अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 143/ मन्त्र 3
ऋषिः - पुरमीढाजमीढौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १४३
69
को वा॑म॒द्या क॑रते रा॒तह॑व्य ऊ॒तये॑ वा सुत॒पेया॑य वा॒र्कैः। ऋ॒तस्य॑ वा व॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॒ नमो॑ येमा॒नो अ॑श्वि॒ना व॑वर्तत् ॥
स्वर सहित पद पाठक: । वा॒म् । अ॒द्य । क॒र॒ते॒ । रा॒तऽह॑व्य: । ऊ॒तये॑ । वा॒ । सु॒त॒ऽपेया॑य । वा॒ । अ॒र्कै: ॥ ऋ॒तस्य॑ । वा॒ । व॒नुषे॑ । पू॒र्व्याय॑ । नम॑: । ये॒मा॒न: । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । व॒व॒र्त॒त् ॥१४३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
को वामद्या करते रातहव्य ऊतये वा सुतपेयाय वार्कैः। ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥
स्वर रहित पद पाठक: । वाम् । अद्य । करते । रातऽहव्य: । ऊतये । वा । सुतऽपेयाय । वा । अर्कै: ॥ ऋतस्य । वा । वनुषे । पूर्व्याय । नम: । येमान: । अश्विना । आ । ववर्तत् ॥१४३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१-७; ९ राजा और मन्त्री के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर राजा और मन्त्री] (रातहव्यः) देने योग्य को दिये हुए (कः) कौन पुरुष [अर्थात् प्रत्येक मनुष्य] (ऊतये) रक्षा के लिये (वा वा) और (सुतपेयाय) निचोड़े हुए सोम [तत्त्व रस] पीने के लिये (वाम्) तुम दोनों के निमित्त (अर्कैः) सत्कारों के साथ (अद्य) आज (करते) कर्म करता है, (वा) और (ऋतस्य) सत्य ज्ञान के (पूर्व्याय) प्राचीनों में रहनेवाले (वनुषे) सेवन के लिये (नमः) अन्न को (येमानः) खींचता हुआ [कौन अर्थात् प्रत्येक मनुष्य] (आ ववर्तत्) बर्ताव करता है ॥३॥
भावार्थ
प्रत्येक मनुष्य चतुर राजा और मन्त्री का आदर करके पूर्वजों के समान सत्य ज्ञान बढ़ाकर अन्न आदि प्राप्त करे ॥३॥
टिप्पणी
३−(कः) प्रत्येकपुरुषः, इत्यर्थः (वाम्) युवाभ्याम् (अद्य) म० १। (करते) कर्म प्रयत्नं करोति (रातहव्यः) दत्तदातव्यः (ऊतये) रक्षणाय (वा वा) समुच्चये (सुतपेयाय) निष्पादितस्य सोमस्य तत्त्वरसस्य पानाय (अर्कैः) सत्कारैः (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (वा) समुच्चये (वनुषे) जनेरुसिः। उ० २।११। वन संभक्तौ-उसि। संभजनाय। सेवनाय (पूर्व्याय) प्राचीनेषु भवाय (नमः) अन्नम् (येमानः) यमेः कानच्, एत्वमभ्यासलोपश्च, चित्त्वादन्तोदात्तः। नियच्छन्। आकर्षन्। बृंहणन् (अश्विना) म० १ (आ) (ववर्तत्) वर्तते ॥
विषय
ऊतये-सुतपेयाय
पदार्थ
१.हे (अश्विना) = प्राणापानो! (क:) कोई विरल पुरुष ही (रातहव्यः) = दिये हैं हव्य पदार्थ जिसने, अर्थात् जो यज्ञशील है, वह (ऊतये) = रक्षण के लिए (वा) = तथा (सुतपेयाय) = सोम [वीर्य] के पान [शरीर में ही व्यापन] के लिए (वाम्) = आपकी (अद्या) = आज (अर्के:) = स्तुतिमन्त्रों से करते-आराधना करता है। स्तुतिमन्त्रों से प्रभु का आराधन करते हुए प्राणसाधना से हमारे मन वासनाओं से आक्रान्त नहीं होते और शरीर में सोम का रक्षण होता है। हमारी वृत्ति यज्ञों की ओर होती है भोगवृत्ति से हम दूर होते हैं। २. कोई विरल व्यक्ति ही (नमः येमान:) = नम्रता का अपने अन्दर धारण करता हुआ (ऋतस्य) = ऋत के-सत्य के (पूर्याय वनेषु) = सर्वोत्तम संभजन-सर्वमुख्य विजय के लिए (अश्विना) = प्राणापानो को (आववर्तत्) = आवृत्त करता है। प्राणायाम करता हुआ अपने अन्दर सत्य को धारण करता है।
