अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ऋषिः - कपिञ्जलः
देवता - रुद्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
66
रुद्र॒ जला॑षभेषज॒ नील॑शिखण्ड॒ कर्म॑कृत्। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥
स्वर सहित पद पाठरुद्र॑ । जला॑षऽभेषज । नील॑ऽशिखण्ड । कर्म॑ऽकृत् । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्र जलाषभेषज नीलशिखण्ड कर्मकृत्। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्र । जलाषऽभेषज । नीलऽशिखण्ड । कर्मऽकृत् । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पदार्थ
(रुद्र) हे ज्ञानप्रापक ! हे दुःखविनाशक ! (जलाषभषेज) हे सुखदायक ओषधिवाले ! (नीलशिखण्ड) हे निधियों वा निवासस्थानों के प्राप्त करानेवाले ! (कर्मकृत्) हे कार्य्य में कुशल पुरुष ! (प्राशम्) मुझ वादी के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटा दे, (ओषधे) हे ताप को पीनेवाली [ओषधिरूप बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर दे ॥६॥
भावार्थ
जैसे उपकारी चतुर सद्वैद्य सुपरीक्षित ओषधियों से संसार में उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्यों को अपने बुद्धिप्रभाव से कार्यकुशल होकर सदा उपकारी रहना चाहिये ॥६॥
टिप्पणी
६–रुद्र। अ० १।१९।३। रुत्+र। रु गतौ, वधे–क्विप्, तुक् आगमः। रवते गच्छति जानाति येनेति रुत्, ज्ञानम्। रा दाने–क। यद्वा। मत्वर्थे र प्रत्ययः। ज्ञानदाता ज्ञानवान् वा रुद्रः। यद्वा। रवते। हिनस्तीति रुत्, दुःखम्। रुत् रवते नाशयतीति रुत्+रु वधे–ड। दुःखनाशको रुद्रः। तत्संबुद्धौ। जलाषभेषज। जनी–ड+लष इच्छायाम्–घञ्। जैः जातैः लष्यते, इति जलाषम्। ततो भिषज् चिकित्सायां सुखने–अच्। जलाषं भेषजं च सुखनाम–निघ० ३।६। जलाषं सुखकरं भेषजं यस्य। हे सुखप्रदौषधयुक्त। नीलशिखण्ड। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति णीञ् प्रापणे, रक्। रस्य लः। नीयते प्राप्यते इति नीलः, निधिभेदः। संख्याविशेषो वा। यद्वा। नि+इल गतौ–क। नीलः–नीडः निवासः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।१२९। इति शिखि गतौ–अण्डन्, स च कित्। नीलानां निधीनां निवासानां वा शिखण्डः प्राप्तिर्यस्मात् नीलशिखण्डः। हे निधीनां निवासानां वा प्रापक ! कर्मकृत्। कर्म+कृञ्–क्विप्, तुक् च। कर्माणि कृत्यानि करोतीति सः। हे कृत्यकुशल ! अन्यद् गतम् ॥
विषय
सद् वैद्य
पदार्थ
१. (रुद्र) = [रुत् दुःखं दुःखहेतुर्वा तद् द्रावयति नः प्रभुः । रुद्र इत्युच्यते तस्मात् शिवः परमकारणम्।] हे रोगरूप दु:खों का द्रावण करनेवाले! (जलाषभेषज) = [जनै: लष्यते, जलार्ष सुखम्] सुखकर ओषधियोंवाले! नीलशिखण्ड-[नील नीड् शिखि गतौ] रोगियों के गृह की ओर जानेवाले [अपने रोगियों- patients के घरों का चक्कर-round लगानेवाले] (कर्मकृत्) = खूब क्रियाशील, कम बोलनेवाले वैद्य | आप इस पाटा ओषधि के प्रयोग से (प्राशम्) = इस पथ्यभोजी के (प्रतिप्राश:) = शत्रु बनकर इसे खा जानेवाले रोगों को (जहि) = नष्ट कर दीजिए। हे (ओषधे) = दोष दहन करनेवाली भेषज! तू (अरसान् कृणु) = रोगकृमियों को शुष्क व मृत कर दे।
भावार्थ
वैद्य रोगों को दूर करनेवाला, सुखकर औषधवाला, रोगिगृहों पर जानेवाला व क्रियाशील [पुरुषार्थी] हो। वह उचित औषध-प्रयोग से रोगों को नष्ट करे।
सूचना
