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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६
    67

    इ॒दम॑कर्म॒ नमो॑ अभ्रि॒याय॒ यः पू॒र्वीरन्वा॒नोन॑वीति। बृह॒स्पतिः॒ स हि गोभिः॒ सो अश्वैः॒ स वी॒रेभिः॒ स नृभि॑र्नो॒ वयो॑ धात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । अ॒क॒र्म॒ । नम॑: । अ॒भ्रि॒याय॑ । य: । पूर्वी॑: । अनु॑ । आ॒ऽनोन॑वीति ॥ बृह॒स्पति॑: । स: । हि । गोभि॑: । स: । अश्वै॑: । स: । वी॒रेभि॑: । स: । नृऽभि॑: । न॒: । वय॑: । धा॒त् ।१६.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमकर्म नमो अभ्रियाय यः पूर्वीरन्वानोनवीति। बृहस्पतिः स हि गोभिः सो अश्वैः स वीरेभिः स नृभिर्नो वयो धात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । अकर्म । नम: । अभ्रियाय । य: । पूर्वी: । अनु । आऽनोनवीति ॥ बृहस्पति: । स: । हि । गोभि: । स: । अश्वै: । स: । वीरेभि: । स: । नृऽभि: । न: । वय: । धात् ।१६.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इदम्) यह (नमः) नमस्कार (अभ्रियाय) गति में रहनेवाले [पुरुषार्थी मनुष्य] को (अकर्म) हमने किया है, (यः) जो [विद्वान्] (पूर्वीः) पहिली [वेदवाणियों] को (अनु) लगातार (आनोनवीति) सब ओर सराहता रहता है। (सः हि) वही (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्या का रक्षक महाविद्वान्] (गोभिः) गौओं के साथ, (सः) वही (अश्वैः) घोड़ों के साथ, (सः) वही (वीरेभिः) वीरों के साथ, (सः) वही (नृभिः) नेता लोगों के साथ (नः) हमें (वयः) अन्न (धात्) देवे ॥१२॥

    भावार्थ

    सब लोग उस महाविद्वान् का सदा सत्कार करें, जो सदा वेदवाणियों का गुण गाकर मनुष्यों को सम्पत्तियों, वीरों और पराक्रमियों से युक्त करके पुष्कल अन्न प्राप्त करावें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(इदम्) (अकर्म) अकार्ष्म। वयं कृतवन्तः (अभ्रियाय) नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३। अभ्र गतौ-पचाद्यच्। अभ्रं मेघः-निघ० १।१०। समुद्राभ्राद् घः। पा० ४।४।११८। अभ्र-घप्रत्ययो भवार्थे। अभ्रे गतौ भवाय वर्तमानाय। पुरुषार्थिने (यः) विद्वान् (पूर्वीः) आद्या वेदवाणीः (अनु) निरन्तरम् (आनोनवीति) णु स्तुतौ यङ्लुकि। समन्ताद् अत्यर्थं नौति स्तौति (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाण्या रक्षको महाविद्वान् (सः) (हि) एव (गोभिः) धेनुभिः (सः) (अश्वैः) तुरङ्गैः (सः) (वीरेभिः) वीरैः (सः) (नृभिः) नेतृभिः (नः) अस्मभ्यम् (वयः) वि गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, यद्वा वय गतौ असुन्। अन्नम्-निघ० २।७ (धात्) दध्यात् ॥

