अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्, आयुः, वनस्पतिः
छन्दः - विराडुपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - शापमोचन सूक्त
84
श॒प्तार॑मेतु श॒पथो॒ यः सु॒हार्त्तेन॑ नः स॒ह। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः॑ पृ॒ष्टीरपि॑ शृणीमसि ॥
स्वर सहित पद पाठश॒प्तार॑म् । ए॒तु॒ । श॒पथ॑: । य: । सु॒ऽहार्त् । तेन॑ । न॒: । स॒ह । चक्षु॑:ऽमन्त्रस्य । दु॒:ऽहार्द॑: । पृ॒ष्टी: । अपि॑ । शृ॒णी॒म॒सि॒ ॥७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
शप्तारमेतु शपथो यः सुहार्त्तेन नः सह। चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणीमसि ॥
स्वर रहित पद पाठशप्तारम् । एतु । शपथ: । य: । सुऽहार्त् । तेन । न: । सह । चक्षु:ऽमन्त्रस्य । दु:ऽहार्द: । पृष्टी: । अपि । शृणीमसि ॥७.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(शपथः) [हमारा] क्रोधवचन (शप्तारम्) कुवचन बोलनेवाले को (एतु) प्राप्त हो और (यः) जो (सुहार्त्) अनुकूल हृदयवाला [शुभचिन्तक] है। (तेन) उस [मित्र] के साथ (नः) हमारा (सह=सहवासः) सहवास हो। (चक्षुर्मन्त्रस्य) आँख से गुप्त बात करनेवाले, (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयवाले पुरुष की (पृष्टीः) पसलियों को (अपि) ही (शृणीमसि=०–मः) हम तोड़ डालें ॥५॥
भावार्थ
राजा को उचित है कि निन्दकों पर क्रोध और शुभचिन्तक सत्पुरुषों का आदर करे और जो अनिष्टचिन्तक कपटी छली हों, उनको भी दण्ड देता रहे ॥५॥ (चक्षुर्मन्त्रस्य) समासान्त पद को पदपाठ के विरुद्ध सायणाचार्य ने [मन्त्रस्य चक्षुः] दो पद मानकर व्याख्या की है, वह असाधु है। यह समस्त पद (दुर्हार्दः) पद का विशेषण है। इसका प्रयोग अ० १९।४५।१। में इस प्रकार है। चक्षु॑र्मन्त्रस्य दु॒र्हार्दः पृ॒ष्टीरपि॑ शृणाञ्जन ॥ (अञ्जन) हे आँखें खोल देनेवाले ! तू आँख से गुप्त बात करनेवाले दुष्टहृदयवाले की पसलियाँ ही (शृण) तोड़ दे ॥
टिप्पणी
५–शप्तारम्। शापकर्तारम्। अनीत्या कटुवक्तारम्। एतु। गच्छतु। प्राप्नोतु। शपथः। म० २। आक्रोशः। क्रोधवचनम्। सुहार्त्। हार्दम् आनुकूल्यं करोति हार्दयतीति। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। शोभनहृदयः। सुमनस्कः। अनुकूलकारी। तेन। पूर्वोक्तेन। सुहृदयेन मित्रेण। सह। षह क्षमायाम्–अच्। संयोगः। सम्बन्धः। चक्षुर्मन्त्रस्य। चक्षेः शिच्च। उ० २।११९। इति चक्षिङ् कथने दर्शने च–उसि। शित्त्वात् ख्याञादेशाभावः। मत्रि गुप्तभाषणे–अच् घञ् वा। चक्षुषा नेत्रेण मन्त्रो गुप्तभाषणं परामर्शो यस्य तस्य। नेत्रसङ्केतेन विचारशीलस्य पिशुनस्य। दुर्हार्दः। सुहार्त् शब्दवद् व्युत्पत्तिः। दुष्टहृदयस्य। क्रूरपुरुषस्य। पृष्टीः। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।६४।१७४। इति पृषु सेचने–क्तिच्। पर्श्वस्थीनि। पार्श्वावयवान्। शृणीमसि। शॄ हिंसायाम्। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।६४। इति इकारः। शृणीमः। विनाशयामः ॥
