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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७
    54

    कृ॒तं न श्व॒घ्नी वि चि॑नोति॒ देव॑ने सं॒वर्गं॒ यन्म॒घवा॒ सूर्यं॒ जय॑त्। न तत्ते॑ अ॒न्यो अनु॑ वी॒र्यं शक॒न्न पु॑रा॒णो म॑घव॒न्नोत नूत॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒तम् । न । श्व॒ऽघ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । देव॑ने । स॒म्ऽवर्ग॑म् । यत् । म॒घऽवा॑ । सूर्य॑म् । जय॑त् ॥ न । तत् । ते॒ । अ॒न्य: । अनु॑ । वी॒र्य॑म् । श॒क॒त् । न । पु॒रा॒ण: । म॒घ॒ऽव॒न् । न । उ॒त । नूत॑न: ॥१७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्गं यन्मघवा सूर्यं जयत्। न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कृतम् । न । श्वऽघ्नी । वि । चिनोति । देवने । सम्ऽवर्गम् । यत् । मघऽवा । सूर्यम् । जयत् ॥ न । तत् । ते । अन्य: । अनु । वीर्यम् । शकत् । न । पुराण: । मघऽवन् । न । उत । नूतन: ॥१७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (न) जैसे (श्वघ्नी) धन नाश करनेवाला जुआरी (कृतम्) जीते धन को (देवने) जुए में (वि चिनोति) बटोर लेता है, [वैसे ही] (यत्) जब (मघवा) महाधनी [राजा] (सूर्यम्=सूर्यस्य) प्रेरणा करनेवाले [प्रधान] के (संवर्गम्) रोकनेवाले [शत्रु] को (जयत्) जीतता है, (तत्) तब (मघवन्) हे महाधनी ! [राजन्] (अन्यः) कोई दूसरा (ते) तेरे (वीर्यम्) वीरपन को (न) नहीं (अनु शकत्) पा सकता है, (न) न तो (पुराणः) कोई प्राचीन (उत) और (न)(नूतनः) कोई नवीन जन ॥॥

    भावार्थ

    वीर राजा अनुपम पराक्रम के साथ संग्राम में शत्रुओं को जीतकर प्रजा का पालन करें ॥॥

    टिप्पणी

    −(कृतम्) द्यूते प्राप्तं धनम् (न) यथा (श्वघ्नी) स्व+हन हिंसागत्योः-घञर्थे कप्रत्ययः। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। इनिप्रत्ययः, सकारस्य शः। श्वघ्नी कितवो भवति स्वं पुनराश्रितं भवति-निरु० ।२२। स्वस्य धनस्य नाशकः। कितवः। द्यूतकारकः (वि चिनोति) विविधं संगृह्णाति (देवने) द्यूते (संवर्गम्) वृजी वर्जने-घञ्, कुत्वम्। संवर्जयितारम् (यत्) यदा (मघवा) महाधनी (सूर्यम्) षष्ठ्यर्थे द्वितीया। सूर्यस्य। प्रेरकप्रधानस्य (जयत्) जयति (न) निषेधे (तत्) तदा (ते) तव (अन्यः) इतरः (वीर्यम्) वीरत्वम् (अनु शकत्) अनुकर्त्तुं शक्नोति (न) निषेधे (पुराणः) प्राचीनः (मघवन्) हे महाधनिन् (न) निषेधे (उत) अपि च (नूतनः) आधुनिकः ॥

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    विषय

    संवर्ग सूर्य का विजय

    पदार्थ

    १. (देवने) = जुए के खेल में (न) = जैसे (श्वघ्नी) = [कितवा]-जुआरी (कृतम्) = विजय के हेतु कृत नामक अक्ष [पासे] को (विचिनोति) = बटोर लेता है [संचित कर लेता है] इसी प्रकार (यत् मधवा) = जो ऐश्वर्यशाली प्रभु हैं, वे (संवर्गम्) = अन्धकार के संवर्तक (सूर्यम्) = सूर्य को (जयत्) = विजय करते हैं। प्रभु के हदयासीन होते ही ज्ञानसूर्य का उदय होता है और अज्ञानान्धकार का विलय हो जाता है। २. हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! (तत् ते वीर्यम्) = आपके उस पराक्रम को (अन्य:) = और कोई (न पुराण:) = न तो प्राचीन काल का व्यक्ति (उत) = और (न नूतनः) = न ही अर्वाचीन काल का व्यक्ति (अनु शकत्) = अनुकरण करने के लिए समर्थ होता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे लिए उस ज्ञानसूर्य का विजय करते हैं जो हमारे सब अन्धकार को विनष्ट कर देता है।

