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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-१७
    45

    विशं॑विशं म॒घवा॒ पर्य॑शायत॒ जना॑नां॒ धेना॑ अव॒चाक॑श॒द्वृषा॑। यस्याह॑ श॒क्रः सव॑नेषु॒ रण्य॑ति॒ स ती॒व्रैः सोमैः॑ सहते पृतन्य॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश॑म्ऽविशम् । म॒घऽवा॑ । परि॑ । अ॒शा॒य॒त॒ । जना॑नाम् । धेना॑: । अ॒व॒ऽचाक॑शत् । वृषा॑ ॥ यस्य॑ । अह॑ । श॒क्र: । सव॑नेषु । रण्य॑ति । स: । ती॒व्रै: । सोमै॑: । स॒ह॒ते॒ । पृ॒त॒न्य॒त: ॥१७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विशंविशं मघवा पर्यशायत जनानां धेना अवचाकशद्वृषा। यस्याह शक्रः सवनेषु रण्यति स तीव्रैः सोमैः सहते पृतन्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विशम्ऽविशम् । मघऽवा । परि । अशायत । जनानाम् । धेना: । अवऽचाकशत् । वृषा ॥ यस्य । अह । शक्र: । सवनेषु । रण्यति । स: । तीव्रै: । सोमै: । सहते । पृतन्यत: ॥१७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 17; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (मघवा) महाधनी, (वृषा) बलवान् [सेनापति] (जनानाम्) मनुष्यों की (धेनाः) वाणियों को (अवचाकशत्) ध्यान से देखता हुआ (विशंविशम्) मनुष्य-मनुष्य को (परि अशायत) पहुँचा है। (शक्रः) शक्तिमान् [सेनापति] (यस्य अह) जिसके ही (सवनेषु) यज्ञों के बीच (रण्यति) पहुँचता है, (सः) वह [मनुष्य] (तीव्रैः) पौष्टिक (सोमैः) सोमों [ऐश्वर्यों वा महौषधियों के रसों] से (पृतन्यतः) सेना चढ़ानेवाले [शत्रुओं] को (सहते) हराता है ॥६॥

    भावार्थ

    चतुर सेनापति समस्त प्रजा की पुकार सुनकर ऐसे-ऐसे उत्तम उपाय करे, जिससे प्रजागण ऐश्वर्यवान् और बलवान् होकर शत्रुओं को जीतें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(विशंविशम्) मनुष्यं मनुष्यम् (मघवा) महाधनी सेनापतिः (परि अशायत) शीङ् शयने णिचि-लङ्। प्राप्तवान् (जनानाम्) मनुष्याणाम् (धेनाः) वाणीः-निघ० १।११ (अवचाकशत्) अ० ६।८०।१। अव+काशृ दीप्तौ यङ्लुकि शतृ। भृशं पश्यन्-निघ० ३।११। (वृषा) महाबली (यस्य) पुरुषस्य (अह) एव (शक्रः) शक्तिमान् (सवनेषु) यज्ञेषु (रण्यति) रण गतौ शब्दे च दिवादिः। गच्छति। प्राप्नोति (सः) मनुष्यः (तीव्रैः) तीव्र स्थौल्ये-रक्। स्थूलैः। पौष्टिकैः (सोमैः) ऐश्वर्यैः। सदौषधिरसैः (सहते) अभिभवति (पृतन्यतः) पृतनां सेनामात्मन इच्छतः शत्रून् ॥

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    विषय

    तीनैः सोमैः सहते पृतन्यत:

    पदार्थ

    १. (मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (विशंविशं पर्यशायत) = प्रत्येक प्रजा में निवास करते हैं प्रभु सर्वव्यापक हैं। (वृषा) = सबपर सुखों का सेचन करनेवाले प्रभु (जनानाम्) = लोगों की (धेना:) = ज्ञानवाणियों को (अवचाकशत्) = प्रकाशित करते हैं। प्रभु उन्हें ज्ञान प्राप्त कराते हैं-हृदय में स्थित हुए-हुए प्रभु प्रेरणा द्वारा ज्ञान देनेवाले होते हैं। २. (शक्रः) = वह शक्तिमान् प्रभु (यस्य) = जिसके (सवनेषु) = यज्ञों में-अथवा जीवन के प्रातः, मध्याह्न व सायन्तन सवनों में (रण्यति) = रमण करते हैं, अर्थात् जो प्रभु को सदा स्मरण करता है, (स:) = वह पुरुष (तीरैः सोमैः) = शरीर में सुरक्षित अत्यन्त शक्तिप्रद सोमकणों के द्वारा (पृतन्यतः) = संग्राम की इच्छावाले शत्रुओं को (सहते) = पराभूत करता है।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे हृदयों में आसीन होकर ज्ञान की वाणियों का प्रकाश करते हैं। प्रभु स्मरण करनेवाला पुरुष सोम-रक्षण द्वारा काम-क्रोध आदि शत्रुओं व रोगों का पराभव करनेवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (विशंविशम्) प्रत्येक प्रजाजन में (मघवा) ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (पर्यशायत) पूर्णतया व्याप्त है। (वृषा) आनन्दरसवर्षी परमेश्वर (जनानाम्) प्रजाजनों की (धेनाः) बोलियों और बातचीत को (अवचाकशत्) जान रहा होता है। (शक्रः) शक्तिशाली परमेश्वर, (यस्य अह) जिस किसी उपासक के (सवनेषु) भक्तिरसों में (रण्यति) रमण करता है, उन्हें प्रसन्नता पूर्वक चाहता है। (सः) वह उपासक (तीव्रः सोमैः) अपने वेगवान् भक्तिरसों द्वारा (पृतन्यतः) कामादि की सेना को (सहते) पराभूत कर देता है।

