अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा। शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ । चि॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑त: । वज्रे॑ण: । श॒तऽप॑र्वणा ॥ शिर॑: । बि॒भे॒द॒ । वृ॒ष्णिना॑ ॥१०७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वि चिद्वृत्रस्य दोधतो वज्रेण शतपर्वणा। शिरो बिभेद वृष्णिना ॥
स्वर रहित पद पाठवि । चित् । वृत्रस्य । दोधत: । वज्रेण: । शतऽपर्वणा ॥ शिर: । बिभेद । वृष्णिना ॥१०७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१-१२ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(दोधतः) क्रोध करते हुए (वृत्रस्य) रोकनेवाले शत्रु के (शिरः) शिर को (शतपर्वणा) सैकड़ों जोड़ोंवाले, (वृष्णिना) दृढ़ (वज्रेण) वज्र से (चित्) निश्चय करके (वि) अनेक प्रकार (बिभेद) उस [परमेश्वर] ने तोड़ा है ॥३॥
भावार्थ
जैसे शूर पुरुष भारी-भारी शस्त्रों से शत्रुओं को मार गिराता है, वैसे ही परमात्मा पापियों को अनेक प्रकार दण्ड देता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(वि) विविधम् (चित्) एव (वृत्रस्य) आवरकस्य शत्रोः (दोधतः) अ० १२।१।८। क्रुध्यतः (वज्रेण) शस्त्रेण (शतपर्वणा) बहुसन्धियुक्तेन (शिरः) (बिभेद) विच्छेद (वृष्णिना) वीर्यवता। दृढेन ॥
विषय
'शतपर्व वृष्णि' वज्र
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (दोधतः) = [दुध o kill] हमारा विनाश करनेवाले ज्ञान की आवरणभूत वासना के (शिरः) = सिर का (चित्) = निश्चय से (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वन के द्वारा (बिभेद) = विदारण कर देता है। क्रियाशीलता हमपर वासना का आक्रमण नहीं होने देती। २. यह क्रियाशीलतारूप वज्र (वृष्णिना) = बड़ा प्रबल है-हममें शक्ति का सेचन करनेवाला है तथा (शतपर्वणा) = शतवर्षपर्यन्त हमारा पूरण करनेवाला है। वस्तुत: क्रियाशीलता से ही शक्ति बनी रहती है और सौ वर्ष का पूर्ण जीवन प्राप्त होता है।
भावार्थ
जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशील बना रहकर वासना का विनाश करनेवाला बनता है। इससे वह शक्ति-सम्पन्न व शतवर्षपर्यन्त जीवनवाला होता है।
भाषार्थ
(चिद्) चित्स्वरूप परमेश्वर ने, (दोधतः) कम्पा देनेवाले (वृत्रस्य) पाप-वृत्र के (शिरः) मानो शिर को, (वृष्णिना) शक्तिशाली तथा (शतपर्वणा) मनुष्य की सौ वर्षों की आयु तक उसका पालन कर सकनेवाले (वज्रेण) ज्ञान-वज्र द्वारा, (बिभेद) काट दिया है।
टिप्पणी
[पाप का विनाश ज्ञानरूपी वज्र द्वारा होता है। परमेश्वर ने वेदज्ञान दिया है, जो कि मनुष्य के १०० वर्षों के जीवन-काल में, उसकी पापों से रक्षा करता है।]
विषय
परमेश्वर।
भावार्थ
(चित्) जिस प्रकार (दोधतः) जगत् को भय से कंपा देने वाले दुष्ट पुरुष के (शिरः) शिर का राजा (शतपर्वणा) सैकड़ों पौरु वाले (वज्रेण) शस्त्रों से (बिभेद) तोड़ डालता है उसी प्रकार जगत् को कंपाने वाले (वृत्रस्य) सबको आवरण करने वाले समस्त अज्ञान के और प्रकृति के विकार स्वरूप महत् तत्व के (शिरः) शिर, मुख्य भाग को (वृष्णिना) बलवान् (शतपर्वणा) सैकड़ों सामर्थ्यों वाले या सैकड़ों पर्व या काल अवयवों से युक्त कालरूप (वज्रेण) वीर्य से, मेघ को सूर्य के समान (विभेद) छिन्न भिन्न कर देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१-३ वत्सः, ४-१२ बृहद्दिवोऽथर्वा, १३-१४ ब्रह्मा, १५ कुत्सः। देवता—१-१२ इन्द्र, १३-१५ सूर्यः। छन्दः—१-३ गायत्री, ४-१२,१४,१५ त्रिष्टुप, १३ आर्षीपङ्क्ति॥
इंग्लिश (4)
Subject
Agni Devata
Meaning
And when the lord of might and munificence with his thunderbolt of a hundred potentials shatters the head of Vrtra, terror striking demon of darkness, drought and despair, the bolt is nothing but the blazing omnipotence of the lord.
Translation
The Almighty God with his powerful thunder-bolt of hundred knots sever the head of fiercely moving water-restraining cloud.
Translation
The Almighty God with his powerful thunder-bolt of hundred knots sever the head of fiercely moving water-restraining cloud.
Translation
See Atharva, 5.2. 1.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(वि) विविधम् (चित्) एव (वृत्रस्य) आवरकस्य शत्रोः (दोधतः) अ० १२।१।८। क्रुध्यतः (वज्रेण) शस्त्रेण (शतपर्वणा) बहुसन्धियुक्तेन (शिरः) (बिभेद) विच्छेद (वृष्णिना) वीर्यवता। दृढेन ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-১২ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(দোধতঃ) ক্রুদ্ধ হয়ে (বৃত্রস্য) বাধাদানকারী শত্রুর (শিরঃ) শির (শতপর্বণা) শত সন্ধিযুক্ত, (বৃষ্ণিনা) দৃঢ় (বজ্রেণ) বজ্র দ্বারা (চিৎ) নিশ্চিতভাবে (বি) বহু প্রকারে (বিভেদ) সেই [পরমেশ্বর] বিচ্ছেদ করেছেন॥৩॥
भावार्थ
যেমন বীর পুরুষ ভারী-ভারী শস্ত্রসমূহ দ্বারা শত্রুদের বধ করে, তেমনি পরমাত্মা পাপীদের অনেক প্রকার শাস্তি প্রদান করেন॥৩॥
भाषार्थ
(চিদ্) চিৎস্বরূপ পরমেশ্বর, (দোধতঃ) কম্পিতকারী (বৃত্রস্য) পাপ-বৃত্রের (শিরঃ) মানো শির-কে, (বৃষ্ণিনা) শক্তিশালী তথা (শতপর্বণা) মনুষ্যের শত বর্ষের আয়ু পর্যন্ত তাঁর পালনকারী (বজ্রেণ) জ্ঞান-বজ্র দ্বারা, (বিভেদ) বিচ্ছেদ করেছেন।
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