विषय
सुहर्त् न कि दुहार्त्
पदार्थ
अभिमान के कारण मनुष्य प्रायः क्रोध में आ जाता है | कृपणता भी मनुष्य के ह्रदय को मलिन करती है | अभिमान व कृपणता से ऊपर उठकर हम शुभ हृदयवाले बनें | क्रोध में आकर शाप - वचन बोलनेवालों को शाप में उत्तर न दें | (शपथ:) = उस क्रुद्ध पुरुष से बोला गया दुवार्च (शप्तार्म्) = आक्रोध के पास ही (एतु) = लोट जाए | यः (सुहार्त्) = जो शुभहृदयवाला है (तेन नः सह) = उससे हमारा साथ हो | वस्तुतः शाप का उत्तर शाप में न देते हुए हम उस शाप देने वाले के हृदय को भी बदलने में समर्थ हों | वह बिह सारी कटुता को छोड़कर , शुभ हृदयवाला बनकर हमारे समीप प्राप्त हो | २. (चक्षुर्मन्त्रस्य) = आंख से कुटिल मन्त्रण करनेवाले (दुर्हर्दः) = दुष्ट हृदयवाले पुरुष के (पृष्टि:अपिः) = पसिलियों को भी हम (शरिमाशी) = शीर्ण कर दें | शान्ति की विचारधारा में पसिलियों को भी तोड़ दें |
इन शब्दों का प्रयोग विचित्र - सा लगता है , परन्तु शांति का भाव निर्बलता नहीं है इसके स्पष्टिकरण के लिए यह आवश्यक ही है | विवशता में बल - प्रयोग आवश्यक हो जाता है , कटु शब्दों का प्रयोग आवश्यक नहीं है | मधुरता और निर्बलता पर्ययेवाची नहीं है।
भावार्थ
हम क्रोध में अपशब्दों में न दें | हम दुर्हद् पुरुष का पराभव करनेवाले हों|
विशेष
इस सूक्त में ह्रदय को ऊतम बनाकर गली का ऊतर गली में न देने का विधान है | शान्त रहने का प्रयत्न ही ठीक है | शांति में ही वास्तविक शक्ति हैं|
अब यह अथर्वा अपना ठीक से परिपाक करना हुआ भृगु बनता है (भ्र्स्ज पाके)| अपना ठीक परिपाक करता हुआ आंगरिस होता है | इसका एक -एक अंग रसमय होता है | यह शारीर को एकदम निरोग बनाने में समर्थ होता है | इसकी आराधना निन्म प्रकार से है -
भाषार्थ
(शपथः) शपथ अर्थात् शाप (शप्तारम्) शाप देनेवाले को (एतु) प्राप्त हो। (यः) जो (सुहार्त्) उत्तम हृदयवाला है (तेन) उसके साथ (सह) हमारा सहवास हो। (चक्षुर्मन्त्रस्य) आँखों के इशारों द्वारा जो गुप्त भाषण करता है (दुर्हार्दः) अतः जो दुष्टहृदय है उसकी ( पुष्टि: अपि ) पसलियों को भी (शृणीमसि) हम तोड़ देते हैं।
टिप्पणी
[शाप देनेवाला दुष्टहृदय होता है, अतः यह दुष्टता उसे ही दूषित करती है। इसका प्रभाव उस पर नहीं होता, जिसे कि शाप दिया जाता है। शपथः का अभिप्राय है शाप, न कि शपथ।]
विषय
सहनशीलता का उपदेश ।
भावार्थ
(शपथः) निन्दाजनक गाली आदि वचन (शप्तारं) निन्दा करने वाले पुरुष के पास ही ( एतु ) रहे । ( यः ) और जो (सुहार्त्) हमारे प्रति उत्तम हृदय वाला, मित्रभाव से रहता है (तेन सह) उसके साथ (नः) हमारा भी मैत्रीभाव है। और हम (चक्षुर्मन्त्रस्य) आंखों के इशारों से गुप्त २ सलाहें करने वाले (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदय वाले पुरुष के तो ( पृष्टीः ) सब स्पर्शकारी, मर्मवेधक करतूतों को (शृणीमसि) विनाश करें या (पृष्टीः) पसलियों को भी (शृणीमसि) विनाश करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता, दूर्वास्तुतिः । १ भुरिक् । २, ३,५ अनुष्टुभौ । ४ विराडुपरिष्टाद् बृहती। पञ्चर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Countering Evil
Meaning
Let all words and vibrations of hate and anger, curse or execrations go back, unacknowledged, to the sender, leaving us, unaffected, with ourselves and our friends of goodness and peace at heart. Thus do we break down, by nature’s law itself, the back bone of the person of a negative heart and evil eye (without any response, by breaking, not by continuing, the vicious circle). Let all words and vibrations of hate and anger, curse or execrations go back, unacknowledged, to the sender, leaving us, unaffected, with ourselves and our friends of goodness and peace at heart. Thus do we break down, by nature’s law itself, the back bone of the person of a negative heart and evil eye (without any response, by breaking, not by continuing, the vicious circle). Note: Satavalekar has written a very valuable note at the end of his translation of this sukta on the herbal and psychic treatment of the ailment usually described as curse and as the evil eye. Refer to his Atharva-Veda, volume one, published by Swadhyaya Mandal, Pardi, Balsara Dist., Maharashtra, India, in 1985.
Translation
May the cursed disease go back to the curser. May our friendship be with him, who is of good heart. We shall crush even the ribs of the ill-intending persons who look at us with an evil eye (and deliberately spread infectious diseases) .
Translation
Let the anger go to anger, the cause of anger, let us live like a friend with him who has amity with us and let us split the ribs of wicked who Points out malignant eyes upon us.
Translation
Let censure return to the censurer. Let us befriend him whose heart is pure. Let us split the cruel villain’s ribs, who harbors evil designs with his eye.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५–शप्तारम्। शापकर्तारम्। अनीत्या कटुवक्तारम्। एतु। गच्छतु। प्राप्नोतु। शपथः। म० २। आक्रोशः। क्रोधवचनम्। सुहार्त्। हार्दम् आनुकूल्यं करोति हार्दयतीति। हार्दयतेः क्विपि णिलोपे रूपम्। शोभनहृदयः। सुमनस्कः। अनुकूलकारी। तेन। पूर्वोक्तेन। सुहृदयेन मित्रेण। सह। षह क्षमायाम्–अच्। संयोगः। सम्बन्धः। चक्षुर्मन्त्रस्य। चक्षेः शिच्च। उ० २।११९। इति चक्षिङ् कथने दर्शने च–उसि। शित्त्वात् ख्याञादेशाभावः। मत्रि गुप्तभाषणे–अच् घञ् वा। चक्षुषा नेत्रेण मन्त्रो गुप्तभाषणं परामर्शो यस्य तस्य। नेत्रसङ्केतेन विचारशीलस्य पिशुनस्य। दुर्हार्दः। सुहार्त् शब्दवद् व्युत्पत्तिः। दुष्टहृदयस्य। क्रूरपुरुषस्य। पृष्टीः। क्तिच्क्तौ च संज्ञायाम्। पा० ३।३।६४।१७४। इति पृषु सेचने–क्तिच्। पर्श्वस्थीनि। पार्श्वावयवान्। शृणीमसि। शॄ हिंसायाम्। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।६४। इति इकारः। शृणीमः। विनाशयामः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(শপথঃ) আমাদের ক্রোধ বচন (শপ্তারং) কুবচন শীলকে (এতু) প্রাপ্ত হউক (য়ঃ) যে (সুহাৎ) অনুকূল হৃদয় যুক্ত (তেন) সেই মিত্রের সহিত (নঃ) আমাদের (সহ) সহবাস হউক (চক্ষুর্মন্রস্য) চক্ষু দ্বারা গুপ্ত বাণীর বক্তা (দুর্হার্দঃ) দুষ্ট হৃদয় যুক্ত পুরুষের (পৃষ্টীঃ) উদ্যমকে (অপি) ই (শৃণীমসি) আমরা ভগ্ন করি।
भावार्थ
কুভাষীরা আমাদের ক্রোধ বচনকে প্রাপ্ত হউক । যাহারা অনুকূল হৃদয় যুক্ত সেই সব মিত্রের সঙ্গ আমরা লাভ করি। যাহারা চক্ষু দ্বারা গুপ্ত বাণী প্রয়োগ করে দেয় সব দুষ্ট হৃদয় যুক্ত প্রতারকদের উদ্যমকেও আমরা ভয় করি।।
मन्त्र (बांग्ला)
শপ্তারমেতু শপথো য়ঃ সুহার্ত্তেন নঃ সহ। চক্ষুমন্ত্রস্য দুর্হার্দঃ পৃষ্টীরপি শৃণীমসি।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। বনস্পতি (দূর্বা)। অনুষ্টুপ্
भाषार्थ
(শপথঃ) শপথ অর্থাৎ অভিশাপ (শপ্তারম্) অভিশাপ প্রদানকারীকে (এতু) প্রাপ্ত হোক। (যঃ) যে (সুহার্ত্) উত্তম হৃদয়ের হয়/সুহৃদয়শীর (তেন) তাঁর সাথে (সহ) আমাদের সহাবস্থান হোক। (চক্ষুর্মন্ত্রস্য) চোখের ইঙ্গিত দ্বারা যে গুপ্ত ভাষণ করে (দুহর্দিঃ) অতঃ যে দুষ্টহৃদয়শীল তাঁর (পৃষ্টীঃ অপি) তরুণাস্থি/পেশিকেও (শৃণীমসি) আমরা ভঙ্গ/ছিন্ন করি।
टिप्पणी
[অভিশাপ প্রদানকারী দুষ্টহৃদয়সম্পন্ন হয়, অতঃ এই দুষ্টতা তাঁকেই দূষিত করে। এর প্রভাব তাঁর ওপর হয় না, যাকে অভিশাপ দেওয়া হয়। শপথের অভিপ্রায় অভিশাপ, শপথ নয়।]
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(শপথঃ) [আমাদের] ক্রোধবচন (শপ্তারম্) কটুবক্তাকে (এতু) প্রাপ্ত হোক এবং (যঃ) যে (সুহার্ত্) সুহৃদয় মনুষ্য [শুভচিন্তক] আছে। (তেন) সেই [মিত্রদের] সাথে (নঃ) আমাদের (সহ=সহবাসঃ) সহবাস হোক। (চক্ষুর্মন্ত্রস্য) চক্ষু দ্বারা গুপ্তবক্তা, (দুর্হার্দঃ) দুষ্টহৃদয়-বিশিষ্ট পুরুষের (পৃষ্টীঃ) মাংসপেশীকে (অপি) ই (শৃণীমসি=০–মঃ) আমরা ভঙ্গ করি ॥৫॥
भावार्थ
রাজার উচিত যে, নিন্দুকের প্রতি ক্রোধ এবং শুভচিন্তক সৎপুরুষদের আদর করা এবং যে অনিষ্টচিন্তক কপটী ছলনাকারী আছে, তাঁদের দণ্ড দেওয়া ॥৫॥ (চক্ষুর্মন্ত্রস্য) সমাসান্ত পদকে পদপাঠের বিরুদ্ধ সায়ণাচার্য [মন্ত্রস্য চক্ষুঃ] দুটি পদ মেনে ব্যাখ্যা করেছেন, তা অসাধু/ভুল। এই সমস্ত পদ (দুর্হার্দঃ) পদের বিশেষণ। এর প্রয়োগ অ০ ১৯।৪৫।১। এ এইভাবে আছে। চক্ষু॑র্মন্ত্রস্য দু॒র্হার্দঃ পৃ॒ষ্টীরপি॑ শৃণাঞ্জন ॥ (অঞ্জন) হে চক্ষু উন্নোচনকারী ! তুমি চোখ দ্বারা গুপ্ত বচনকারী দুষ্টহৃদয়-বিশিষ্টদের পেশীও (শৃণ) ভঙ্গ করো ॥
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