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    विषय

    परमेश्वरोपासना

    भावार्थ

    (मघवा) वह परमैश्वर्यवान् राजा के समान (विशं विशं परि अशायत) प्रत्येक प्रजा को प्राप्त होता है। वह (वृषा) सब सुखों का सब रसों का वर्षक, मेघ के समान (जनानां) सब मनुष्यों की (धेनाः) स्तुतियों को (अवचाकशत्) सुनता, प्राप्त करता और उनपर दृष्टि रखता हैं। (यस्य सवनेषु) जिसके युद्ध के अवसरों में (शक्रः) वह शक्तिशाली परमेश्वर, सेनापति के समान (रण्यति) रमण करता है (सः) वह (तीव्रैः सोमैः) तीव्रगामी, सहायक विद्वान् के समान तीव्रज्ञान रसों से (पृतन्यतः) सेना द्वारा आक्रमण करने वाले शत्रुओं के समान भीतरी शत्रुओं को (सहते) वश कर लेता है, उनपर विजय पाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    The Lord of glory abides with all people of the world whosoever they be. The generous lord knows, listens and grants all prayers of the people. Whosoever the devotee whose yajnas the mighty one joins and enjoys, that celebrant wins over all his rivals and adversaries by the power of his ardent soma offerings of holy action in yajna. The lord of glory abides with all people of the world whosoever they be. The generous lord knows, listens and grants all prayers of the people. Whosoever the devotee whose yajnas the mighty one joins and enjoys, that celebrant wins over all his rivals and adversaries by the power of his ardent soma offerings of holy action in yajna.

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    Translation

    Almighty God pervadss the subjects each in each. He, the vigorous one has His watch over the words of all the people. He, the strongest and wisest one whomsoever, persuades in the Yajnas, he (that man) with potent creative powers vanquishes his internal foes the passion, averson etc.

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    Translation

    Almighty God pervades the subjects each in each. He, the vigorous one has His watch over the words of all the people. He, the strongest and wisest one whomsoever, persuades in the Yajnas, he (that man) with potent creative powers vanquishes his internal foes the passion, averson etc.

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    Translation

    All sorts of people have an easy access to the Lord of Fortunes. The Showerer of Blessings keeps in view all the calls of the people. The devotee, in whose mental sacrifices or spiritual struggles, the Almighty Father revels (he.,is pleased to help), puts down all the opposing forces of evil by strong, calming forces of the spirit.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(विशंविशम्) मनुष्यं मनुष्यम् (मघवा) महाधनी सेनापतिः (परि अशायत) शीङ् शयने णिचि-लङ्। प्राप्तवान् (जनानाम्) मनुष्याणाम् (धेनाः) वाणीः-निघ० १।११ (अवचाकशत्) अ० ६।८०।१। अव+काशृ दीप्तौ यङ्लुकि शतृ। भृशं पश्यन्-निघ० ३।११। (वृषा) महाबली (यस्य) पुरुषस्य (अह) एव (शक्रः) शक्तिमान् (सवनेषु) यज्ञेषु (रण्यति) रण गतौ शब्दे च दिवादिः। गच्छति। प्राप्नोति (सः) मनुष्यः (तीव्रैः) तीव्र स्थौल्ये-रक्। स्थूलैः। पौष्टिकैः (सोमैः) ऐश्वर्यैः। सदौषधिरसैः (सहते) अभिभवति (पृतन्यतः) पृतनां सेनामात्मन इच्छतः शत्रून् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মঘবা) মহাধনী, (বৃষা) বলবান্ [সেনাপতি] (জনানাম্) মনুষ্যদের (ধেনাঃ) বাণীসমূহকে (অবচাকশৎ) বিচারপূর্বক প্রত্যক্ষ করে (বিশংবিশম্) প্রত্যেক মনুষ্যদের (পরি অশায়ত) মাঝে পৌঁছেছে। (শক্রঃ) শক্তিমান [সেনাপতি] (যস্য অহ) যারই (সবনেষু) যজ্ঞের মাঝে (রণ্যতি) পৌঁছেছে/পৌঁছায়, (সঃ) সেই [মনুষ্য] পৌষ্টিক (সোমৈঃ) সোমসমূহ [ঐশ্বর্যসমূহ বা মহৌষধিসমূহের রস] দ্বারা (পৃতন্যতঃ) সেনা প্রেরক [শত্রুদের] (সহতে) পরাজিত করে।।৬।।

    भावार्थ

    চতুর সেনাপতি সমস্ত প্রজাদের আহ্বান শুনে এমন-এমন উত্তম উপায় অবলম্বন করে/করুক, যাতে প্রজাগণ ঐশ্বর্যবান ও বলবান হয়ে শত্রুদের জয় করে।।৬।।

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    भाषार्थ

    (বিশংবিশম্) প্রত্যেক প্রজার মধ্যে (মঘবা) ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর (পর্যশায়ত) পূর্ণরূপে ব্যাপ্ত। (বৃষা) আনন্দরসবর্ষী পরমেশ্বর (জনানাম্) প্রজাদের (ধেনাঃ) কথাবার্তা (অবচাকশৎ) জানেন/জ্ঞাত হন। (শক্রঃ) শক্তিশালী পরমেশ্বর, (যস্য অহ) যে উপাসকের (সবনেষু) ভক্তিরসে (রণ্যতি) রমণ করেন, প্রসন্নতা পূর্বক কামনা করেন। (সঃ) সেই উপাসক (তীব্রঃ সোমৈঃ) নিজের বেগবান্ ভক্তিরস দ্বারা (পৃতন্যতঃ) কামাদির সেনাকে (সহতে) পরাভূত করে দেয়।

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