अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
ऋषिः - कपिञ्जलः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त
72
तस्य॒ प्राशं॒ त्वं ज॑हि॒ यो न॑ इन्द्राभि॒दास॑ति। अधि॑ नो ब्रूहि॒ शक्ति॑भिः प्रा॒शि मामुत्त॑रं कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । प्राश॑म् । त्वम् । ज॒हि॒ । य: । न॒: । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽदास॑ति । अधि॑ । न॒: । ब्रू॒हि॒ । शक्ति॑ऽभि: । प्रा॒शि । माम् । उत्ऽत॑रम् । कृ॒धि॒ ॥२७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्य प्राशं त्वं जहि यो न इन्द्राभिदासति। अधि नो ब्रूहि शक्तिभिः प्राशि मामुत्तरं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । प्राशम् । त्वम् । जहि । य: । न: । इन्द्र । अभिऽदासति । अधि । न: । ब्रूहि । शक्तिऽभि: । प्राशि । माम् । उत्ऽतरम् । कृधि ॥२७.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले [पुरुष !] (त्वम्) तू (तस्य) उस पुरुष के (प्राशम्) प्रश्न को (जहि) मिटा दे, (यः) जो (नः) हमको (अभि–दासति) दबावे। (नः) हमसे (शक्तिभिः) अपनी शक्तियों के साथ (अधि) अधिकारपूर्वक (ब्रूहि) कथन कर और (प्राशि) विवाद में (माम्) मुझको (उत्तरम्) अधिक उत्तम (कृधि) कर दे ॥७॥
भावार्थ
जैसे न्यायी राजा सत्यवादी को जिताता और मिथ्यावादी को हराता है। वैसे ही प्रत्येक मनुष्य अपने कुविचारों को दबाकर और सुविचारों को प्रबल करके आनन्द भोगे। ऐसे ही मनुष्य (इन्द्र) परम सामर्थ्यवाले होते हैं ॥७॥ (प्राशि) पद के स्थान पर सायणभाष्य में [प्राशम्] है ॥
टिप्पणी
७–तस्य। प्रतिवादिनः। प्राशम्। मं० १। सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति प्रच्छ जिज्ञासायाम्–भावे क्विप्। प्रश्नम्। अभिदासति। दसु उपक्षये, ण्यन्तात् परस्य शपः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति आर्धधातुकत्वात्। णेरनिटि। पा० ६।४।५१। इति णिलोपः। उपक्षपयति। तिरस्करोति। अधि। अधिकृत्य। नः। अस्मान्। ब्रूहि। कथय। निर्णय। शक्तिभिः। स्वसामर्थ्यैः। प्राशि। पूर्ववद् भावे क्विप्। प्रश्ने। माम्। प्रष्टारम्। सत्यवादिनम्। उत्तरम्। उत् अतिशयेन उद्गतः। उत्–तरप्। ऊर्द्ध्वम्। उत्कृष्टम्। कृधि। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ६।४।१०२। इति हेर्धिरादेशः। कुरु ॥
विषय
रोगों का नाश
पदार्थ
१. है (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (य:) = जो रोग (न: अभिदासति) = हमें सब प्रकार से उपक्षीण करता है, (तस्य) = उस रोग की प्राशम् मुझे खा जाने की शक्ति को (त्वम् जहि) = तू नष्ट कर दे। २. (शक्तिभिः) = शक्तियों के द्वारा (नः अधिहि) = हमारे पक्ष में निर्णय दीजिए [speak in favour of], अर्थात् हम रोगों को जीत लें। (प्राशि) = भोजन के प्रकृष्ट होने पर (माम्) = मुझे (उत्तरं कृधि) = उत्कृष्ट कीजिए। मैं रोग को (पादाक्रान्त) = करनेवाला बनूं।
भावार्थ
प्रभु रोग की घातक शक्ति को नष्ट करें और मुझे रोग को जीतने की शक्ति दें।
विशेष
सम्पूर्ण सूक्त में रोग को पराजित करने की प्रार्थना है। रोगों को नष्ट करके हम दीर्घजीवन प्राप्त कर सकते हैं। इस दीर्घजीवन का ही उल्लेख अगले सूक्त में हैं। इसे प्राप्त करनेवाला 'शम्भूः' इसका ऋषि है। यह अपने में शान्ति उत्पन्न करता है। इसकी प्रार्थना का स्वरूप यह है
भाषार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्रिय शक्तियोंवाले सशरीर जीवात्मन् ! (तस्य) उसके (प्राशम्) प्रकृष्ट अशनीय भोजन को (त्वम्) तू ( जहि) नष्ट कर, (य: ) जोकि (न:) हमारा (अभिदासति) क्षय करता है या हमें अपना दास बनाता है। (शक्तिभिः) निज शक्तियों के साथ (न:) हमें (अधिब्रूहि) अधिकारपूर्वक तू कथन कर, और (प्राशि=प्राशिम्) प्राशनकर्ता मुझको (उत्तरम्) उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ (कृधि) कर।
टिप्पणी
[अभिदासति= दसु उपक्षये (दिवादिः)। मन्त्र में आसुरकर्म का कथन हुआ है। यह हमारा क्षय करता और हमें निजदास करता है। जहि उसके प्राशन के प्रभाव को नष्ट कर। आसुर कर्म असुरों में परिपुष्ट होते हैं, मानो असुरों के आसुर भोजनों के द्वारा। अतः उनका विनाश अभीष्ट है।]
विषय
ओषधि के दृष्टान्त से चितिशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे इन्द्र ! (यः) जो (नः) हसें (अभि दासति) विनाश करता है (तस्य) उसके (प्राशं) उत्तम भोग सामर्थ्य को (त्वं जहि) तू नाश कर कर। और (शक्तिभिः) अपनी ज्ञानशक्तियों से (नः) हसें (अधि ब्रूहि) उत्तम उपदेश कर। (प्राशि) प्रश्न करने हारे के ऊपर (माम्) मुझकों (उत्तरं) उत्कृष्ट ज्ञानवान् (कृधि) कर अथवा (प्राशि) हृदय में मोहरूप से व्यापने वाले अज्ञान पर मुझे (उत्तरं कृधि) अधिक शक्ति वाला बना ।
टिप्पणी
सायण के मत से—यह सूक्त ‘पाटा’ नामक ओषधि पर लगता है। उसके मत से प्राश=प्रश्नकर्त्ता । प्रतिपाश = प्रतिवादी पर विजय पाने की प्रार्थना है, परन्तु चतुर्थ मन्त्र में ‘पाटा ‘ शब्द को सायणने ‘पाठा ‘ समझ लिया है । ‘प्राशंमामुत्तरं’ इति सायणसम्मतः पाठः। ‘तस्य पृष्टं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कपिञ्जल ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-४ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory
Meaning
Indra, eliminate the questions and onslaughts of the demonic forces who want to subdue us and reduce us to slavery. Speak to us and inspire us with will, power and force. In the struggle and debate between negativities and our positive powers of health, intelligence and progress, make me the superior and victorious power.
