अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 12
बृह॑स्पते यु॒वमिन्द्र॑श्च॒ वस्वो॑ दि॒व्यस्ये॑शाथे उ॒त पार्थि॑वस्य। ध॒त्तं र॒यिं स्तु॑व॒ते की॒रये॑ चिद्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । यु॒वम् । इन्द्र॑: । च॒ । वस्व॑: । दि॒व्यस्य॑ । ई॒शा॒थे॒ इति॑ । उ॒त । पार्थि॑वस्य ॥ ध॒त्तम् । र॒यिम् । स्तु॒व॒ते॒ । की॒रये॑ । चि॒त् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभि॑: । सदा॑ । न॒: ॥१८.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते युवमिन्द्रश्च वस्वो दिव्यस्येशाथे उत पार्थिवस्य। धत्तं रयिं स्तुवते कीरये चिद्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते । युवम् । इन्द्र: । च । वस्व: । दिव्यस्य । ईशाथे इति । उत । पार्थिवस्य ॥ धत्तम् । रयिम् । स्तुवते । कीरये । चित् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभि: । सदा । न: ॥१८.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी वेदवाणी के रक्षक विद्वान्] (च) और (इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य) आकाश के (उत) और (पार्थिवस्य) पृथिवी के (वस्वः) धन के (ईशाथे) स्वामी हो। (स्तुवते) स्तुति करते हुए (कीरये) विद्वान् को (रयिम्) धन (चित्) अवश्य (धत्तम्) तुम दोनों दो, [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥१२॥
भावार्थ
विद्वान् मन्त्री और पराक्रमी राजा और सब शूर पुरुष आकाशस्थ वायु वृष्टि आदि, और पृथिवीस्थ अन्न सुवर्ण आदि का सुप्रबन्ध करके प्रजा की रक्षा करें ॥१२॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-७।९७।१० और आगे है अथ० २०।८७।७ और चौथा पाद ऊपर आचुका है-२०।१२।६ और आगे है-२०।३७।११ ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥ १२−(बृहस्पते) हे बृहत्या वेदवाण्या रक्षक विद्वन् (युवम्) युवाम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् राजन् (च) (वस्वः) वसुनः। धनस्य (दिव्यस्य) दिवि आकाशे भवस्य (ईशाथे) स्वामिनौ भवथः (उत) अपि च (पार्थिवस्य) पृथिव्यां भवस्य (धत्तम्) दत्तम् (रयिम्) धनम् (स्तुवते) स्तोत्रं कुर्वते (कीरये) कॄगॄशॄपॄ०। उ० ४।१४३। कॄ क्षेपे-इप्रत्ययः, दीर्घश्छान्दसः, यद्वा कील बन्धने-इन्, लस्य रः। कीरिः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। किरति वाचा प्रेरयति स किरिः तस्मै विदुषे (चित्) अवश्यम्। अन्यद् गतम्-अ० २०।१२।६ ॥
विषय
'दिव्य व पार्थिव' धन
पदार्थ
१.हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! आप (च) = और (इन्द्रः) = वह शत्रविद्रावक प्रभु (युवम्) = आप दोनों (दिव्यस्य) = मस्तिष्करूप द्युलोक के (वस्वः) = ज्ञानधन के, (उत) = और (पार्थिवस्य) = शरीररूप पृथिवी के शक्तिधन के (ईशाथे) = ईश हैं। ज्ञानधन के ईश होने से आप 'बृहस्पति' हैं, शक्तिधन के ईश होने से 'इन्द्र' हैं। २. आप (स्तुवते) = स्तुति करते हुए इस (कीरये चित्) = स्तोता के लिए भी (रयिं धत्तम्) = ऐश्वर्य का धारण कीजिए। (यूयम्) = आप सब देव (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा (सदा) = सदा (न:) = हमारा (पात) = रक्षण कीजिए।
भावार्थ
'बृहस्पति' हमें ज्ञानधन दें। 'इन्द्र' शक्तिधन प्राप्त कराएँ। इसप्रकार सब देव हमारा रक्षण करनेवाल हों। देवों से रक्षित होकर हम 'मेधातिथि व प्रियमेध' बनते हैं। यह मेधा का प्रिय व्यक्ति ही उत्तम जीवनवाला 'वसिष्ठ' बन जाता है। अगले सूक्त में ये ही प्रथमत्रिक व द्वितीयन्त्रिक के ऋषि हैं -
भाषार्थ
(बृहस्पते) हे बृहती-वेदवाणी के आचार्य! (च इन्द्रः) और परमेश्वर! (युवम्) आप दोनों, (दिव्यस्य) आध्यात्मिक (उत) और (पार्थिवस्य) प्राकृतिक (वस्वः) धनों के (ईशाथे) अधीश्वर हैं। आप दोनों (स्तुवते) स्तुति करनेवाले (कीरये) स्तोता को (रयिम्) आध्यात्मिक और प्राकृतिक दोनों प्रकार के ऐश्वर्य (धत्तम्) प्रदान कीजिए। (यूयम्) हे सब दिव्य शक्तियो! तुम सब मिलकर (नः) हम उपासकों की (सदा पात) सदा रक्षा करते रहो, (स्वस्तिभिः) कल्याणमयी विधियों द्वारा।
टिप्पणी
[कीरिः=स्तोता (निघं০ ३.१६); कीर्तन करनेवाला।]
विषय
परमेश्वरोपासना
भावार्थ
हे (बृहस्पते) वेदज्ञ, बृहती वेदवाणी के पालक ! और हे इन्द्र ! (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य उत पार्थिवस्य) दिव्य आकाश में विद्यमान और पृथिवी में विद्यमान (वस्वः) समस्त ऐश्वर्यों को (ईशाथे) वश कर रहे हो। आप दोनों (स्तुवते) स्तुतिशील, (कीरये) ज्ञानवान पुरुष को (रयिं धत्तं) ऐश्वर्य प्रदान करो। और हे विद्वान् पुरुषो ! आप सब (स्वस्तिभिः) कल्याणकारी उपायों से (नः सदा पात) हमारी सदा रक्षा करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Brhaspati, lord of this vast universe, and Indra, you are lords omnipotent of the glory and majesty of the world, you rule and order the light of heaven and the wealths of the earth. Pray bear and bring the light of divinity and wealth of the world to bless the celebrant and the worshipper. O lords and divinities of nature and humanity, protect and promote us with all modes and means of peace, prosperity and excellence all ways all time.