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    भाषार्थ

    (देवने जयत्) जूआ आदि दुष्कर्मों पर विजय पाता हुआ मनुष्य (श्वघ्नी) भविष्य में शुभ्र दिनों की प्राप्ति करता हुआ, (न) जैसे (कृतम्) सुकृतकर्मों का (वि चिनोति) विनिश्चय करता है, या विशेष चयन करता है, इसी प्रकार अन्धकार पर (जयत्) विजय पाता हुआ (मघवा) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (यत्) जो (संवर्गम्) अन्धकार का सम्यक् वर्जन करनेवाले (सूर्यम्) सूर्य को साधनरूप में विनिश्चित करता है, हे परमेश्वर! (तत्) उस (ते) आपके विनिश्चय और तत्सम्बन्धी (वीर्यम्) सामर्थ्य की (अनु) अनुकृति, (अन्यः न शकत्) अन्य कोई नहीं कर सकता। (मघवन्) हे ऐश्वर्यशाली परमेश्वर! (न पुराणः) न कोई पुराना व्यक्ति, और (न उत नूतनः) न कोई नया व्यक्ति।

    टिप्पणी

    [श्वघ्नी=श्वः (=कल जो आएगा)+घ्न (=हन् गतौ प्राप्तौ+इन्।) संवर्गम्=सम्+वृज् वर्जने।]

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    विषय

    परमेश्वरोपासना

    भावार्थ

    (देवने) जूए के खेल में (श्वघ्नी) अपना धन नाश करने वाला जुआखोर पुरुष (कृतं न) जिस प्रकार ‘कृत’ नाम के पासे को (वि चिनोति) विशेष रूप से प्राप्त करता है उसी प्रकार (यत्) जब (मघवा) ऐश्वर्यवान् प्रभु (संवर्गम्) सबको अपने साथ मिलाये रखने वाले (सूर्यम्) सूर्य को (जयत्) अपने वश करता है (तत्) तब (ते) तेरे उस (वीर्यम्) वीर्य को, हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् परमेश्वर ! (न पुराणः) न कोई पुरातन (न उत नूतनः) और न कोई नवीन पुरुष ही (अन्यः) दूसरा, तेरा विपरीतगामी (अनु शकत्) जीत सकता है ! राजा के पक्ष में—जुआरी जिस प्रकार सर्वविजयी कृत नाम के पासे को प्राप्त करता है। हे इन्द्र ! राजन् ! जब तू भी (संवर्गं सूर्यम्) सबको एकत्र मिलाये रखने में समर्थ, सूर्य के समान तेजस्वी सेनापति या विद्वान् पुरुष को (जयत्) प्राप्त कर लेता है तब न कोई पुराना और न कोई नया ही (ते अन्यः) तेरा शत्रु (ते तत् वीर्यं अनु शकत्) तेरे उस वीर्य पराक्रम का मुकाबला कर सकता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Just as a player in the game casts the die and wins and piles up his gains, so does Indra, lord omnipotent and omnificent, in this pleasure garden of the dynamics of existence, win over the sun and the rain bearing cloud. O Lord Almighty, no one else can possibly equal your might, no one old or new. Just as a player in the game casts the die and wins and piles up his gains, so does Indra, lord omnipotent and omnificent, in this pleasure garden of the dynamics of existence win over the sun and the rain bearing cloud. O lord almighty, no one else can possibly equal your might, no one old or new.

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    Translation

    As in the gem a gambler files his winings so, when All mighty God has under his control the sun assbeiateel with all other celestial bodies none else, either be ancient or be recent can equate him with your power O, Almighty one.

