अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
वयो॒ न वृ॒क्षं सु॑पला॒शमास॑द॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ म॒न्दिन॑श्चमू॒षदः॑। प्रैषा॒मनी॑कं॒ शव॑सा॒ दवि॑द्युतद्वि॒दत्स्वर्मन॑वे॒ ज्योति॒रार्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवय॑: । न । वृ॒क्षम् । सु॒ऽप॒ला॒शम् । आ । अ॒स॒द॒न् । सोमा॑स: । इन्द्र॑म् । म॒न्दिन॑: । च॒मू॒ऽसद॑: ॥ प्र । ए॒षा॒म् । अनी॑कम् । शव॑सा । दवि॑द्युतत् । वि॒दत् । स्व॑: । मन॑वे । ज्योति॑: । आर्यम् ॥१७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः। प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्वर्मनवे ज्योतिरार्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठवय: । न । वृक्षम् । सुऽपलाशम् । आ । असदन् । सोमास: । इन्द्रम् । मन्दिन: । चमूऽसद: ॥ प्र । एषाम् । अनीकम् । शवसा । दविद्युतत् । विदत् । स्व: । मनवे । ज्योति: । आर्यम् ॥१७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वयः न) जैसे पक्षी गण (सुपलाशम्) सुन्दर पत्तोंवाले (वृक्षम्) वृक्ष को, [वैसे ही] (मन्दिनः) आनन्द देनेवाले, (चमूषदः) सेनाओं में ठहरनेवाले (सोमासः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (इन्द्रम्) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] को (आ असदन्) आकर प्राप्त हुए हैं। (शवसा) बल के साथ (एषाम्) इन [ऐश्वर्यवानों] के (दविद्युतत्) अत्यन्त चमकते हुए (अनीकम्) सेनादल ने (मनवे) मनुष्य के लिये (आर्यम्) उत्तम (स्वः) सुख और (ज्योतिः) तेज को (प्र) अच्छे प्रकार (विदत्) पाया है ॥४॥
भावार्थ
जैसे सुन्दर फल, पुष्प और छायावाले वृक्ष पर पक्षी आकर रहते हैं, वैसे ही तीक्ष्ण हथियारवाले धीर-वीर लोग महाप्रतापी राजा का आश्रय लेकर प्रजा को सुख देते और प्रकाश का मार्ग खोलते हैं ॥४
टिप्पणी
४−(वयः) पक्षिणः (न) यथा (वृक्षम्) (सुपलाशम्) सुपल्लवितम् (आ) आगत् (असदन्) प्राप्नुवन् (सोमासः) ऐश्वर्यवन्तः पुरुषाः (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं राजानम् (मन्दिनः) प्रजोरिनिः। पा० ३।२।१६। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-इनि प्रत्ययो बाहुलकात्। आनन्दयितारः (चमूषदः) चमूषु सेनासु सीदन्ति तिष्ठन्ति ये ते (प्र) प्रकर्षेण (एषाम्) ऐश्वर्यवताम् (अनीकम्) अन प्राणने-ईकन्। सैन्यम् (शवसा) बलेन (दविद्युतत्) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६। द्युत दीप्तौ-यङ्लुकि शतरि रूपसिद्धिः। भृशं दीप्यमानम् (विदत्) अविदत्। अलभत (स्वः) सुखम् (मनवे) मनुष्याय (ज्योतिः) तेजः (आर्यम्) श्रेष्ठम् ॥
विषय
'स्वः आर्य' ज्योतिः
पदार्थ
१. (न) = जैसे (वयः) = पक्षी (सुपलाशम्) = शोभन पर्णों [पत्तों] से युक्त (वृक्षम्) = वृक्ष पर (आसदन्) = असीन होते हैं, इसी प्रकार (मन्दिन:) = आनन्द का वर्धन करनेवाले (चमूषदः) = [चम्बो, द्यावापृथिव्योः] द्यावापृथिवी में-मस्तिष्क व शरीर में स्थित होनेवाले-इनको तेजस्वी व दीप्त बनानेवाले (सोमास:) = सोमकण (इन्द्रम) = जितेन्द्रिय पुरुष में (आसीन) = होते हैं। २. (एषाम) = इन चमूषद् सोमकणों का (अनीकम्) = बल [तेज] (शवसा) = शक्ति से (विद्युतत्) = चमक उठता है और मनवे विचारशील पुरुषों के लिए (स्व:) = सुख देनेवाली (आर्यम्) = श्रेष्ठ (ज्योतिः) = ज्ञानज्योति को प्रभु (विदत्) = प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
