अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-११
138
इन्द्रः॑ पू॒र्भिदाति॑र॒द्दास॑म॒र्कैर्वि॒दद्व॑सु॒र्दय॑मानो॒ वि शत्रू॑न्। ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा वावृधा॒नो भूरि॑दात्र॒ आपृ॑ण॒द्रोद॑सी उ॒भे ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । पू॒:ऽभित् । आ । अ॒ति॒र॒त् । दास॑म् । अ॒र्कै: । वि॒दत्ऽव॑सु: । दय॑मान: । वि । शत्रू॑न् ॥ ब्रह्म॑ऽजूत: । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒धा॒न: । भूरि॑ऽदात्र: । आ । अ॒पृ॒ण॒त् । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑॥११.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः पूर्भिदातिरद्दासमर्कैर्विदद्वसुर्दयमानो वि शत्रून्। ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधानो भूरिदात्र आपृणद्रोदसी उभे ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । पू:ऽभित् । आ । अतिरत् । दासम् । अर्कै: । विदत्ऽवसु: । दयमान: । वि । शत्रून् ॥ ब्रह्मऽजूत: । तन्वा । ववृधान: । भूरिऽदात्र: । आ । अपृणत् । रोदसी इति । उभे इति॥११.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(विदद्वसुः) ज्ञानी श्रेष्ठ पुरुषों से युक्त (पूर्भित्) [शत्रुओं के] गढ़ों को तोड़नेवाले, (शत्रून्) वैरियों को (वि) विविध प्रकार (दयमानः) मारते हुए (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] ने (अर्कैः) पूजनीय विचारों से (दासम्) दास [सेवक] को (आ अतिरत्) बढ़ाया है। (ब्रह्मजूतः) ब्रह्माओं [महाविद्वानों] से प्रेरणा किये गये, (तन्वा) उपकार शक्ति से (वावृधानः) बढ़ते हुए, (भूरिदात्रः) बहुत से अस्त्र-शस्त्रवाले [शूर] ने (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि को (आ) भले प्रकार (अपृणत्) तृप्त किया है ॥१॥
भावार्थ
जिस राजा की सभा में विद्वान् लोग सम्मतिदाता होते हैं, वह राजा शत्रुओं का नाश और प्रजा का पालन करके विज्ञान द्वारा पृथिवी और आकाश को वश में करके संसार को सुखी करता है ॥१॥
टिप्पणी
यह पूरा सूक्त ऋग्वेद में है-३।३४।१-११ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (पूर्भित्) शत्रूणां पुरां दुर्गाणां भेत्ता (आ अतिरत्) प्रावर्धयत् (दासम्) दासृ दाने-घञ्। सेवकम् (अर्कैः) अर्चनीयैर्मन्त्रैर्विचारैः (विदद्वसुः) विद ज्ञाने शतृ। विदन्तो जानन्तो वसवः श्रेष्ठपुरुषा यस्य सः (दयमानः) दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु-शानच्। विदद्वसुर्दयमानो विशत्रूनिति हिंसाकर्मा-निरु० ४।१७। हिंसन्। नाशयन् (वि) विविधम् (शत्रून्) (ब्रह्मजूतः) ब्रह्मभिर्महाविद्वद्भिः प्रेरितः (तन्वा) उपकृत्य (वावृधानः) वर्धमानः (भूरिदात्रः) दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। दाप् लवने-त्रन्। भूरीणि बहूनि दात्राणिच्छेदनसाधनानि शस्त्रास्त्राणि यस्य सः। प्रभूतायुधः (आ) समन्तात् (अपृणत्) पृण प्रीणने-लङ्। तर्पितवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। आकाशभूमी (उभे) द्वे ॥
विषय
'शत्रु-संहारक'इन्द्र
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = शत्रुओं का द्रावण करनेवाला प्रभु (पूभित्) = असुर पुरियों का विदारण करता है। यह (अर्कैः) = प्रकाश की रश्मियों द्वारा (दासम्) = विनाशक काम को [कामदेव] को (आतिरत्) = हमें पार कराता है [संतारयति]। (विदद्वसुः) = सब वसुओं को प्राप्त करानेवाला प्रभु (शत्रून्) = काम क्रोध आदि शत्रुओं को (विदयमान:) = विशेषरूप से हिंसित करता है। २. (ब्रह्मजूत:) = स्तोत्रों के द्वारा हमारे हृदयों में अभिवृद्ध हुआ-हुआ, (तन्वावृधान:) = शक्तियों के विस्तार से हमारा वर्धन करता हुआ, (भूरिदात्र:) = पालक व पोषक धनों को देनेवाला प्रभु (उभे रादेसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (आपृणत्) = व्याप्त किये हुए है।
