अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 1
ऋषि: - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
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वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत। यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । हि । सोतो॑: । असृ॑क्षत । न । इन्द्र॑म् । दे॒वम् । अ॒मं॒स॒त॒ ॥ यत्र॑ । अम॑दत् । वृ॒षाक॑पि: । अ॒र्य: । पु॒ष्टेषु॑ । मत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र: ॥१२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत। यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । हि । सोतो: । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत ॥ यत्र । अमदत् । वृषाकपि: । अर्य: । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर: ॥१२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(हि) क्योंकि (सोतोः) तत्त्वरस का निकालना (वि असृक्षत) उन्होंने [लोगों ने] छोड़ दिया है, [इसी से] (देवम्) विद्वान् (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य आत्मा] को (न अमंसत) उन्होंने नहीं जाना, (यत्र) जहाँ [संसार में] (अर्यः) स्वामी (मत्सखा) मेरा [देहवाले का] साथी (वृषाकपिः) वृषाकपि [बलवान् कँपानेवाले अर्थात् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] ने (पुष्टेषु) पुष्टिकारक धनों में (अमदत्) आनन्द पाया है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य, दूसरे जीवों से अधिक उत्तम और तत्त्वज्ञानी होने पर भी अपने सामर्थ्य और कर्तव्य को भूल जाते हैं, वे आत्मघाती संसार में सुख कभी नहीं पाते ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।८६।१-२३ ॥ सूचना−इस सूक्त में इन्द्र, वृषाकपि, इन्द्राणी और वृषाकपायी का वर्णन है। इन्द्र शब्द से मनुष्य का शरीरधारी जीवात्मा, वृषाकपि से भीतरी जीवात्मा, इन्द्राणी से इन्द्र की विभूति वा शक्ति और वृषाकपायी से वृषाकपि की विभूति वा शक्ति तात्पर्य है, अर्थात् एक ही मनुष्य के जीवात्मा का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से है। इन्द्र अर्थात् शरीरधारी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ है, वह अपने को बुराई से बचाकर भलाई में सदा लगावे−सूक्त का यही सारांश है ॥ १−(वि) वियोगे (हि) यस्मात् कारणात् (सोतोः) ईश्वरे तोसुन्कसुनौ। पा० ३।४।१३। षुञ् अभिषवे-तोसुन्। अभिषोतुम्। तत्त्वरसं निष्पादयितुम् (असृक्षत) विसृष्टवन्तः। त्यक्तवन्तः (नि) निषेधे (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं मनुष्यम् (देवम्) विद्वांसम् (अमंसत) मन ज्ञाने-लुङ्। ज्ञातवन्तः (यत्र) यस्मिन् संसारे (अमदत्) हृष्टोऽभूत् (वृषाकपिः) कनिन् युवृषितक्षि०। उ० १।१६। वृष सेचने पराक्रमे च-कनिन्, यद्वा, इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३। इति कप्रत्ययः। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ।६। अथ यद् रश्मिभिरभिप्रकम्पयन्नेति तद् वृषाकपिर्भवति वृषाकम्पनः-निरु० १२।२७। हरविष्णू वृषाकपिः-अमरः, २३।१३०। वृषाकपि=विष्णुः, शिवः, अग्निः, इन्द्रः, सूर्यः-इति शब्दकल्पद्रमः। वृषा बलवान्, कपिः कम्पयिता चेष्टयिता इन्द्रो जीवात्मा (अर्यः) स्वामी (पुष्टेषु) पोषकेषु धनेषु (मत्सखा) मम शरीरधारिणः सखा (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् प्राणिमात्रात् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् शरीरधारी मनुष्यः (उत्तरः) श्रेष्ठतरः ॥
Vishay
…
Padartha
…
Bhavartha
…
English (1)
Subject
Indra Devata
Meaning
The creatures having been created flowed forth, streamed too far and strayed from acknowledgement of the creator Indra, where Vrshapkapi, the human soul, jivatma, top master among the created, rejoiced among them. My friend and favourite, Indra, great and generous, is supreme over the whole creation, says Prakrti, the mother consort.
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