यहाँ 'नीलशिखण्ड' का अर्थ काली चोटीवाले'-ऐसा करते हैं और समझते हैं कि वैद्य अतिवृद्ध न हो गया हो। अर्थ व्याकरण के अनुसार ठीक है, परन्तु वृद्ध वैद्य अनुभव की अधिकता के कारण अधिक कुशल होता है। यह वृद्धता उसकी कमी न होकर उसका गुण बन जाती है। हाँ, वैद्य मरियल-सा न होना चाहिए, उसका रोगी पर वाञ्छनीय प्रभाव नहीं हो पाता।
भाषार्थ
(रुद्र) हे रौद्र कर्म करनेवाले ! [मध्यस्थानी इन्द्र = विद्युत् ], (जलाषभेषज) हे उदक द्वारा चिकित्सा करनेवाले, (नीलशिखण्ड) हे नीली शिखा तथा नीले पुंछ सहित मोरोंवाले ! (कर्मकृत्) हे कृषिकर्म के करनेवाले मेघ !।
टिप्पणी
[मन्त्र में मेघ का वर्णन प्रतीत होता है। रुद्र है मध्यस्यानी इन्द्र अर्थात् विद्युत्। इन्द्र जब मेघ में चमकता है, तब उसके वज्रपात द्वारा वृक्ष आदि जलते हैं, यह उसका रौद्रकर्म है। मेघच्युत उदक शुद्ध होता है, उस शुद्ध उदक द्वारा जल चिकित्सा करनी चाहिए। भौम उदक शुद्ध नहीं होता, उसमें भौमतत्त्व मिश्रित रहते हैं। वर्षा-काल में मोर-मोरनियाँ प्रसन्न होती हैं। मेघ की वर्षा, कृषिकर्म में सहायक होती है और प्राश अर्थात् अशनयोग्य अन्न प्राप्त होता है। जलाषम् उदकनाम (निघं० १।१२)। यद्यपि इन्द्र पद द्वारा मुख्यतः सशरीर जीवात्मा का वर्णन हुआ है, तथापि सूक्त में इन्द्र पद द्व्यर्थ क होने से प्रसङ्गवश अन्तरिक्षस्थानी इन्द्र अर्थात् विद्युत् का तथा तत्सम्बन्धी मेघ का भी वर्णन हुआ है। यथा "वायुर्वा इन्द्रो वा अन्तरिक्षस्थानः" (निरुक्त० ७।२।५)। अन्तरिक्षस्थानी इन्द्र को रुद्र कहा है।]
विषय
ओषधि के दृष्टान्त से चितिशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे (रुद्र) रुद्र ! ब्रह्म का उपदेश करने हारे आचार्य ! शब्द-ब्रह्मरूप से सबके हृदयाकाश में व्यापक ! या सबको अन्तकाल में रुलाने हारे ! या सब पर करुणा से दया करने हारे ! या रुत् नाम संसार-दुःख को विनाश करने हारे ! हे (जलाषभेषज) सुखस्वरूप सबके चिकित्सक ! भवरोगनिवारक ! हे (नीलशिखण्ड) मनोहर कान्तिमय ! हे (कर्मकृत्) सकल कर्म के कर्त्ता परमात्मन् ! और हे (ओषधे) समस्त भवरोग के नाशक ! परम चरम उपायभूत ! (प्राशं प्रतिप्राशः) शरीर में शक्ति रूप से व्यापक आत्मा की शक्तियों के विनाशक (अरसान्) आनन्द रस से शून्य, संतापजनक विषयों को (जहि) विनाश कर और उनको (अरसान् कृणु) नीरस, निर्बल बना दे।
टिप्पणी
(तृ० च०) ‘पृष्टं दुरस्यतो जहि योऽस्मान् अभिदासति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कपिञ्जल ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-४ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory
Meaning
O Rudra, physician of powerful soothing herb and water treatment, giver of peace and prosperity with good health to the home and family, noble and conscientious at work, O herb, answer all doubts and questions raised by sceptics and negationists and silence them one by one. Expose them, O herb, and reduce the ailments to naught.
Subject
Rudra
Translation
O adult physician, Lord of healing balm, prescriber, blackhaired, and expert and experienced in your work, may you send a counter-speech against the speech. O herb, make my rivals sapless, dull and flat.(Prāša=speech, pratiprāša=counterspeech, as in debates).
Translation
This plant is dreadful to crush diseases, it is the medicine, Which brings pleasure to patients, its has blue and is very efficacious. This makes the diseases dull becoming counter-questioner to him who questions its efficacy.