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    Translation

    As in the gem a gambler files his winnings so, when All mighty God has under his control the sun assbeiateel with all other celestial bodies none else, either be ancient or be recent can equate him with your power O, Almighty one.

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    Translation

    As the self-ruining gambler piles up his winnings, so does the darkness effacing Sun is won by the Lord of Fortunes. O Glorious God, none else, neither the old one, nor the new one, can subdue that Power of Thine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(कृतम्) द्यूते प्राप्तं धनम् (न) यथा (श्वघ्नी) स्व+हन हिंसागत्योः-घञर्थे कप्रत्ययः। अत इनिठनौ। पा० ।२।११। इनिप्रत्ययः, सकारस्य शः। श्वघ्नी कितवो भवति स्वं पुनराश्रितं भवति-निरु० ।२२। स्वस्य धनस्य नाशकः। कितवः। द्यूतकारकः (वि चिनोति) विविधं संगृह्णाति (देवने) द्यूते (संवर्गम्) वृजी वर्जने-घञ्, कुत्वम्। संवर्जयितारम् (यत्) यदा (मघवा) महाधनी (सूर्यम्) षष्ठ्यर्थे द्वितीया। सूर्यस्य। प्रेरकप्रधानस्य (जयत्) जयति (न) निषेधे (तत्) तदा (ते) तव (अन्यः) इतरः (वीर्यम्) वीरत्वम् (अनु शकत्) अनुकर्त्तुं शक्नोति (न) निषेधे (पुराणः) प्राचीनः (मघवन्) हे महाधनिन् (न) निषेधे (उत) अपि च (नूतनः) आधुनिकः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ন) যেমন (শ্বঘ্নী) ধনসম্পদ বিনষ্টকারী দ্যূতকর (কৃতম্) দ্যূতক্রিয়ার মাধ্যমে প্রাপ্ত ধন (দেবনে) দ্যূত-এ (বি চিনোতি) একত্রিত করে, [তেমনই] (যৎ) যখন (মঘবা) মহাধনী [রাজা] (সূর্যম্=সূর্যস্য) প্রেরণাদায়ক [প্রধান] এর (সংবর্গম্) বাধাদানকারী [শত্রু]কে (জয়ৎ) জয় করে, (তৎ) তখন (মঘবন্) হে মহাধনী! [রাজন্] (অন্যঃ) অন্য কেউ (তে) তোমার (বীর্যম্) বীরত্ব (ন) না (অনু শকৎ) অর্জন করতে পারে/সক্ষম, (ন) না (পুরাণঃ) কোনো প্রাচীন (উত)(ন) না (নতূনঃ) কোনো নবীন জন।।৫।।

    भावार्थ

    বীর রাজা অনুপম পরাক্রমপূর্বক সংগ্রামে শত্রুদের জয় করে প্রজাদের পালন করে/করুক।।৫।।

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    भाषार्थ

    (দেবনে জয়ৎ) জুয়া/দ্যূত আদি দুষ্কর্মের ওপর বিজয় প্রাপ্ত করে মনুষ্য (শ্বঘ্নী) ভবিষ্যতে শুভ্র দিনের প্রাপ্তি করে, (ন) যেমন (কৃতম্) সুকৃতকর্মের (বি চিনোতি) বিনিশ্চয় করে, বা বিশেষ চয়ন/নির্বাচন করে, তেমনই অন্ধকারের ওপর (জয়ৎ) বিজয় প্রাপ্ত (মঘবা) ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর (যৎ) যে (সম্বর্গম্) অন্ধকারের সম্যক্ বর্জনকারী (সূর্যম্) সূর্যকে সাধনরূপে বিনিশ্চিত/নির্ধারণ/নির্ধারিত করেন, হে পরমেশ্বর! (তৎ) সেই (তে) আপনার বিনিশ্চয়/নির্ণয় এবং তৎসম্বন্ধী (বীর্যম্) সামর্থ্যের (অনু) অনুকৃতি, (অন্যঃ ন শকৎ) অন্য কেউ করতে সক্ষম নয়। (মঘবন্) হে ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর! (ন পুরাণঃ) না কোনো পুরোনো ব্যক্তি, এবং (ন উত নূতনঃ) না কোনো নতুন ব্যক্তি।

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