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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 25 के मन्त्र

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
    ऋषि: - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त
    77

    शं नो॑ दे॒वी पृ॑श्निप॒र्ण्यशं॒ निरृ॑त्या अकः। उ॒ग्रा हि क॑ण्व॒जम्भ॑नी॒ ताम॑भक्षि॒ सह॑स्वतीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । न॒: । दे॒वी । पृ॒श्नि॒ऽप॒र्णी । अश॑म् । नि:ऽऋ॑त्यै । अ॒क॒: । उ॒ग्रा । हि । क॒ण्व॒ऽजम्भ॑नी । ताम् । अ॒भ॒क्षि॒ । सह॑स्वतीम् ॥२५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं नो देवी पृश्निपर्ण्यशं निरृत्या अकः। उग्रा हि कण्वजम्भनी तामभक्षि सहस्वतीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । न: । देवी । पृश्निऽपर्णी । अशम् । नि:ऽऋत्यै । अक: । उग्रा । हि । कण्वऽजम्भनी । ताम् । अभक्षि । सहस्वतीम् ॥२५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (2)

    विषय

    शत्रुओं के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (देवी) दिव्य गुणवाली (पृश्निपर्णी) सूर्य वा पृथिवी की पालनेवाली [अथवा, सूर्य वा पृथिवी जैसे पत्तेवाली ओषधिरूप परमेश्वरशक्ति] ने (नः) हमारे [पुरुषार्थियों के] लिये (शम्) सुख और (निर्ऋत्यै) दुःखदायिनी अलक्ष्मी, महामारी आदि पीड़ा के लिये (अशम्) दुःख (अकः=अकार्षीत्) किया है। (हि) क्योंकि वह शक्ति (उग्रा) प्रचण्ड और (कण्वजम्भनी) पाप की नाश करनेवाली है, [इसलिये] (ताम्) उस (सहस्वतीम्) बलवती को (अभक्षि) मैंने भजा वा पूजा है ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सूर्य आदि बड़े-बड़े लोकों को धारण किया है और जैसे पृथिवी पर अन्नादि ओषधियाँ अपने पत्ते, फलादि से उपकार करती हैं, वैसे ही परमेश्वर की सृष्टि में सूर्यादिलोक आकर्षण, धारण, वृष्टि आदि से परस्पर उपकारी होते हैं। परमेश्वर अपने आज्ञापालक पुरुषार्थियों को सुख और आज्ञानाशक कर्महीनों को दुःख देता है। उस दयालु और प्रचण्ड परमात्मा की आज्ञा मानकर हम सदा आनन्द भोगें ॥१॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–(पृश्नि) शब्द का अर्थ सूर्य है–निरु० २।२४ और पृथिवी, छोटा और विचित्र भी है और (पर्ण) का अर्थ पालन और पत्ते हैं। सायणाचार्य ने (पृश्निपर्णी) का अर्थ चित्रपर्णी ओषधि लिखा है। शब्दकल्पद्रुमकोष में वर्णन है कि (पृश्निपर्णी) छोटे पत्तेवाली लता विशेष है, उसे बंगला में “चाकुलिया” और नागरी में “चकरौत्” कहते हैं, इसके गुण कटुत्व और अतीसार, कास, वातरोग, ज्वर, उन्माद, व्रण और दाहनाशक हैं ॥ १–शम्। सुखम्। नः। अस्मभ्यम्। देवी। दीप्यमाना। पृश्निपर्णा। पृश्निः–इति व्याख्यातम्, अ० २।१।१। स्पृश स्पर्शे–नि, सलोपः। पृश्निः=सूर्यः, पृथिवी। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः–न। पिपर्त्ति पालयति पूरयति वा तत् पर्णं पत्रं वा। स्त्रियां ङीप्। सूर्यस्य पृथिव्या वा परमेश्वरस्य पालनशक्तिः। सूर्यवत् पृथिवीवद्वा पर्णानि पत्राणि यस्याः सा पृश्निपर्णी, ओषधिरूपा परमेश्वरशक्तिः। पृश्निपर्णी चित्रपर्णी ओषधीः–इति सायणः। पृश्नि स्वल्पं पर्णमस्याः–लताविशेषः, चाकुलिया इति बङ्गभाषा, चकरौत् इति हिन्दीभाषा, अस्या गुणाः। कटुत्वम्, अतीसारकासवातरोगज्वरोन्मादव्रणदाहनाशित्वञ्च–इति शब्दकल्पद्रुमे। अशम्। अशान्तिम्। दुःखम्। निर्ऋत्यै। अ० १।३१।२। निः+ऋ हिंसने–क्तिन्। अलक्ष्यै, निर्धनतायै। अकः। डुकृञ् करणे लुङ्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। गुणे। हल्ङ्याब्भ्यो०। पा० ६।१।६८। इति तिलोपः। अकार्षीत्, कृतवती। उग्रा। अ० १।१०।१। उच समवाये–रक्। प्रचण्डा। हि। यस्मात् कारणात्। कण्वजम्भनी। अशूप्रुषिलटिकणिखटिविशिभ्यः क्वन्। उ० १।१५१। इति कण गतौ, आर्तस्वरे–क्वन्। कण्यते अपोद्यते तत् कण्वं पापम्। जभि नष्टीकरणे–ल्युट्, ङीप्। पापस्य नाशयित्री। अभक्षि। भज सेवायाम्, लुङि आत्मनेपदोत्तमैकवचनम्। अहं सेवितवानस्मि। सहस्वतीम्। सहस्–मतुप् ङीप्। तसौ मत्वर्थे। पा० १।४।१९। इति भत्वेन अपदत्वाद् रुत्वाभावः। अभिभवनशीलाम्। बलवतीम् ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Destruction of Anti-Life

    Meaning

    Let Prshniparni, divine herb of bright rainbow leaves, be auspicious for us. Let it act agaist and root out consumptive and cancerous diseases of body and mind. Strong it is, mighty powerful devourer of sin and negativity. I have studied and researched it and I value it as a divine sanative worthy of adoration.

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