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    विषय

    गौ-अश्व-वीर-नर

    पदार्थ

    १. (अभ्रियाय) = वासना के बादलों को विदीर्ण करके ज्ञान-जल को प्राप्त करानेवाले प्रभु के लिए (इदं नमः) = इस नमस्कार को (अकर्म) = करते हैं। (य:) = जो प्रभु (पूर्वी:) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली ज्ञानवाणियों को (अनु) = अनुक्रम से (आनोनवीति) = आभिमुख्येन खूब ही उच्चरित करते हैं। प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में इस वेदज्ञान को देते हैं। २. (स: हि बृहस्पति:) = वे ज्ञान के स्वामी प्रभु ही (गोभिः) = उत्कृष्ट ज्ञानेन्द्रियों के साथ (न:) = हमारे लिए (वयः) = जीवन को (धात्) = धारण करते हैं। (सः) = वे प्रभु (अश्वैः) = उत्कृष्ट कर्मेन्द्रियों के द्वारा, (सः वीरेभिः) = वे प्रभु वीर सन्तानों के द्वारा, (सः नृभिः) = तथा वे प्रभु उत्तम [नू नये] पथ-प्रदर्शकों के द्वारा हमारे लिए उत्कृष्ट जीवन को धारण करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु वासना के मेघों का विदारण करके हमें ज्ञानजल प्राप्त कराते हैं। उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों व वीर सन्तानों तथा उत्तम पथ-प्रदर्शकों को प्राप्त कराके हमें उत्कृष्ट जीवन अगले सूक्त का ऋषि कृष्णः' है, जो संसार के रंगों में न रंगा जाकर अपने जीवन को पवित्र बनाए रखता है। यह अच्छाइयों को अपनी ओर आकृष्ट करता है और अन्त में [१२] 'वसिष्ठ' बनता है-उत्तम निवासवाला। यह प्रार्थना करता है

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    भाषार्थ

    हम उपासकों ने (इदं नमः) यह नमस्कार (अभ्रियाय) मेघों के भी स्वामी “बृहस्पति” तथा महाब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर के प्रति (अकर्म) किया है। (यः) जो परमेश्वर कि (पूर्वीः) पूर्वकालों से चली आई अनादि ऋचाओं का (अनु) निरन्तर प्रत्येक सृष्टि के आदि में (नोनवीति) बार-बार स्तवन करता है, उपदेश करता है। (सः) वह (बृहस्पतिः हि) बृहस्पति ही (गोभिः) गौओं द्वारा, (सः अश्वैः) वह ही अश्वों द्वारा, (सः वीरेभिः) वह ही वीर सन्तानों द्वारा, (सः नृभिः) वह ही नेताओं द्वारा (नः) हमें (वयः) जीवन, दीर्घायु तथा अन्न (आधात्) प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    [वयः=अन्नम् (निघं০ २.७)।] [सूक्त के मन्त्र १, तथा १२ में ‘बृहस्पति’ पद द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है। और मध्य के मन्त्रों में ‘बृहस्पति’ पद द्वारा सेनापति तथा वायु का भी वर्णन हुआ है।]

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    विषय

    परमेश्वर की उपासना और वेदवाणियों का प्रकाशित होना

    भावार्थ

    (यः) जो (पूवींः) सबसे पूर्व प्राप्त अथवा ज्ञान से पूर्ण वेदवाणियों को (अनु) यथाक्रम (आनोनवीति) साक्षात् करके उपदेश करने में समर्थ है उस (अभ्रियाय) मेघ के समान सबको ज्ञानरूप जल वितरण करने में समर्थ ज्ञानी पुरुष को (इदं नमः) यह इस प्रकार से हम आदर सत्कार (अकर्म) करें, (सः हि) वही निश्चय से (बृहस्पतिः) वेदवाणियों का पालक होकर हमें (गोभिः) गौओं, (अश्वैः) घोड़ों, (वीरेभिः) वीर पुरुषों या वीर्यवान् पुत्रों और (नृभिः) अन्य सेवक पुरुषों या नेता पुरुषों सहित राष्ट्र में (वयः) अन्न, वीर्य, ज्ञान और कर्म (धात्) धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    This homage we offer to Brhaspati, lord of living waters and thunder, who reveals the eternal words of divine knowledge. May that lord bless us with good health and long age with lands, cows and the light of knowledge, horses, transport and advancement, brave progeny, leading lights and enlightened people.

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    Translation

    This praise we offer about the electricity of the cloud which thunders out in seccession. Let Brihaspati give us corn, let it give us corn with cows, let it with horses, let it with heroes and let it with people.

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    Translation

    This praise we offer about the electricity of the cloud which thunders out in secession. Let Brihaspati give us corn, let it give us corn with cows, let it with horses, let it with heroes and let it with people.

