अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 8
वृषा॒ न क्रु॒द्धः प॑तय॒द्रजः॒स्वा यो अ॒र्यप॑त्नी॒रकृ॑णोदि॒मा अ॒पः। स सु॑न्व॒ते म॒घवा॑ जी॒रदा॑न॒वेऽवि॑न्द॒ज्ज्योति॒र्मन॑वे ह॒विष्म॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । न । क्रु॒ध्द: । प॒त॒य॒त् । रज॑:ऽसु । आ । य: । अ॒र्यऽप॑त्नी: । अकृ॑णोत् । इ॒मा: । अ॒प: ॥ स: । सु॒न्व॒ते । म॒घऽवा॑ । जी॒रदा॑नवे । अवि॑न्दत् । ज्योति॑: । मन॑वे । ह॒विष्म॑ते ॥१७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा न क्रुद्धः पतयद्रजःस्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः। स सुन्वते मघवा जीरदानवेऽविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । न । क्रुध्द: । पतयत् । रज:ऽसु । आ । य: । अर्यऽपत्नी: । अकृणोत् । इमा: । अप: ॥ स: । सुन्वते । मघऽवा । जीरदानवे । अविन्दत् । ज्योति: । मनवे । हविष्मते ॥१७.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(क्रुद्धः) क्रुद्ध (वृषा न) बैल के समान, (यः) जो [सेनापति] (रजःसु) देशों में (आ पतयत्) झपट पड़ता है, और [जिसने] (इमाः) इन (अपः) प्रजाओं को (अर्यपत्नीः) स्वामी से रक्षित (अकृणोत्) किया है। (सः) उस (मघवा) महाधनी [सेनापति] ने (सुन्वते) तत्त्व निचोड़नेवाले, (जीरदानवे) शीघ्रदानी और (हविष्मते) ग्राह्य पदार्थोंवाले (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (ज्योतिः) प्रकाश को (अविन्दत्) पाया है ॥८॥
भावार्थ
पराक्रमी सेनापति शत्रुओं को यथावत् दण्ड देकर प्रजा की रक्षा करे और राजभक्तों को यथोचित ऊँचा करके प्रतापी बनावे ॥८॥
टिप्पणी
८−(वृषा) बलीवर्दः (न) यथा (क्रुद्धः) कुपितः (पतयत्) पतयति पतति शीघ्रं धावति (रजःसु) देशेषु (आ) समन्तात् (यः) सेनापतिः (अर्यपत्नीः) अर्येण स्वामिना पालिताः (अकृणोत्) अकरोत् (इमा) दृश्यमानाः (अपः) प्राप्ताः प्रजाः (सः) (सुन्वते) तत्त्वस्य निष्पादयित्रे (मघवा) महाधनी (जीरदानवे) अ० ७।१८।२। शीघ्रदानिने (अविन्दत्) अलभत (ज्योतिः) प्रकाशम् (मनवे) मननवते पुरुषाय (हविष्मते) ग्राह्यपदार्थयुक्ताय ॥
विषय
सुन्वते-जीरदानवे-हविष्मते मनवे
पदार्थ
१. वह (वृषा) = सुखों का सेचन करनेवाला, (न क्रुद्धः) = कभी कुद्ध न होनेवाला प्रभु (रजः सु) = सब लोकों में (आपतयत्) = समन्तात् गति व प्रासिवाले होते हैं। सदा सर्वत्र वर्तमान वे प्रभु सखों का वर्षण करते हैं। (य:) = जिस प्रभु ने (इमाः अप:) = इन रेत:कणरूप जलों को (अर्यपत्नी:) = जितेन्द्रिय [इन्द्रियों के स्वामी] पुरुष की पत्नी के रूप में पालन करनेवाला (अकृणोत्) = किया है। सोमकणों के रक्षण से ये उस रक्षक का रक्षण करनेवाले होते हैं। २. (सः मघवा) = वे ऐश्वर्यशाली प्रभु (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले-शरीर में सोम का सम्पादन करनेवाले (जीरदानवे) = क्षिप्रदान पुरुष के लिए, तुरन्त दान करनेवाले पुरुष के लिए (हविष्मते) = यज्ञशील व (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए (ज्योतिः अविन्दत) = ज्योति प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