Subject
Indra
Translation
O resplendent Lord, may you turn away, the speech (slogans) of the person, my rival, to defeat us. May you encourage us with your might and make me supérior in public debates. (Prāšī=debate)
Translation
O’ powerful man; you defeat the Power of the man who comes to attack us, speak us with your powers and make us superior in the matter of debate.
Translation
O King, destroy the wealth of him, who wants to enslave us. With thy powers of knowledge, give us sound advice. Make me superior m depute.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७–तस्य। प्रतिवादिनः। प्राशम्। मं० १। सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति प्रच्छ जिज्ञासायाम्–भावे क्विप्। प्रश्नम्। अभिदासति। दसु उपक्षये, ण्यन्तात् परस्य शपः। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति आर्धधातुकत्वात्। णेरनिटि। पा० ६।४।५१। इति णिलोपः। उपक्षपयति। तिरस्करोति। अधि। अधिकृत्य। नः। अस्मान्। ब्रूहि। कथय। निर्णय। शक्तिभिः। स्वसामर्थ्यैः। प्राशि। पूर्ववद् भावे क्विप्। प्रश्ने। माम्। प्रष्टारम्। सत्यवादिनम्। उत्तरम्। उत् अतिशयेन उद्गतः। उत्–तरप्। ऊर्द्ध्वम्। उत्कृष्टम्। कृधि। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ६।४।१०२। इति हेर्धिरादेशः। कुरु ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্রিয় শক্তিসম্পন্ন সশরীর জীবাত্মন্ ! (তস্য) তার (প্রাশম্) প্রকৃষ্ট অশনীয়/গ্রহণযোগ্য ভোজনকে (ত্বম্) তুমি (জহি) নষ্ট করো, (যঃ) যা (নঃ) আমাদের (অভিদাসতি) ক্ষয় করে বা আমাদের নিজের দাস করে। (শক্তিভিঃ) নিজ শক্তির সাথে (নঃ) আমাদের (অধিব্রূহি) অধিকারপূর্বক তুমি কথন করো, এবং (প্রাশি=প্রাশিম্) প্রাশনকর্তা (মাম্) আমাকে (উত্তরম্) তার থেকে শ্রেষ্ঠ (কৃধি) করো।
टिप्पणी
[অভিদাসতি= দসু উপক্ষয়ে (দিবাদিঃ)। মন্ত্রে অসুরকর্মের বিবৃতি হয়েছে। ইহা আমাদের ক্ষয় করে এবং আমাদের নিজ দাস করে। জহি= তার প্রাশন এর প্রভাবকে নষ্ট করো। আসুরিক কর্ম অসুরদের মধ্যে পরিপুষ্ট হয়, যেন অসুরদের অসুর ভোজনের দ্বারা। অতঃ তাদের বিনাশ অভীষ্ট হয়েছে।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরম ঐশ্বর্যবান [পুরুষ !] (ত্বম্) তুমি (তস্য) সেই পুরুষের (প্রাশম্) প্রশ্ন (জহি) বিনাশ করো, (যঃ) যে (নঃ) আমাদের (অভি–দাসতি) সংকুচিত/তিরস্কার করে/করতে চায়। (নঃ) আমাদের সাথে (শক্তিভিঃ) নিজের শক্তির সাথে (অধি) অধিকারপূর্বক (ব্রূহি) কথন করো এবং (প্রাশি) বিবাদে (মাম্) আমাকে (উত্তরম্) অধিক উত্তম (কৃধি) করো ॥৭॥
भावार्थ
যেমন ন্যায়ী রাজা সত্যবাদীকে জয়ী করে এবং মিথ্যাবাদীকে পরাজিত করে। সেভাবেই প্রত্যেক মনুষ্য নিজের কুবিচার নষ্ট করে এবং সুবিচার প্রবল করে আনন্দ ভোগ করুক। এভাবেই মনুষ্য (ইন্দ্র) পরম সামর্থ্যবান হয় ॥৭॥ (প্রাশি) পদের স্থানে সায়ণভাষ্যে [প্রাশম্] আছে ॥
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