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    Translation

    We pay this homage to the learned person, who rains down the previously revealed Vedic teachings. May he invest us with food, power, knowledge, action and life, with the help of cows, horses, brave sons and other leading men.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(इदम्) (अकर्म) अकार्ष्म। वयं कृतवन्तः (अभ्रियाय) नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः। पा० ३।१।१३। अभ्र गतौ-पचाद्यच्। अभ्रं मेघः-निघ० १।१०। समुद्राभ्राद् घः। पा० ४।४।११८। अभ्र-घप्रत्ययो भवार्थे। अभ्रे गतौ भवाय वर्तमानाय। पुरुषार्थिने (यः) विद्वान् (पूर्वीः) आद्या वेदवाणीः (अनु) निरन्तरम् (आनोनवीति) णु स्तुतौ यङ्लुकि। समन्ताद् अत्यर्थं नौति स्तौति (बृहस्पतिः) बृहत्या वेदवाण्या रक्षको महाविद्वान् (सः) (हि) एव (गोभिः) धेनुभिः (सः) (अश्वैः) तुरङ्गैः (सः) (वीरेभिः) वीरैः (सः) (नृभिः) नेतृभिः (नः) अस्मभ्यम् (वयः) वि गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु, यद्वा वय गतौ असुन्। अन्नम्-निघ० २।७ (धात्) दध्यात् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদ্বদ্গুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইদম্) এই (নমঃ) নমস্কার (অভ্রিয়ায়) গতিশীল [পুরুষার্থী মনুষ্য] কে (অকর্ম) আমরা করেছি, (যঃ) যে [বিদ্বান্] (পূর্বীঃ) পূর্ব/প্রাচীন/প্রথমের [বেদবাণীসমূহ] এর (অনু) নিরন্তর (আনোনবীতি) সর্বদিক থেকে প্রশংসা/স্তুতি করে। (সঃ হি) সেই (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [বেদবাণীর রক্ষক মহান বিদ্বান্] (গোভিঃ) গাভীসমূহের সহিত, (সঃ) তিনিই (অশ্বৈঃ) অশ্বসমূহের সাথে, (সঃ) সেই (বীরেভিঃ) বীরগণের সাথে, (সঃ) সেই (নৃভিঃ) নেতাগণের সাথে (নঃ) আমাদের (বয়ঃ) অন্ন (ধাৎ) প্রদান করে/করুক॥১২॥

    भावार्थ

    সকল মনুষ্য সেই মহাবিদ্বানের সদা-সৎকার করুক, যে সদা বেদবাণীসমূহের গুণগান করে মনুষ্যগণকে সম্পদ, বীর ও পরাক্রমীগণের সহিত যুক্ত করে প্রচুর অন্ন প্রাপ্ত করায়॥১২॥

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    भाषार्थ

    আমরা উপাসকরা (ইদং নমঃ) এই নমস্কার (অভ্রিয়ায়) মেঘের স্বামী “বৃহস্পতি” তথা মহাব্রহ্মাণ্ডের স্বামী পরমেশ্বরের প্রতি (অকর্ম) করেছি। (যঃ) যে পরমেশ্বর (পূর্বীঃ) পূর্বকাল থেকে বর্তমান/বিদ্যমান অনাদি ঋচা-সমূহের (অনু) নিরন্তর প্রত্যেক সৃষ্টির আদিতে (নোনবীতি) বার-বার স্তবন করেন, উপদেশ করেন। (সঃ) সেই (বৃহস্পতিঃ হি) বৃহস্পতিই (গোভিঃ) গাভী দ্বারা, (সঃ অশ্বৈঃ) তিনিই অশ্বদের দ্বারা, (সঃ বীরেভিঃ) তিনিই বীর সন্তানদের দ্বারা, (সঃ নৃভিঃ) তিনিই নেতাদের দ্বারা (নঃ) আমাদের (বয়ঃ) জীবন, দীর্ঘায়ু তথা অন্ন (আধাৎ) প্রদান করেন।

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