अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - आपः
छन्दः - एकावसानासमविषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
42
आपो॒ यद्व॒स्हर॒स्तेन॒ तं प्र॑ति हरत॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । यत् । व॒: । हर॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । ह॒र॒त॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो यद्वस्हरस्तेन तं प्रति हरत यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । यत् । व: । हर: । तेन । तम् । प्रति । हरत । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
कुप्रयोग त्याग के लिये उपदेश।
पदार्थ
(आपः) हे जलो (यत्) जो (वः) तुम्हारी (हरः) नाशनशक्ति है, (तेन) उससे (तम्) उस [दोष] को (प्रति हरत) नाश कर डालो, (यः) जो (अस्मान्) हमसे..... म० १ ॥२॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान ॥२॥
विषय
५ स्वराविषमात्रिपाद्गायत्री॥
पदार्थ
१, २, ३, ४, ५ एवं मन्त्र संख्या के केवल भावार्थ ही है |
भावार्थ
सर्वव्यापक प्रभु अपने तप आदि के द्वारा द्वेषियों के द्वेष को दूर करे। राजा भी राष्ट्र में गुप्तचरों व अध्यक्षों के द्वारा व्यापक-सा होकर जहाँ भी द्वेष को देखे उसे दूर करने के लिए यत्नशील हो। ज्ञान-प्रचारक भी अपने हृदय को विशाल व उदार बनाता हुआ ज्ञान प्रसार व अपने क्रियात्मक उदाहरण से लोगों को द्वेष की भावना से ऊपर उठने की प्ररेणा दे।
उन्नीस से तेईस तक पाँच सूक्तों का उपदेश
१. इन सूक्तों का भाव ऊपर दिया ही है। मूल भावना द्वेष से ऊपर उठने की है। इस द्वेष से ऊपर उठने के लिए 'अनि, वायु, सूर्य, चन्द्र व आप:' बनना चाहिए। अग्नि की भाँति गतिशील [अगि गतौ], वायु की भाँति गति के द्वारा बुराइयों को दूर करनेवाला[वा गतिगन्धनयो:], सूर्य की भाँति सरणशील व कर्मप्रेरणा देनेवाला, चन्द्रमा की भाँति आहादमय तथा आपः की भौति व्यापकतावाला बनने से द्वेष का प्रसङ्ग रहता ही नहीं। २. इसीप्रकार द्वेष को दूर करने के लिए 'तपस, हरस, अर्चिस्, शोचिस् व तेजस्' का साधन आवश्यक है। तप सब मलों का
अथ द्वितीयं काण्डम् हरण करता है। ज्ञानज्वाला जीवन को शुचि व दीस बनाती है। तेजस्विता के सामने द्वेषादि भाव स्वयं अभिभूत व निस्तेज हो जाते है, तेजस्विता के साथ द्वेष का निवास नहीं। ३. अग्नि शरीर में 'वाणी' है, वायु 'प्राण', सूर्य'चक्षु', चन्द्र 'मन' और आपः 'रेतस्' है। 'वाणी का संयम, प्राणसाधना[प्राणायाम], तत्त्वदर्शन, मनो-निग्रह, ऊर्ध्व-रेतस्कता' द्वेष आदि सब अशुभ भावनाओं को समास कर देते हैं। एवं ये पाँच साधन मनुष्य के जीवन को अत्यन्त उन्नत व सुन्दर बनानेवाले हैं। अगले सूक्त में सब अशुभ वासनाओं के विनाश का ही निर्देश है। इस सूक्त का ऋषि ब्रह्मा है-वृद्धिवाला। देवता 'आयुः' है-उत्तम जीवन । ब्रह्मा चाहता है कि -
भाषार्थ
[आपः है व्यापक परमेश्वर जोकि प्रलयकाल में सबका हरण कर लेता है । प्राकृतिक आप: अर्थात् जल में यह शक्ति विद्यमान नहीं। आप: पद नित्य बहुवचनान्त ही है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Apah Devata
Meaning
O waters, the power that is in you, with that wash off that which hates us and that which we hate to suffer.
Translation
O waters, whatever compelling force you have with that may you compel him, who hates us and whom we hate.
Translation
Let the waters, with that of their heat, etc, like the pervious Hymn XIX.
Translation
O God, the Goal and shelter of all, with Thy Righteous indignation, take him under Thy shelter and make him virtuous, who hates us, or whom we do not love.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
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