भावार्थ
हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु प्रकाश की रश्मियों द्वारा हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे।
भाषार्थ
(इन्द्रः) परमेश्वर (पूर्भिद्) देहपूरियों का भेदन करता है अर्थात् मृत्यु को करता, तथा मोक्षावस्था के अधिकारियों के देहों का भेदन कर उन्हें मोक्ष प्रदान करता है। और (दासम्) क्षयकारी अविद्या आदि का (अर्कैः) निज तीक्ष्ण प्रकाशों द्वारा (आतिरत्) तिरोधान अर्थात् विनाश करता है। (विदद्वसुः) प्राकृतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का दाता परमेश्वर (शत्रून्) उपासकों के प्रतिबन्धकों का (वि दयमानः) विशेषतया हनन करता है। (तन्वा) निज विस्तार से (वावृधानः) बढ़ा हुआ परमेश्वर (ब्रह्मजूतः) वैदिक स्तुतियों द्वारा प्रेरित होता है। उसने (भूरिदात्रे) प्रभूतदानी त्यागी व्यक्ति के लिए (उभे रोदसी) दोनों भूलोक-द्युलोक (आपृणद्) दानरूप में दे रखे हैं।
टिप्पणी
[पृणाति=दानकर्मा (निघं০ ३.२०)।]
विषय
परमेश्वर और राजा।
भावार्थ
(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् इन्द्र, परमेश्वर (पूर्भिद्) इस देह पुरी को तोड़नेहारा, मुक्तिप्रद, (अर्कैः) अपने अर्क, अर्थात् पूजनीय ज्ञानों से (दासम्) इस शरीर में रहने वाले जीव को (आ अतिरत्) अधिक शक्तिमान् कर देता है। और वही समस्त ऐश्वर्य को प्राप्त करनेहारा (शत्रून्) शत्रुओं अर्थात् आत्मा की शक्तियों का शातन, नाश करने वाले बाधक कारणों को (दयमानः) मारता हुआ (ब्रह्मजूतः) ब्रह्म, महान् शक्ति से सम्पन्न (तन्वा) अपनी विस्तृत शक्ति से (वावृधानः) अत्यन्त महान् (भूरिदात्रः) बहुत बड़ा दानी, परमेश्वर (उभे रोदसी आपृणाद्) दोनों लोक, आकाश और पृथ्वी को व्याप रहा है। राजा के पक्ष में—(पूर्भिद्) शत्रुओं के गढ़ तोड़ने वाला (अर्कैः) अर्चनीय धनों से अपने सेवक को बढ़ाता है। शत्रुओं को नाश करता है। ब्रह्म, विद्वानों से अपने विस्तृत राष्ट्र को बढ़ाता हुआ (उभे रोदसी आपृणत्) अपने और पराये दोनों राष्ट्रों पर वश कर लेता है। अथवा राजसम्बन्धी शासक और प्रजा दोनों पर वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Indra, lord ruler of the world, overcomes the hostile forces with light and thought and the power of persuasion. He opens and expands the cities bound in the dark and, abundant and charitable as he is, relieves and rehabilitates the helpless poor. Inspired by divinity and universal vision, rising and expanding in body and mind with plenty and prosperity, merciful and freely giving, he fills both heaven and earth with light and joy.
Translation
Indrah, the mighty fire (heat) is the render of the dwellings of the clouds and the producer of the wealth, it destroying the clouds adverse in leaving waters by the ray of sun overcomes the could that retains water within. It impelled by lightning increasing in size and quantity becoming the giver of plenty (of harvest) fills up the both of heaven and earth (with rain).
Translation
Indrah, the mighty fire (heat) is the render of the dwellings of the clouds and the producer of the wealth, it destroying the clouds adverse in leaving waters by the, ray of sun overcomes the could that retains water within. It impelled by lightning increasing in size and quantity becoming the giver of plenty (of harvest) fills up the both of heaven and earth (with rain).
Translation
The Glorious God, the Smasher of the heavenly spheres at the time of the total annihilation of the universe, empowers His subject, the soul, by the rays of light of the Vedas, dispells all his (soul’s) foes in the form of drawbacks and foibles, impelled by Vedic prayers and thus enhanced in grandeur and vast glory, distribute His bounties in plenty, and pervades both the heavens and the earth.
Footnote
(1-11) cf. Rig, 3.34. The sukta may be applied to the king also.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह पूरा सूक्त ऋग्वेद में है-३।३४।१-११ ॥ १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (पूर्भित्) शत्रूणां पुरां दुर्गाणां भेत्ता (आ अतिरत्) प्रावर्धयत् (दासम्) दासृ दाने-घञ्। सेवकम् (अर्कैः) अर्चनीयैर्मन्त्रैर्विचारैः (विदद्वसुः) विद ज्ञाने शतृ। विदन्तो जानन्तो वसवः श्रेष्ठपुरुषा यस्य सः (दयमानः) दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु-शानच्। विदद्वसुर्दयमानो विशत्रूनिति हिंसाकर्मा-निरु० ४।१७। हिंसन्। नाशयन् (वि) विविधम् (शत्रून्) (ब्रह्मजूतः) ब्रह्मभिर्महाविद्वद्भिः प्रेरितः (तन्वा) उपकृत्य (वावृधानः) वर्धमानः (भूरिदात्रः) दादिभ्यश्छन्दसि। उ० ४।१७०। दाप् लवने-त्रन्। भूरीणि बहूनि दात्राणिच्छेदनसाधनानि शस्त्रास्त्राणि यस्य सः। प्रभूतायुधः (आ) समन्तात् (अपृणत्) पृण प्रीणने-लङ्। तर्पितवान् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ। आकाशभूमी (उभे) द्वे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বিদদ্বসুঃ) জ্ঞানী শ্রেষ্ঠ পুরুষের সাথে যুক্ত (পূর্ভিৎ) [শত্রুদের] দূর্গ ধ্বংসকারী, (শত্রূন্) শত্রুদের (বি) বিবিধ প্রকারে (দয়মানঃ) দমন করে (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরমৈশ্বর্যবান্ রাজা] (অর্কৈঃ) সম্মানীয় বিচারসহিত (দাসম্) দাস [সেবক] কে (আ অতিরৎ) বর্ধিত করেছে। (ব্রহ্মজূতঃ) ব্রহ্মা [মহাবিদ্বানদের] দ্বারা প্রেরিত, (তন্বা) কল্যাণময় শক্তির মাধ্যমে/দ্বারা (বাবৃধানঃ) বর্ধিত হয়ে, (ভূরিদাত্রঃ) বহু/প্রভূত অস্ত্র-শস্ত্রসম্পন্ন [বীর] ই (উভে) উভয় (রোদসী) আকাশ এবং ভূমিকে (আ) উত্তমরূপে (অপৃণৎ) তৃপ্ত করেছে॥১॥
भावार्थ
যে রাজার সভায় বিদ্বানগণ সম্মতিদাতা হয়, সেই রাজা শত্রুদের নাশ এবং প্রজাপালন করে বিজ্ঞান দ্বারা পৃথিবী ও আকাশকে নিয়ন্ত্রণ করে বিশ্বকে সুখী করেন॥১॥
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (পূর্ভিদ্) দেহপূরীর ভেদন করেন, মোক্ষাবস্থার অধিকারীদের দেহের ভেদন করে তাঁদের মোক্ষ প্রদান করেন। এবং (দাসম্) ক্ষয়কারী অবিদ্যাদির (অর্কৈঃ) নিজ তীক্ষ্ণ প্রকাশ দ্বারা (আতিরৎ) তিরোধান অর্থাৎ বিনাশ করেন। (বিদদ্বসুঃ) প্রাকৃতিক এবং আধ্যাত্মিক সম্পত্তির দাতা পরমেশ্বর (শত্রূন্) উপাসকদের প্রতিবন্ধকের (বি দয়মানঃ) বিশেষভাবে হনন করেন। (তন্বা) নিজ বিস্তার দ্বারা (বাবৃধানঃ) বর্ধিত পরমেশ্বর (ব্রহ্মজূতঃ) বৈদিক স্তুতি দ্বারা প্রেরিত হন। তিনি (ভূরিদাত্রে) প্রভূতদানী ত্যাগী ব্যক্তির জন্য (উভে রোদসী) উভয় ভূলোক-দ্যুলোক (আপৃণদ্) দানরূপে দিয়েছেন।
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