भावार्थ
प्राणसाधना के द्वारा शरीर का रक्षण होता है, सोम का शरीर में व्यापन होता है, ऋत का हम विजय कर पाते हैं।
भाषार्थ
(अश्विना) हे अश्वियो (कः) कौन ऐसा व्यक्ति है जो कि (ऊतये) राष्ट्ररक्षा के निमित्त (अद्य) सदा (रातहव्यः) स्वयमेव निज सम्पत्ति को राष्ट्र-यज्ञ में आहुतिरूप में देता है? (वा) तथा (कः) कौन यह व्यक्ति है, जोकि (सुतपेयाय) आपको अन्न रस पिलाने के लिए (अर्कैः) अन्नों द्वारा (वाम्) आप दोनों का (आ करते) सत्कार करता है? (वा पूर्व्याय) तथा अन्नादि परम्परा द्वारा प्राप्त (ऋतस्य) सत्य की, (वनुषे) प्राप्ति की अभिलाषा के निमित्त, कौन सदा (आ करते) यत्न करता है?। तथा कौन (अश्विना) हे अश्वियो! (नमः) अन्न (येमानः) दान करता हुआ (ववर्तत्) धर्म के नियमों में वर्तमान रहता है?
टिप्पणी
[रातः (रा दाने)+हव्यः। अर्कैः=अन्नः, “अर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतानि” (निरु০ ५.१.४)। वनुषं=वनु याचने+उ (तनादि)+से (तुमुन्नर्थे)। येमानः=यम्=To give (आप्टे)+शानच्। नमः=अन्नम् (निघं০ २.७)।
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (अश्विना) विद्याओं में पारंगत विद्वान् आचार्य और गुरु जनो ! या विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (अद्य) आज (कः) कौन (रातहव्यः) अन्नादि का दानशील पुरुष (वाम्) तुम दोनों की (ऊतये) जीवनरक्षा के लिये (वा) और (अर्कैः) पूजा, आदर सत्कार के कर्मों द्वारा (सुतपेयाय) उत्पन्न सोमरस आदि पान योग्य पदार्थों के पान के लिये (करते) प्रबन्ध करता है ? और (कः) कौन उत्साही शिष्य (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, वेद के (पूर्व्याय) सब से पूर्व विद्यमान (वनुषे) सेवनीय ज्ञान के लिये तुम्हारे पास (नमः) नमस्कार और आज्ञा पालन के व्रत को प्राप्त होकर (वर्तत्) रह रहा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ पुरुमीढाजमीढावृषी। त्रिष्टुभः। ८ मधुमती। वामदेव ऋषिः। ९ मेधातिथि मेध्यातिथी ऋषिः॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Ashvins, who with the offer of homage today directs his thoughts and prayers to you for the sake of protection and advancement, or for the drink of soma in celebration of success, or to learn and win the truth of eternal Dharma of existence, Rtam? Who with salutations and liberal hospitality prays for favour of your attention toward him?
Translation
O teacher and preacher, Who the giver of corn and grain for protection and with praises for your drinking of herbacious juice, does arrange ? Who does remain trying to attain the perfect knowledge with respect.
