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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 116 के मन्त्र

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
    ऋषि: - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-११६
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    मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव। वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । भू॒म॒ । निष्ट्या॑:ऽइव । इन्द्र॑ । त्वत् । अर॑णा:ऽइव ॥ वना॑नि । न । प्र॒ऽज॒हि॒तानि॑ । अ॒द्रि॒ऽव॒: । दु॒रोषा॑स: । अ॒म॒न्म॒ह‍ि॒ ॥११६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव। वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । भूम । निष्ट्या:ऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणा:ऽइव ॥ वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽव: । दुरोषास: । अमन्मह‍ि ॥११६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (2)

    विषय

    राजा के कर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वत्) तुझसे [अलग होकर] (निष्ट्याः इव) वर्णसङ्कर नीचों के समान और (अरणाः इव) न बात करने योग्य शत्रुओं के समान और (प्रजहितानि) छोड़ दिये गये (वनानि न) वृक्षों के समान (मा भूम) हम न होवें, (अद्रिवः) हे वज्रधारी ! (दुरोषासः) न जल सकनेवाले वा न मर सकनेवाले [अर्थात् जीते हुए, प्रबल] (अमन्महि) हम समझे जावें ॥१॥

    भावार्थ

    राजा प्रजा की रक्षा करके उसको प्रबल और मित्र बनाये रक्खे, जैसे माली वृक्षों को सींचकर उपयोगी बनाता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१।१३, १४ ॥ १−(मा भूम) न भवेम (निष्ट्याः) अथ० १।१९।३। निस्-त्यप् गतार्थो निर्गता वर्णाश्रमेभ्यः। चाण्डालाः। वर्णसङ्कराः (इव) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (त्वत्) त्वत्तः (अरणाः) रण शब्दे-अप्। असंभाषणीयाः। शत्रवः (इव) (वनानि) वृक्षजातानि (न) इव (प्रजाहितानि) ओहाक् त्यागे-क्त। शाखादिभिः परित्यक्तानि। प्रक्षीणानि (अद्रिवः) हे वज्रवन् (दुरोषासः) उष दाहे हिंसे च-घञ्, असुक्। ओषितुं दग्धुं हिंसितुं वा अशक्याः। जीवन्तः प्रबलाः (अमन्महि) मन ज्ञाने लिङर्थे लुङ्। ज्ञाता भवेम ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord almighty, maker and breaker of clouds and mountains, free from anger and fear we adore you and pray: Give us the grace that we may never be like the lowest of human species with nothing to be proud of, let us never be like the indifferent and the depressed, let us never be reduced to the state of forsaken thickets of dead wood.

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