अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - निचृत्पुरोदेवत्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
55
म्रोकानु॑म्रोक॒ पुन॑र्वो यन्तु या॒तवः॒ पुन॑र्हे॒तिः कि॑मीदिनः। यस्य॒ स्थ तम॑त्त॒ यो वः॒ प्राहै॒त्तम॑त्त॒ स्वा मां॒सान्य॑त्त ॥
स्वर सहित पद पाठम्रोक॑ । अनु॑ऽम्रोक । पुन॑: । व॒: । य॒न्तु॒ । या॒तव॑: । पुन॑: । हे॒ति:। कि॒मी॒दि॒न॒: । यस्य॑ । स्थ । तम् । अ॒त्त॒ । य: । व॒: । प्र॒ऽहै॑त् । तम् । अ॒त्त॒ । स्वा । मां॒सानि॑ । अ॒त्त॒ ॥२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
म्रोकानुम्रोक पुनर्वो यन्तु यातवः पुनर्हेतिः किमीदिनः। यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैत्तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥
स्वर रहित पद पाठम्रोक । अनुऽम्रोक । पुन: । व: । यन्तु । यातव: । पुन: । हेति:। किमीदिन: । यस्य । स्थ । तम् । अत्त । य: । व: । प्रऽहैत् । तम् । अत्त । स्वा । मांसानि । अत्त ॥२४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
म० १–४ कुसंस्कारों के और ५–८ कुवासनाओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(म्रोक) अरे चोर ! (अनुम्रोक) अरे चोरों के साथी ! (किमीदिनः) अरे तुम लुतरे लोगों ! (वः) तुम्हारी (यातवः) पीड़ाएँ और (हेतिः) चोट (पुनः-पुनः) लौट-लौट कर (यन्तु) चली जावें..... मन्त्र १ ॥३॥
भावार्थ
मन्त्र १ के समान ॥३॥
टिप्पणी
३–म्रोक। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति म्रुच गतौ–कर्तरि घ प्रत्ययः। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। म्रोचति धनादिकम् अपहृत्य छन्नः सन् गच्छतीति म्रोकः–इति सायणः। हे चौर, म्लेच्छ। अनुम्रोक। म्रोकान् अनु गच्छतीति अनुम्रोकः। चौरसहायक ! ॥
विषय
चोरी की वृत्ति का अन्त
पदार्थ
१. (म्रोक) = हे चोर [म्रोचति चोरयति इति स्रोकः, तमनुसरतीति अनुम्रोकः]! (अनुम्रोक) = हे चोर के अनुयायिन् । (किमीदिनः) = हे लुटेरे लोगो! (व:) = तुम्हारे (यातयः) = पीड़ाकर राक्षसी वृत्ति के लोग (पुनः यन्तु) = लौटकर तुम्हें ही प्रास हों। (हेति: पुन:) = तुम्हारे अस्त्र-शस्त्र तुमपर ही पड़ें। २. (यस्य स्थ) = तुम जिसके हो (तम् अत्त) = उसी को खाओ। (य:) = जो (व:) = तुम्हें (प्राहैत) = भेजता है (तम् अत्त) = उसे खाओ, (स्वा मांसानि अत्त) = अपने ही मांस को खानेवाले बनो।
भावार्थ
चोरी की वृत्ति का अन्त हो।
भाषार्थ
[म्रोक अनुश्रोक=कुटिल गतिवाले सेनाधिपति तथा तदनुरूप सेनानायक। ये कुटिल गति अर्थात् चाल से आक्रमण कर देते हैं। दो का कथन इसलिये हुआ है कि ये दो परस्पर विचार विमर्श कर आक्रमण करें। शेष का अभिप्राय पूर्ववत्। म्रु च, गत्यर्थः (भ्वादिः ), कुटिल गति अभिप्रेत है, अर्थात् कुटिल चाल।]
विषय
हिंसक स्त्री-पुरुषों के लिये दण्ड विधान।
भावार्थ
हे (शेवृधक) हे हिंसा के कार्य में सबसे आगे बढ़ने वाले घातक ! सर्पस्वभाव ! और हे (म्रोक) धन अपहरण करके छुप जाने वाले चोर ! और हे (अनुम्रोक) चोरों के पीछे उनके ही बुरे काम का अनुसरण करने वाले ! हे (सर्प) कुटिल मार्ग से चलने वाले पुरुष ! और हे (अनुसर्प) कुटिल पुरुष के साथी लोगो ! आप सब लोग (किमीदिनः) किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो। तुम लोग जब बुरा काम करते हो तो तुम लोगों के दिल ‘अब क्या होगा ? अब कैसे’, इत्यादि फिकिरों में धुक् २ किया करते हैं। पर यह याद रखना कि तुम्हारी ये सब (यातवः) पीड़ाएं जो तुम अन्य लोगों को देते हो (वः यन्तु) तुम्हें ही प्राप्त होंगी। (पुनः हेतिः) यह शस्त्रप्रहार भी तुमको प्राप्त होगा। अर्थात् पकड़े जाने पर तुम छोड़ नहीं दिये जाओगे, क्योंकि स्वभावतः (यस्य स्थ) जिसके तुम रहते हो (तम् अत्त) उसको खाजाते हो । (यः वः) जो तुम लोगों कों (प्राहैत्) प्रेरणा दे (तं अत्त) उसको खाजाते हो और फिर लाचार होकर (स्वा मांसानि अत्त) अपने में आप को भी नष्ट भ्रष्ट कर लेते हो ।
