अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
वि॑षू॒वृदिन्द्रो॒ अमु॑तेरु॒त क्षु॒धः स इद्रा॒यो म॒घवा॒ वस्व॑ ईशते। तस्येदि॒मे प्र॑व॒णे स॒प्त सिन्ध॑वो॒ वयो॑ वर्धन्ति वृष॒भस्य॑ शु॒ष्मिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षु॒ऽवृत् । इन्द्र॑: । अम॑ते: । उ॒त । क्षु॒ध: । स: । इत् । रा॒य: । म॒घऽवा॑ । वस्व॑: । ई॒श॒ते॒ ॥ तस्य॑ । इत् । इ॒मे। प्र॒व॒णे । स॒प्त । सिन्ध॑व: । वय॑: । व॒र्ध॒न्ति॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । शु॒ष्मिण॑: ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
विषूवृदिन्द्रो अमुतेरुत क्षुधः स इद्रायो मघवा वस्व ईशते। तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिणः ॥
स्वर रहित पद पाठविषुऽवृत् । इन्द्र: । अमते: । उत । क्षुध: । स: । इत् । राय: । मघऽवा । वस्व: । ईशते ॥ तस्य । इत् । इमे। प्रवणे । सप्त । सिन्धव: । वय: । वर्धन्ति । वृषभस्य । शुष्मिण: ॥१७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी राजा] (अमतेः) कंगाल का (उत) और (क्षुधः) भूख का (विषुवृत्) सर्वथा हटानेवाला है, (सः इत्) वही (मघवा) महाधनी (रायः) धन का और (वस्वः) वस्तु का (ईशते) स्वामी है। (तस्य इत्) उसी ही (वृषभस्य) श्रेष्ठ (शुष्मिणः) महाबली के (प्रवणे) सेवनीय लम्बे राज्य में (इमे) यह (सप्त सिन्धवः) बहते हुए सात समुद्ररूप छेद [हमारे दो, कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख अथर्व० १०।२।६] (वयः) अन्न को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं ॥३॥
भावार्थ
धार्मिक प्रतापी, धनी राजा की सुनीति से प्रजागण जितेन्द्रिय होकर विद्यावृद्धि करके धनवान् और अन्नवान होवें ॥३॥
टिप्पणी
३−(विषुवृत्) विषु+वृतु वर्तने-क्विप्। सर्वथा निवर्तयिता (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अमतेः) अमेरतिः। उ० ४।९। अम पीडने-अति। दारिद्र्यस्य (क्षुधः) बुभुक्षायाः (सः) (इत्) एव (रायः) धनस्य (मघवा) महाधनी (वस्वः) वसुनः। वस्तुनः (ईशते) छान्दसः शप्। ईष्टे। ईश्वरो भवति (तस्य) (इत्) (इमे) प्रत्यक्षाः (प्रवणे) वन सम्भक्तौ-अच्। सेवनीये। आयते दीर्घे राज्ये (सप्त) सप्तसंख्याकानि शीर्षण्यानि च्छिद्राणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-अथर्व० १०।२।६ (सिन्धवः) स्यन्दमानानि समुद्ररूपाणि च्छिद्राणि (वयः) अन्नम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (वृषभस्य) श्रेष्ठस्य (शुष्मिणः) महाबलवतः ॥
विषय
'दारिद्य व क्षुधा के निवर्तक' प्रभु
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (अमते:) = दारिज्य व बुद्धिशून्यता का (विषूवृत्) = [विष्वक् वर्तयिता] चारों ओर भगा देनेवाला-नष्ट कर देनेवाला है (उत) = और (क्षधा) = भूख को भी दूर करनेवाला है। (स इत् मघवा) = वह ऐश्वर्यशाली प्रभु ही (राय:) = दान के योग्य (वस्व:) = धन के, निवास को उत्तम बनानेवाले ऐश्वर्य के (ईशते) = स्वामी हैं। २. (तस्य इत्) = उस प्रभु की ही (इमे) = ये (प्रवणे) = निम्न मार्ग में (सम) = सर्पणशील (सिन्धव:) = नदियाँ (वय:) = अन्न को (वर्धन्ति) = बढ़ाती हैं। ये नदियाँ उस (वृषभस्य) = सुखों का वर्षण करनेवाले (शुष्मिण:) = बलवान् प्रभु की हैं। प्रभु के शासन में ही ये पूर्व से पश्चिम में व उत्तर से दक्षिण में बह रही हैं। मैदानों में बहती हुई ये नदियाँ भूमि का सेचन करती हुई शक्तिवर्धक अन्न को उत्पन्न करती हैं।
भावार्थ