हमारे शरीर में सोमकण सुरक्षित होते हैं। वे जीवन को आनन्दप्रद बनाते हैं। इनसे शरीर तेजस्वी होता है और मस्तिष्क उत्तम ज्ञानज्योति से परिपूर्ण हो जाता है।
भाषार्थ
(न) जैसे (वयः) पक्षी (सुपलाशं वृक्षम्) उत्तम-पत्तोंवाले वृक्ष पर (आसदन्) आ बैठते हैं, वैसे (मन्दिनः) हर्षदायक (चमूषदः) भूलोक और द्युलोव्यापी (सोमासः) भक्तिरस (इन्द्रम्) परमेश्वर में (आसदन्) आकर स्थिर हो जाते हैं। (एषाम्) इन भक्तिरसों की (अनीकम्) प्राणदायिनी शक्ति, (शवसा) अपने-अपने पूर्ण बल में (प्र दविद्युतत्) प्रद्योतित हो रही है, चमक रही है। और इस प्राणदायिनी शक्ति ने (मनवे) मनुष्य के लिए (स्वः) सुख और (आर्यं ज्योतिः) परमेश्वरीय ज्योति (विदत्) प्राप्त कराई है।
टिप्पणी
[चमूषदः=“यस्य विश्व उपासते प्रशिषम्” (यजुः০ २५.१३) अर्थात् संसार के सब पदार्थ जिस परमेश्वर के उत्तम-शासन की उपासना में लगे हुए हैं। उपासना पद द्वारा समग्र विश्व में भक्तिरस की सत्ता का कथन किया। तथा “तस्येमे सर्वे यातव उप प्रशिषमासते” (अथर्व০ १३.४(३).२७); अर्थात् ये सब गतिमान् पदार्थ उस परमेश्वर के उत्तम-प्रशासनकी उपासना कर रहे हैं। ‘उपासना’ पद द्वारा इन गतिमान् पदार्थों में भक्तिरस की सत्ता का कथन किया है। चमू=द्यावापृथिव्यौ (निघं০ ३.३०)। अनीकम्=अन् प्राणने। आर्यम्=अर्यः ईश्वरः (निरु০ १३.१.४), तस्य ज्योतिः।]
विषय
परमेश्वरोपासना
भावार्थ
(न) जिस प्रकार (सुपलाशम्) सुन्दर हरे भरे पत्तों वाले (वृक्षम्) वृक्ष पर (वयः) पक्षीगण (आसदन्) आकर बैठते हैं उसी प्रकार (सुपलाशम्) उत्तम पालन सामर्थ्य से युक्त (इन्द्रम्) इन्द्र का (चमूषदः) सेनाओं में अच्छे अच्छे पदों पर विराजमान (मन्दिनः) सुप्रसन्न (सोमासः) सैनिकों को प्रेरणा करने हारे नेता पुरुष (आसदन्) आश्रय लेते हैं। (एषाम्) इनका (अनीकम्) बना हुआ सेनादल (शवसा) बल वीर्य से (प्र दविद्युतत्) खूब प्रकाशित होता है। और (मनवे) मननशील पुरुष को (स्वः) सुखकारक (आर्यम् ज्योतिः) श्रेष्ठ ज्योति, प्रकाश, द्रव्य, ऐश्वर्य (विदत्) प्राप्त कराता है। जीव ब्रह्म पक्ष में—वृक्ष पर जिस प्रकार पक्षी विराजते हैं उसी प्रकार (इन्द्रं) परमेश्वर का आश्रय लेकर (चमूषदः) ब्रह्मास्वाद में निरत (मन्दिनः) आनन्दरस से तृप्त (सोमासः) सोम्य स्वभाव वाले मुक्तजीव या विराजते हैं। (एषाम् अनीकं शवसा दविद्युतत्) उनका मुख या स्वरूप शव = ज्ञान से प्रकाशित होता है। वह (मनवे) मननशील पुरुष को (आर्यम् ज्योतिः) सर्वश्रेष्ठ ज्योति का (विदत्) लाभ कराता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Just as birds take to the tree of rich foliage for rest and replenishment of life energy, so does the soma cheer and energy of the sevenfold fluent streams of cosmic and individual systems take to Indra, the soul, for life and peace and joy. Then the expressive face of these shines with the splendour of Indra, and thus the living light of divinity descends in showers for the bliss of man. Just as birds take to the tree of rich foliage for rest and replenishment of life energy, so the soma cheer and energy of the sevenfold fluent streams of cosmic and individual systems take to Indra, the soul, for life and peace and joy. Then the expressive face of these shines with the splendour of Indra, and thus the living light of divinity descends in showers for the bliss of man.