Translation
O preceptor, who dilates on God, O physician, the annihilator of worldly ills, O beautiful God, the doer of infinite deeds, O intellect refute thou, he adversaries of mine, the debater. O intellect, efficacious like the medicine, that cures fever, render all my opponents in the debate, dull and flat.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६–रुद्र। अ० १।१९।३। रुत्+र। रु गतौ, वधे–क्विप्, तुक् आगमः। रवते गच्छति जानाति येनेति रुत्, ज्ञानम्। रा दाने–क। यद्वा। मत्वर्थे र प्रत्ययः। ज्ञानदाता ज्ञानवान् वा रुद्रः। यद्वा। रवते। हिनस्तीति रुत्, दुःखम्। रुत् रवते नाशयतीति रुत्+रु वधे–ड। दुःखनाशको रुद्रः। तत्संबुद्धौ। जलाषभेषज। जनी–ड+लष इच्छायाम्–घञ्। जैः जातैः लष्यते, इति जलाषम्। ततो भिषज् चिकित्सायां सुखने–अच्। जलाषं भेषजं च सुखनाम–निघ० ३।६। जलाषं सुखकरं भेषजं यस्य। हे सुखप्रदौषधयुक्त। नीलशिखण्ड। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति णीञ् प्रापणे, रक्। रस्य लः। नीयते प्राप्यते इति नीलः, निधिभेदः। संख्याविशेषो वा। यद्वा। नि+इल गतौ–क। नीलः–नीडः निवासः। अण्डन् कृसृभृवृञः। उ० १।१२९। इति शिखि गतौ–अण्डन्, स च कित्। नीलानां निधीनां निवासानां वा शिखण्डः प्राप्तिर्यस्मात् नीलशिखण्डः। हे निधीनां निवासानां वा प्रापक ! कर्मकृत्। कर्म+कृञ्–क्विप्, तुक् च। कर्माणि कृत्यानि करोतीति सः। हे कृत्यकुशल ! अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(রুদ্র) হে রৌদ্র কর্মকর্তা ! [মধ্যস্থানী ইন্দ্র = বিদ্যুৎ], (জলাষভেষজ) হে উদক দ্বারা চিকিৎসক, (নীলশিখণ্ড) হে নীল শিখা ও নীল পুচ্ছ সহিত ময়ূরসদৃশ ! (কর্মকৃৎ) হে কৃষিকর্মী মেঘ !।
टिप्पणी
[মন্ত্রে মেঘ এর বর্ণনা প্রতীত হয়। রুদ্র হল মধ্যস্থানী ইন্দ্র অর্থাত বিদ্যুৎ। ইন্দ্র যখন মেঘে চমকিত হয়, তখন তার বজ্রপাত দ্বারা বৃক্ষ আদি জ্বলে ওঠে, এটা তার রৌদ্রকর্ম। মেঘচ্যুত উদক শুদ্ধ হয়, সেই শুদ্ধ উদক দ্বারা জল চিকিৎসা করা উচিত। ভৌম উদক শুদ্ধ হয়না, এর মধ্যে ভৌমতত্ত্ব মিশ্রণ থাকে বর্ষা-কালে ময়ূর-ময়ূরী প্রসন্ন হয়। মেঘের বর্ষা, কৃষিকর্মে সহায়ক হয় এবং প্রাশ অর্থাৎ অশন/ভক্ষণ যোগ্য অন্ন প্রাপ্ত হয়। জলাষম্ উদকনাম (নিঘং০ ১।১২)। যদ্যপি ইন্দ্র পদ দ্বারা মুখ্যতঃ সশরীর জীবাত্মার বর্ণনা হয়েছে, তথাপি সূক্তে ইন্দ্র পদ দ্ব্যর্থক হওয়ায় প্রসঙ্গবশত অন্তরিক্ষস্থানী ইন্দ্র অর্থাৎ বিদ্যুৎ এর এবং তৎসম্বন্ধিত মেঘেরও বর্ণনা হয়েছে। যথা “বায়ুর্বা ইন্দ্রো বা অন্তরিক্ষস্থানঃ" (নিরুক্ত০ ৭।২।৫) । অন্তরিক্ষস্থানী ইন্দ্রকে রুদ্র বলা হয়েছে।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(রুদ্র) হে জ্ঞানপ্রাপক ! হে দুঃখবিনাশক ! (জলাষভষেজ) হে সুখদায়ক ঔষধিসম্পন্ন ! (নীলশিখণ্ড) হে নিধি বা নিবাসস্থান প্রাপক ! (কর্মকৃৎ) হে কার্যকুশল ! (প্রাশম্) আমার বাদীর (প্রতিপ্রাশঃ) প্রতিবাদীদের (জহি) বিনাশ করো, (ওষধে) হে তাপ পানকারী [ঔষধিরূপ বুদ্ধি ! সেই সকলকে] (অরসান্) ক্ষীণ/নীরস (কৃণু) করো॥৬॥
भावार्थ
যেমন উপকারী চতুর সদ্বৈদ্য সুপরীক্ষিত ঔষধির দ্বারা সংসারে উপকার করে, সেভাবেই মনুষ্যদের নিজের বুদ্ধিপ্রভাব দ্বারা কার্যকুশল হয়ে সদা উপকারী থাকা উচিৎ ॥৬॥
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