प्रभु हमारे दारिद्रय व भूख का प्रतीकार करते हैं। वे हमें निवास के लिए आवश्यक धनों को देते हैं। उनके शासन में बहती हुई नदियाँ भूमि का सेचन करती हुई अन्न उत्पन्न करती हैं।
भाषार्थ
(इन्द्रः) परमेश्वर (अमतेः) अज्ञान का, (उत) और (क्षुधः) क्षुधा का, (विषुवृत्) भिन्न-भिन्न प्रकार से निवारण करता है। (सः) वह (मघवा) ऐश्वर्यवान् (इद्) ही (रायः वस्वः) प्राकृतिक और आध्यात्मिक सम्पत्तियों का (ईशते) अधीश्वर है। (वृषभस्य) सम्पत्तियों की वर्षा करनेवाले, और (शुष्मिणः) बलशाली (तस्य इत्) उसही परमेश्वर की (प्रवणे) आज्ञा में वर्तमान (सप्त सिन्धवः) सात प्रकार की नदियाँ (वयः) प्राकृतिक और आध्यात्मिक अन्न की (वर्धन्ति) उत्पत्ति तथा वृद्धि करती हैं।
टिप्पणी
[सप्त सिन्धवः=सात प्रकार की जलमय नदियाँ पृथिवी पर प्रवाहित होकर, प्राकृतिक अन्न को उत्पन्न करतीं तथा उसकी वृद्धि करती हैं, जिसके द्वारा कि क्षुधा की निवृत्ति होती है। और ७ छन्दों से युक्त वेदवाणियाँ मुख में प्रवाहित होती हुई आध्यात्मिक-अन्न अर्थात् ज्ञान को उत्पन्न कर, और उसकी वृद्धि कर अज्ञान की निवृत्ति करती हैं। निम्नलिखित मन्त्र में “सप्त सिन्धवः” पद द्वारा ७ छन्दों से युक्त वेदवाणी का ग्रहण होता है, यथा— सु॒दे॒वा अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः। अ॒नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्म्यं॑ सुषि॒रामि॑व॥ ऋ০ ६.९.१२॥ मन्त्र में ‘काकुद’ का अर्थ है—तालु। यथा—काकुदं ताल्वित्याचक्षते। जिह्वा=कोकुवा, सास्मिन् धीयते। जिह्वा कोकुवा कोकूयमाना वर्णान् नुदतीति वा, कोकूयतेर्वा स्याच्छब्दकर्मणः’ (निरु০ ५.४.२७)।]
विषय
परमेश्वरोपासना
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर मेघ के समान (अमतेः) दारिद्रय और (क्षुधः) भूख का भी (विषूवृत्) सब प्रकार से नाश करने हारा है। (स इत्) वह ही (मघवा) धनैश्वर्य सम्पन्न (वस्वः) प्रजाओं को बसाने बाले (रायः) धनैश्वर्य का (ईशते) स्वामी है। (इमे सप्त) ये सात (सिन्धवः) गतिशील महान् शक्तियें, ५ भूत, महान् और अहंकार ब्रह्माण्ड में सात वायुएं, शिर में ७ प्राण (प्रवणे) निम्न स्थान में (तस्य) उस (शुष्मिणः) बलशाली (वृषभस्य) सब सुखों के वर्षक परमेश्वर की (इत्) ही (वयः) शक्ति को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Indra, lord of all power and glory, dynamic presence all round in the world, dispels hunger and ignorance, he rules and dispenses wealth, power and peace of shelter and settlement. Indeed, under the rule of this mighty generous master, all these seven streams of nature, life and living energy flow on and evolve to perfection. (This is true of both the external world of nature under the law of the cosmic spirit and of the internal world of mind and pranic energy under the will of the spirit within.)3. Indra, lord of all power and glory, dynamic presence all round in the world, dispels hunger and ignorance, rules and dispenses wealth, power and peace of shelter and settlement. Indeed, under the rule of this mighty generous master, all these seven streams of nature, life and living energy flow on and evolve to perfection. (This is true of both the external world of nature under the law of the cosmic spirit and of the internal world of mind and pranic energy under the rule of the spirit within.)