Translation
O teacher and preacher, Who, the giver of corn and grain for protection and with praises for your drinking of herbaceous juice, does arrange ? Who does remain trying to attain the perfect knowledge with respect.
Translation
O preceptor and preacher, who is the offerer of provisions etc., who makes arrangements, today, for sustenance of your living or for essence of herbs for your drinks, with honor and worship. Who is the disciple, who stays with you, paying homage to you for getting the true Vedic lore, current from the ancient times.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(कः) प्रत्येकपुरुषः, इत्यर्थः (वाम्) युवाभ्याम् (अद्य) म० १। (करते) कर्म प्रयत्नं करोति (रातहव्यः) दत्तदातव्यः (ऊतये) रक्षणाय (वा वा) समुच्चये (सुतपेयाय) निष्पादितस्य सोमस्य तत्त्वरसस्य पानाय (अर्कैः) सत्कारैः (ऋतस्य) सत्यज्ञानस्य (वा) समुच्चये (वनुषे) जनेरुसिः। उ० २।११। वन संभक्तौ-उसि। संभजनाय। सेवनाय (पूर्व्याय) प्राचीनेषु भवाय (नमः) अन्नम् (येमानः) यमेः कानच्, एत्वमभ्यासलोपश्च, चित्त्वादन्तोदात्तः। नियच्छन्। आकर्षन्। बृंहणन् (अश्विना) म० १ (आ) (ववर्तत्) वर्तते ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-৭; ৯ রাজামাত্যকৃত্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বী! [চতুর রাজা এবং মন্ত্রী] (রাতহব্যঃ) দানের যোগ্যকে প্রদত্ত (কঃ) কোন পুরুষ [অর্থাৎ প্রত্যেক মনুষ্য] (ঊতয়ে) রক্ষার জন্য (বা বা) এবং (সুতপেয়ায়) নিষ্পাদিত সোম [তত্ত্ব রস] পান করার জন্য (বাম্) তোমদের উভয়ের নিমিত্ত (অর্কৈঃ) সৎকারের সহিত (অদ্য) আজ (করতে) কর্ম করে, (বা) এবং (ঋতস্য) সত্য জ্ঞানের (পূর্ব্যায়) প্রাচীনত্বে স্থিত (বনুষে) সেবনের জন্য (নমঃ) অন্নকে (যেমানঃ) আকর্ষণ করে [কোন অর্থাৎ প্রত্যেক মনুষ্য] (আ ববর্তৎ) বেঁচে থাকে॥৩॥
भावार्थ
প্রত্যেক মনুষ্য চতুর রাজা এবং মন্ত্রীর আদর/সম্মান করে পূর্বজদের মতো সত্য জ্ঞান বৃদ্ধি করে অন্ন আদি প্রাপ্ত করুক ॥৩॥
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে অশ্বিগণ (কঃ) কে এমন ব্যক্তি যে (ঊতয়ে) রাষ্ট্ররক্ষার জন্য (অদ্য) সদা (রাতহব্যঃ) স্বয়মেব নিজ সম্পত্তি রাষ্ট্র-যজ্ঞে আহুতিরূপে প্রদান করে? (বা) তথা (কঃ) কেও এই ব্যক্তি, যে (সুতপেয়ায়) আপনাকে অন্ন রস পান করানোর জন্য (অর্কৈঃ) অন্ন দ্বারা (বাম্) আপনাদের (আ করতে) সৎকার করে? (বা পূর্ব্যায়) তথা অন্নাদি পরম্পরা দ্বারা প্রাপ্ত (ঋতস্য) সত্যের, (বনুষে) প্রাপ্তির অভিলাষার নিমিত্ত, কে সদা (আ করতে) যত্ন/প্রচেষ্টা করে?। তথা কে (অশ্বিনা) হে অশ্বিগণ! (নমঃ) অন্ন (যেমানঃ) দান করে (ববর্তৎ) ধর্মের নিয়মে বর্তমান থাকে?
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