Translation
O master of Vedic speech (learned man) and Almighty God; you both are the lord of the wealth that remains on earth and in heaven, you give physical and spiritual wealth to man who praises you and who supplicates you. O learned ones, you guard us always with auspiciousness.
Translation
O master of Vedic speech (learned man) and Almighty God, you both are the lord of the wealth that remains on earth and in heaven, you give physical and spiritual wealth to man who praises you and who supplicates you. O learned. ones, you guard us always with auspiciousness.
Translation
O Vedic scholar and the powerful king both of you contain the celestial and the terrestrial riches of all sorts. Invest the devoted, learned person with wealth and well-being. O learned persons, let you protect us, the people in general, by peaceful means.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-७।९७।१० और आगे है अथ० २०।८७।७ और चौथा पाद ऊपर आचुका है-२०।१२।६ और आगे है-२०।३७।११ ॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥ १२−(बृहस्पते) हे बृहत्या वेदवाण्या रक्षक विद्वन् (युवम्) युवाम् (इन्द्र) हे महाप्रतापिन् राजन् (च) (वस्वः) वसुनः। धनस्य (दिव्यस्य) दिवि आकाशे भवस्य (ईशाथे) स्वामिनौ भवथः (उत) अपि च (पार्थिवस्य) पृथिव्यां भवस्य (धत्तम्) दत्तम् (रयिम्) धनम् (स्तुवते) स्तोत्रं कुर्वते (कीरये) कॄगॄशॄपॄ०। उ० ४।१४३। कॄ क्षेपे-इप्रत्ययः, दीर्घश्छान्दसः, यद्वा कील बन्धने-इन्, लस्य रः। कीरिः स्तोतृनाम-निघ० ३।१६। किरति वाचा प्रेरयति स किरिः तस्मै विदुषे (चित्) अवश्यम्। अन्यद् गतम्-अ० २०।१२।६ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বৃহস্পতে) হে বৃহস্পতি! [বেদবাণীর রক্ষক বিদ্বান্] (চ) এবং (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [মহাপ্রতাপী রাজন্] (যুবম্) তোমরা দুজনে (দিব্যস্য) আকাশের (উত) এবং (পার্থিবস্য) পৃথিবীর (বস্বঃ) ধনসম্পদের (ঈশাথে) স্বামী! (স্তুবতে) স্তুতিকারী/প্রশংসাকারী (কিরয়ে) বিদ্বানকে (রয়িম্) ধন (চিৎ) অবশ্যই (ধত্তম্) তোমরা দুজন দান করো, [হে বীরগণ!] (যূয়ম্) তোমরা (স্বস্তিভিঃ) সুখ দ্বারা (সদা) সদা (নঃ) আমাদের (পাত) রক্ষিত রাখো।।১২।।
भावार्थ
বিদ্বান মন্ত্রী ও পরাক্রমশালী রাজা এবং বীর পুরুষ আকাশস্থ বায়ু বৃষ্টি আদি, এবং পৃথিবীস্থ অন্ন সুবর্ণাদির সুব্যবস্থা করে প্রজাদের রক্ষা করুক।।১২।। এই মন্ত্র ঋগ্বেদে আছে-৭।৯৭।১০ এবং আছে অথ০ ২০।৮৭।৭ এবং চতুর্থ পাদ আছে-২০।১২।৬ এবং আছে-২০।৩৭।১১ ॥
भाषार्थ
(বৃহস্পতে) হে বৃহতী-বেদবাণীর আচার্য! (চ ইন্দ্রঃ) এবং পরমেশ্বর! (যুবম্) আপনারা দুজন, (দিব্যস্য) আধ্যাত্মিক (উত) এবং (পার্থিবস্য) প্রাকৃতিক (বস্বঃ) ধনের (ঈশাথে) অধীশ্বর। আপনারা দুজন (স্তুবতে) স্তুতি উচ্চারণকারী (কীরয়ে) স্তোতাকে (রয়িম্) আধ্যাত্মিক এবং প্রাকৃতিক উভয় প্রকারের ঐশ্বর্য (ধত্তম্) প্রদান করুন। (যূয়ম্) হে সকল দিব্য শক্তিসমূহ! তোমরা সবাই মিলে (নঃ) আমাদের [উপাসকদের] (সদা পাত) সদা রক্ষা করতে থাকো, (স্বস্তিভিঃ) কল্যাণময়ী বিধি দ্বারা।
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