टिप्पणी
यद्यपि यहां मन्त्रपाठ में यन्तु’,‘स्थ’,‘अत्त’ आदि प्रयोग हैं तो भी यहां अधीष्ट अर्थ में ‘लोट’ हैं। दुर्जनों का नाश करने के लिये वेदमन्त्र में उपदेश है कि हिंसाकारी, हिंसा के भावों के वर्धक, चोर, गुप्त, घोर, कुटिलाचारी पुरुषों को पकड़ कर उनको वैसी ही पीड़ाएं दी जावें जैसी उन्होंने दूसरों को दीं, वैसे ही शस्त्र से उनका नाश किया जावे जैसे शस्त्र से वे दूसरों का नाश करते हैं। उनसे ही उनके नेता को मरवावें और उनको ऐसे बेज़ार करें कि वे आपस में एक दूसरे के प्राण के प्यासे होकर एक दूसरे को खाजावें । तब वे आप से आप नष्ट होजाते हैं । ‘शेवृ’ (घ) ‘क शेवृध’, ‘सर्पान सर्प’ ‘ म्रोकान् म्रोक्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । शेरभकादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, २ पुर उष्णिहौ, ३, ४ पुरोदेवत्ये पङ्क्तिः । १-४ वैराजः । ५-८ पंचपदाः पथ्यापङ्क्ति । ५, ६ भुरिजौ । ६, ७ निचृतौ। ५ चतुष्पदा बृहती । ६-८ भुरिजः। अष्टर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
The Social Negatives
Meaning
O thieves and allied forces of white collar felons, let you all and your followers go back to yourselves, to wherever you come from. Let your arms and your tactics roll back on you. Consume and destroy whoever you work for. Rob and consume whoever appoints you to rob. Consume and destroy your own selves.
Translation
O thief (mroka),may you and your followers (anumroka) go back. May the weapon of the plunderer go back. May you eat him whose you are. May you eat him who has sent you here. May you eat your own flesh.
Translation
Let the fever heat, the trouble cause by rise of fever heat......
Translation
O thief, O friend of a thief, O mala-fide critics, may all your distressing deeds, and your weapon, fall back upon you. You eat him, who befriends you. You eat him, who shows you the right path, as a preacher. You eat the flesh of your own kith and kin!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३–म्रोक। पुंसि संज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। इति म्रुच गतौ–कर्तरि घ प्रत्ययः। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। म्रोचति धनादिकम् अपहृत्य छन्नः सन् गच्छतीति म्रोकः–इति सायणः। हे चौर, म्लेच्छ। अनुम्रोक। म्रोकान् अनु गच्छतीति अनुम्रोकः। चौरसहायक ! ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
[ম্রোক অনুম্রোক=কুটিল গতির/আচরণকারী/স্বভাবযুক্ত সেনাধিপতি এবং তদনুরূপ সেনানায়ক। এঁরা কুটিল গতি অর্থাৎ কূটনীতি দ্বারা আক্রমণ করে দেয়। দুজনের কথন এইজন্য হয়েছে যে, এই দুজন পরস্পর বিচার আলোচনা করে আক্রমণ করে। অতঃ তাঁদের মধ্যে পারস্পরিক বিদ্রোহ ভাবনা হয়ে গেছে এবং তাঁরা পরস্পর যুদ্ধ করে বিনষ্ট হয়, নিজ মাংসের নাশ করে। ম্রুচ, গত্যর্থঃ (ভ্বাদিঃ), কুটিল গতি অভিপ্রেত হল, অর্থাৎ কুটিল চাল/গমন।]
मन्त्र विषय
ম০ ১–৪। কুসংস্কারাণাং ৫–৮ কুবাসনানাং চ নাশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(ম্রোক) চোর ! (অনুম্রোক) চোরের সাথী ! (কিমীদিনঃ) লুণ্ঠনকারী ! (বঃ) তোমাদের (যাতবঃ) পীড়া/যাতনা ও (হেতিঃ) আঘাত (পুনঃ-পুনঃ) পুনঃ-পুনঃ (যন্তু) চলে যাক। তোমরা (যস্য) যার [সাথী] (স্থ) হও, (তম্) সেই [পুরুষকে] (অত্ত) ভক্ষণ করো, (যঃ) যে [পুরুষ] (বঃ) তোমাদের (প্রাহৈৎ=প্রাহৈষীৎ) প্রেরণ করেছে, (তম্) তাঁকে (অত্ত) ভক্ষণ করো, (স্বা=স্বানি) নিজের (মাংসানি) মাংস (অত্ত) ভক্ষণ করো ॥৩॥
भावार्थ
মন্ত্র ১ এর সমান ॥৩॥
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