূহে] (ত্বা) তোমাকে (জরসি) স্তুতির (অন্তঃ) মধ্যে (আ) উত্তমরূপে (দধামি) ধারণ করি, (যক্ষ্মঃ) রাজরোগ [ক্ষয় আদি] ও (নির্ঋতিঃ) অলক্ষ্মী [মহামারী দরিদ্রতা আদি]ও (পরাচৈঃ) পরাঙ্মুখ হয়ে (প্র+এতু) চলে যাবে/যাক। (এব) এভাবেই (অহম্) আমি (ত্বাম্) তোমাকে (ক্ষেত্রিয়াৎ) শারীরিক বা বংশগত রোগ থেকে....[মন্ত্র ২]॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যকে পরমেশ্বর, সমস্ত প্রাণীদের মধ্যে শ্রেষ্ঠ করেছেন, এইজন্য পুরুষ পুরুষার্থ করে সকল বিঘ্ন দূর করুক এবং কীর্ত্তিমান্ হয়ে সদা আনন্দ ভোগ করুক এবং অমর হোক ॥৫॥ আমার বিচারে এখানেও (জরস্) পদের অর্থ নিঘণ্টু এবং নিরুক্ত আদি অনুসারে স্তুতি বা কীর্ত্তি [বৃদ্ধাবস্থার অর্থ বেমানান]। অথর্ববেদ ১।৩০।২। এবং টিপ্পণী দেখুন এবং যজু০ ৩৬।২৪। বিচার করুন। তচ্চক্ষু॑র্দেবহি॑তং পু॒রস্তা॑চ্ছু॒ক্রমুচ্চ॑রৎ। পশ্যে॑ম শ॒রদঃ॑ শতং জীবেম শ॒রদঃ॑ শত॒ শৃণু॑য়াম শ॒রদঃ শ॒তং প্রব্রবাম শ॒রদঃ॑ শ॒তমদী॑নাঃ স্যাম শ॒রদঃ॑ শ॒তং ভূয়॑শ্চ শ॒রদঃ শ॒তাৎ ॥১॥ (তৎ) পরব্রহ্ম (চক্ষুঃ) সকলের দ্রষ্টা, (দেবহিতম্) বিদ্বান্ দেবতাদের হিতকারী, (শুক্রম্) বীর্যবান্, (পুরস্তাৎ) পূর্বকাল থেকে বা সন্মুখ হয়ে (উচ্চরৎ) উচ্চ হচ্ছেন। [এমনটা বিচার করে] (শতম্ শরদঃ) শত শরদ্ ঋতু বা বর্ষ পর্যন্ত (পশ্যেম) আমরাও দেখতে থাকি, (শতম্ শরদঃ) সৌ বর্ষ পর্যন্ত (জীবেম) আমরাও জীবিত থাকি, (শতম্ শরদঃ) শত বর্ষ পর্যন্ত (শৃণুয়াম) আমরাও শুনতে থাকি, (শতম্ শরদঃ) শত বর্ষ পর্যন্ত (প্রব্রবাম) আমরাও বলতে থাকি, (শতম্ শরদঃ) শত বর্ষ পর্যধ্য (অদীনাঃ) দীনতারহিত (স্যাম) আমরা থাকি, (চ) এবং (শতাৎ শরদঃ) শত বর্ষের (ভূয়ঃ) অধিক। অর্থাৎ আমরা সর্বদা পুষ্টাঙ্গ থাকি এবং কখনও যেন অঙ্গহীন এবং ধনহীন না হ ই ॥

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