Translation
Almighty, God, the Master of wealth of all wealth and perfection dissipates indigence and hunger. He controls the précious wealth. These seven rivers discending downward are increasing the excellence of that vigorous everenergetic Lord.
Translation
Almighty, God, the Master of wealth of all wealth and perfection dissipates indigence and hunger. He controls the precious wealth. These seven rivers descending downward are increasing the excellence of that vigorous ever-energetic Lord.
Translation
The Lord of all fortunes removes poverty and hunger. He alone, the master Ox fortunes, the settler of all the people, rules over all riches. These seven rivers flowing down the current of creation enhance the power of the Almighty God, the showerer of all blessings, alone.
Footnote
Seven rivers: Mahat, Ahankar and five Bhutas, the source of all creation; seven dhatus in the body of man to maintain it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(विषुवृत्) विषु+वृतु वर्तने-क्विप्। सर्वथा निवर्तयिता (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अमतेः) अमेरतिः। उ० ४।९। अम पीडने-अति। दारिद्र्यस्य (क्षुधः) बुभुक्षायाः (सः) (इत्) एव (रायः) धनस्य (मघवा) महाधनी (वस्वः) वसुनः। वस्तुनः (ईशते) छान्दसः शप्। ईष्टे। ईश्वरो भवति (तस्य) (इत्) (इमे) प्रत्यक्षाः (प्रवणे) वन सम्भक्तौ-अच्। सेवनीये। आयते दीर्घे राज्ये (सप्त) सप्तसंख्याकानि शीर्षण्यानि च्छिद्राणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्-अथर्व० १०।२।६ (सिन्धवः) स्यन्दमानानि समुद्ररूपाणि च्छिद्राणि (वयः) अन्नम् (वर्धन्ति) वर्धयन्ति (वृषभस्य) श्रेष्ठस्य (शुष्मिणः) महाबलवतः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী রাজা] (অমতেঃ) দারিদ্রতা (উত) এবং (ক্ষুধঃ) ক্ষুধার (বিষুবৃৎ) সার্বিক নিবারণকারী, (সঃ ইৎ) তিনিই (মঘবা) মহাধনী (রায়ঃ) ধনসম্পদ ও (বস্বঃ) বস্তুর (ঈশতে) স্বামী। (তস্য ইৎ) সেই (বৃষভস্য) শ্রেষ্ঠ (শুষ্মিণঃ) মহাবলশালীর (প্রবণে) সেবাধীন দীর্ঘ রাজ্যে (ইমে) এই (সপ্ত সিন্ধবঃ) প্রবাহমান সাত সমুদ্ররূপী ছিদ্র [আমাদের দুই কান, দুই নাসারন্ধ্র, দুই চোখ ও এক মুখ- অথর্ব০ ১০/২/৬] (বয়ঃ) অন্ন (বর্ধন্তি) বৃদ্ধি করে।।৩।।
भावार्थ
ধার্মিক প্রতাপী, ধনী রাজার সুনীতি দ্বারা প্রজাগণ জিতেন্দ্রিয় হয়ে বিদ্যাবৃদ্ধি করে ধনবান্ এবং অন্নবান হোক।।৩।।
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (অমতেঃ) অজ্ঞানের, (উত) এবং (ক্ষুধঃ) ক্ষুধার, (বিষুবৃৎ) ভিন্ন-ভিন্ন প্রকারে নিবারণ করেন। (সঃ) তিনি (মঘবা) ঐশ্বর্যবান্ (ইদ্) ই (রায়ঃ বস্বঃ) প্রাকৃতিক এবং আধ্যাত্মিক সম্পত্তি-সমূহের (ঈশতে) অধীশ্বর। (বৃষভস্য) সম্পত্তি-সমূহের বর্ষণকারী, এবং (শুষ্মিণঃ) বলশালী (তস্য ইৎ) সেই পরমেশ্বরের (প্রবণে) আজ্ঞায় বর্তমান (সপ্ত সিন্ধবঃ) সাত প্রকারের নদী (বয়ঃ) প্রাকৃতিক এবং আধ্যাত্মিক অন্নের (বর্ধন্তি) উৎপত্তি তথা বৃদ্ধি করে।
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