Translation
As the birds rest on the tree covered with fair leaves so objects of this world which give delight and find their respective places on heaven and earth (chamuho) rest on Almighty God, the host of these shines with splendour and transmits noble deligtful light for man.
Translation
As the birds rest on the tree covered with fair leaves so the objects of this world which give delight and find their respective places on heaven and earth (chamuho) rest on Almighty God, the host of these shines with splendor and transmits noble delightful light for man.
Translation
Just as the birds sit on a tree, with good foliage, similarly do the happy military officers and the leaders thereof take shelter under the king. Their armies shme with the splendour of power and daring and shed pure light of peace and plenty on the common masses. Or In case of soul and God : Just as the birds perch on a tree, with large foliage, similarly do the revelling yogis, immersed in the bliss of God, take refuge under the Blissful God Their face shines with the Glory of God and shed an aura of pure spiritual light all around on the people in general.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(वयः) पक्षिणः (न) यथा (वृक्षम्) (सुपलाशम्) सुपल्लवितम् (आ) आगत् (असदन्) प्राप्नुवन् (सोमासः) ऐश्वर्यवन्तः पुरुषाः (इन्द्रम्) महाप्रतापिनं राजानम् (मन्दिनः) प्रजोरिनिः। पा० ३।२।१६। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-इनि प्रत्ययो बाहुलकात्। आनन्दयितारः (चमूषदः) चमूषु सेनासु सीदन्ति तिष्ठन्ति ये ते (प्र) प्रकर्षेण (एषाम्) ऐश्वर्यवताम् (अनीकम्) अन प्राणने-ईकन्। सैन्यम् (शवसा) बलेन (दविद्युतत्) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६। द्युत दीप्तौ-यङ्लुकि शतरि रूपसिद्धिः। भृशं दीप्यमानम् (विदत्) अविदत्। अलभत (स्वः) सुखम् (मनवे) मनुष्याय (ज्योतिः) तेजः (आर्यम्) श्रेष्ठम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বয়ঃ ন) যেভাবে সুন্দর পক্ষীগণ (সুপলাশম্) সুন্দর পাতাযুক্ত (বৃক্ষম্) বৃক্ষকে, [তেমনই] (মন্দিনঃ) আনন্দ প্রদানকারী, (চমূষদঃ) সেনাবাহিনীতে বর্তমান (সোমাসঃ) ঐশ্বর্যবান পুরুষ (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী সেনাপতি]কে (আ সদন্) এসে প্রাপ্ত হয়েছে। (শবসা) বলপূর্বক (এষাম্) এই [ঐশ্বর্যবানদের] (দবিদ্যুতৎ) অত্যন্ত চমকপ্রদ (অনীকম্) সেনাদল (মনবে) মনুষ্যদের জন্য (আর্যম্) উত্তম (স্বঃ) সুখ ও (জ্যোতিঃ) তেজ (প্র) উত্তমরূপে (বিদৎ) প্রাপ্ত করেছে।।৪।।
भावार्थ
পাখি যেমন সুন্দর ফল, পুষ্প ও ছায়াপ্রদায়ী বৃক্ষে বসে থাকে, তেমনই তীক্ষ্ণ অস্ত্রধারী ধৈর্যবান বীরগণ মহাপ্রতাপী রাজার আশ্রয় নিয়ে/গ্রহণ করে প্রজাদের সুখ প্রদান করে ও আলোর পথ উন্মুক্ত করে ।।৪।।
भाषार्थ
(ন) যেমন (বয়ঃ) পক্ষী (সুপলাশং বৃক্ষম্) উত্তম-পত্রযুক্ত বৃক্ষে (আসদন্) এসে বসে, তেমনই (মন্দিনঃ) হর্ষদায়ক (চমূষদঃ) ভূলোক এবং দ্যুলোব্যাপী (সোমাসঃ) ভক্তিরস (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের মধ্যে (আসদন্) এসে স্থির হয়। (এষাম্) এই ভক্তিরসের (অনীকম্) প্রাণদায়িনী শক্তি, (শবসা) নিজ-নিজ পূর্ণ বল/শক্তিতে (প্র দবিদ্যুতৎ) প্রদ্যোতিত হচ্ছে, চমকিত হচ্ছে। এবং এই প্রাণদায়িনী শক্তি (মনবে) মনুষ্যের জন্য (স্বঃ) সুখ এবং (আর্যং জ্যোতিঃ) পরমেশ্বরীয় জ্যোতি (বিদৎ) প্রাপ্ত করিয়েছে।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal