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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 107/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - सूर्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७
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    चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒द्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । उत् । अ॒गा॒त् । अनी॑कम् । चक्षु॑: । मि॒त्र॒स्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒ग्ने: ॥ आ । अ॒प्रा॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सूर्य॑: । आ॒त्मा । जग॑त: । त॒स्थुष॑: । च॒ ॥१०७.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्रम् । देवानाम् । उत् । अगात् । अनीकम् । चक्षु: । मित्रस्य । वरुणस्य । अग्ने: ॥ आ । अप्रात् । द्यावापृथिवी इति । अन्तरिक्षम् । सूर्य: । आत्मा । जगत: । तस्थुष: । च ॥१०७.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र १३-१ परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवानाम्) गतिमान् लोकों का (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) जीवनदाता, (मित्रस्य) सूर्य [वा प्राण] का, (वरुणस्य) चन्द्रमा [अथवा जल वा अपान] का और (अग्नेः) बिजुली का (चक्षुः) दिखानेवाला [ब्रह्म] (उत्) सर्वोपरि (अगात्) व्यापा है। (सूर्यः) सर्वप्रेरक, (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर के (आत्मा) आत्मा [निरन्तर व्यापक परमात्मा] ने (द्यावापृथिवी) सूर्य भूमि [प्रकाशमान अप्रकाशमान लोकों] और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (आ) सब प्रकार से (अप्रात्) पूर्ण किया है ॥१४॥

    भावार्थ

    जो अद्भुतस्वरूप परमात्मा सूर्य, चन्द्र, वायु आदि द्वारा सब प्राणियों को सुख देता है, मनुष्य उसको उपासना द्वारा जानकर आत्मोन्नति करें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १३, १४−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथर्व० १३।२।३४, ३ ॥

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    विषय

    'सर्वभूतान्तरात्मा' प्रभु

    पदार्थ

    १. ये प्रभु ही (चित्रम्) = सब ज्ञानों के देनेवाले हैं। सब (देवानम्) = देवों के (अनीकम्) = बल हैं सब देवों को देवत्व प्रात करानेवाले हैं। (उदगात्) = ये मेरे हृदय में उदित हुए हैं। ये प्रभु ही (मित्रस्य) = द्युलोकस्थ सूर्य के (वरुणस्य) = अन्तरिक्षस्थ रात्रि में चन्द्ररूप से दीप्त सूर्यकिरण के तथा (अग्ने:) = पृथिवीलोकस्थ (अग्ने:) = अग्नि के (चक्ष:) = प्रकाशक हैं। सब देवों को दीप्ति देनेवाले वे प्रभु हैं 'तेन देवाः देवतामनु आयन्'। २. ये प्रभु ही द्यावापृथिवी (अन्तरिक्षम्) = द्युलोक, पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोकरूपी त्रिलोकी को आपात-पुरण व व्याप्त कर रहे हैं। सर्य: [सवति कर्मणि] सब द्युलोक-लोकान्तरों व कर्मों को प्रभु ही क्रियाशील बना रहे हैं। सब पिण्डों में शक्ति की स्थापना प्रभु ही करते हैं। वस्तुतः प्रभु ही (जगतः तस्थुषः च) = जंगम व स्थावर जगत के (आत्मा) = आत्मा हैं। सबके अन्दर ओत-प्रोत होकर सबको शक्ति-सम्पन्न व क्रियाशील बना रहे हैं।

    भावार्थ

    प्रभु ही ज्ञान व बल के देनेवाले हैं। वे ही सूर्य, चन्द्र व अग्नि के प्रकाशक हैं। त्रिलोकी को व्याप्त किये हुए हैं। ब्रह्माण्डरूप शरीर की वे आत्मा हैं। सब प्राणियों के हदयों में स्थित हैं।

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    भाषार्थ

    (देवानाम्) दिव्यप्रकाशों का (चित्रम्) अद्भुत (अनीकम्) समूहरूप परमेश्वर (उदगात्) मेरे हृदयाकाश में उदित हुआ है। यह परमेश्वर (अग्नेः) अग्नि (वरुणस्य) वायु, और (मित्रस्य) सूर्य की (चक्षुः) मानो आँख है। यह (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक में, तथा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (आ प्रात्) व्याप्त है। (सूर्यः) सूर्यसम-प्रकाशी आदित्यवर्णी या सूर्यों का सूर्य परमेश्वर, (जगतः) जङ्गम जगत् अर्थात् प्राणिजगत् का, (च) तथा (तस्थुषः) स्थिर अर्थात् स्थावर और जड़ जगत् का (आत्मा) आत्मा है।

    टिप्पणी

    [चक्षुः=आँख मार्गदर्शक है। परमेश्वर अग्न्यादि का मार्गदर्शक है। अग्नि का जलना, सूर्य का तपना, विद्युत् वायु का निज कार्यों में प्रवृत्त रहना—यह सब कुछ परमेश्वरीय निर्देशों के अधीन है। आत्मा=प्राणियों का जीवन तब तक रहता है, तब तक उनमें जीवात्मा का निवास है। इसी प्रकार जड़-चेतन जगत् की सत्ता परमेश्वर या परम-आत्मा के आधार पर अवलम्बित है।]

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    विषय

    परमेश्वर।

    भावार्थ

    (१३, १४) दोनों मन्त्रों की व्याखया देखो अथर्व० १३। २। ३४,३५॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni Devata

    Meaning

    Lo! there rises the sun, wonderful image of Divinity, the very eye of Mitra, heaven, the soothing cool of Varuna, the waters, and the beauty of the moon. It pervades and fills the heaven and earth and the middle regions of the sky. It is indeed the very soul of the moving and the unmoving world.

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    Translation

    This wondrous one amongest all the luminous bodies, the sun which is giver of life is the eye, the means of vision for air, water and fire. This sun fills the earth, firmament and heavenly region and is the Atma, the most impellent force of whatever moves and whatever does not move.

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    Translation

    This wondrous one amongest all the luminous bodies, the sun which is giver of life is the eye, the means of vision for air, water and fire. This sun fills the earth, firmament and heavenly region and is the Atma, the most impellent force of whatever moves and whatever does not move.

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    Translation

    Just as a man goes round and round after a beautiful female of good qualities (at the time of marriage ceremony) so does the Sun revolves after the radiant and charming dawn. There the people, desirous of attaining divine qualities, manage to interrelate good couples for the well-being of the good and the noble.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३, १४−मन्त्रौ व्याख्यातौ-अथर्व० १३।२।३४, ३ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্র ১৩-১ অধ্যাত্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দেবানাম্) গতিমান্ লোক-সমূহের (চিত্রম্) অদ্ভুত (অনীকম্) জীবনদাতা, (মিত্রস্য) সূর্যের [বা প্রাণের], (বরুণস্য) চন্দ্রের [অথবা জল বা অপান-এর] এবং (অগ্নেঃ) বিদ্যুৎ এর (চক্ষুঃ) চক্ষু [ব্রহ্ম] (উৎ) সর্বোপরি (অগাৎ) ব্যাপক। (সূর্যঃ) সর্বপ্রেরক, (জগতঃ) জঙ্গম (চ) এবং (তস্থুষঃ) স্থাবর সংসারের (আত্মা) আত্মা [নিরন্তর ব্যাপক পরমাত্মা] (দ্যাবাপৃথিবী) সূর্য ভূমি [প্রকাশমান অপ্রকাশমান লোক-সমূহ] এবং (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষকে (আ) সব প্রকারে (অপ্রাৎ) পূর্ণ করেছেন॥১৪॥

    भावार्थ

    যে অদ্ভুতস্বরূপ পরমাত্মা সূর্য, চন্দ্র, বায়ু আদি দ্বারা সব প্রাণীদের সুখ প্রদান করেন, মনুষ্য উনাকে উপাসনা দ্বারা জ্ঞাত হয়ে আত্মোন্নতি করুক ॥১৪॥

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    भाषार्थ

    (দেবানাম্) দিব্যপ্রকাশ-সমূহের (চিত্রম্) অদ্ভুত (অনীকম্) সমূহরূপ পরমেশ্বর (উদগাৎ) আমার হৃদয়াকাশে উদিত হয়েছেন। এই পরমেশ্বর (অগ্নেঃ) অগ্নি (বরুণস্য) বায়ু, এবং (মিত্রস্য) সূর্যের (চক্ষুঃ) মানো চক্ষু। ইনি (দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোকে, তথা (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষে (আ প্রাৎ) ব্যাপ্ত। (সূর্যঃ) সূর্যসম-প্রকাশী আদিত্যবর্ণী বা সূর্য-সমূহের সূর্য পরমেশ্বর, (জগতঃ) জঙ্গম জগৎ অর্থাৎ প্রাণীজগতের, (চ) তথা (তস্থুষঃ) স্থির অর্থাৎ স্থাবর এবং জড় জগতের (আত্মা) আত্মা।

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