सब लोकों में प्रास होते हुए प्रभु सुखों का वर्षण करते हैं। जितेन्द्रिय पुरुष के जीवन में सोमकणरूप जलों को रक्षक के रूप में प्राप्त कराते हैं। इस सोम का सम्पादन करनेवाले, क्षिप्रदानी, यज्ञशील पुरुष के लिए ज्योति देते हैं।
भाषार्थ
(यः) जिस परमेश्वर ने (स्वाः) अपने (इमाः) इन (अर्यपत्नीः) परमेश्वर द्वारा पालित (अपः) सात प्राणों को (अकृणोत्) रचा है, उसने ही अब (रजः) इन प्राणों के रजोगुणों को (पतयत्) गिरा दिया है, हटा दिया है। (न) जैसे कि (क्रुद्धः) क्रुद्ध हुआ (वृषा) बैल (रजः) मिट्टी को उखाड़ फैंकता है। (सुन्वते) भक्तिरस से सम्पन्न, (हविष्मते) भक्तिरस को हविरूप में लिए हुए, (जीरदानवे) और शीघ्रता से इस हवि को समर्पित कर देनेवाले (मनवे) मननशील उपासक के लिए (सः मघवा) वह ऐश्वर्यशाली परमेश्वर (ज्योतिः) अपनी ज्योति (अविन्दत्) प्रकट कर देता है।
टिप्पणी
[अपः=“आपः आपनानि, षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (निरु০ १२.४.३७)। जीराः=क्षिप्रनाम (निघं০ २.१५)।]
विषय
परमेश्वरोपासना
भावार्थ
(यः) जो इन्द्र परमेश्वर (क्रुद्धः वृषा न) गुस्से में आये हुए महा वृषभ के समान अति वेगवान् होकर (रजः सु) समस्त लोकों में (आपतयत्) व्याप्त हो रहा है और उनको तीव्रगति से चला रहा है और (यः) जो (इमाः अपः) इन समस्त लोकों को या इन समस्त (अपः) प्रकृति की व्यापक शक्तियों को (अर्यपत्नीः अकृणोत्) स्वामी की पत्नियों के समान परमेश्वर स्वयं स्वामीरूप होकर उनको अपनी पालक शक्तियां बना लेता है। (सः) वह (मघवा) परमैश्वर्यवान् (सुन्वते) स्तुति करने हारे (जीरदानवे मनवे) मननशील (हविष्मते) ज्ञानवान् (जीरदानवे) जीव को (ज्योतिः) परम ज्ञानमय ज्योतिः अर्थात् अपने प्रकाशमय स्वरूप का (अविन्दत्) लाभ कराता है। राजा के पक्ष में—(यः रजःसु क्रुद्धः वृषा न आपतयत्) जो देश देशान्तरों पर क्रुद्ध हुए बैल के समान भीषण होकर चढ़ाई करता है और (अपः अर्यपत्नीः अकृणोत्) आप्त प्रजाओं को एक स्वामी की स्त्रियों के समान भोग्य प्रजाएं, अथवा एक ही स्वामी या प्रभु को पालने वाली विशाल राष्ट्र शक्ति में संगठित कर देता है (सः) वह (सुन्वते) अपना अभिषेक करने वाले (हविष्मते) अन्न आदि को कर रूप से देने वाले (जीरदानवे) चेतनाशील (मनंव) मानव समाज को (ज्योतिः अविन्दत्) परम ऐश्वर्य प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१० कृष्ण ऋषिः। १२ वसिष्ठः। इन्द्रो देवता। १-१० जगत्यः। ११,१२ त्रिष्टुभौ। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Just as the swelling cloud causes the vapours of water in the skies to be released of itself and lets these showers of rain fall upon the earth, so does Indra, lord of glorious generosity, bring showers of light and bliss for the generous man of charity who offers the homage of soma to the lord for humanity. 8. Just as the swelling cloud causes the vapours of water in the skies to be released of itself and lets these showers of rain fall upon the earth, so does Indra, lord of glorious generosity, bring showers of light and bliss for the generous man of charity who offers the homage of soma to the lord for humanity.
Translation
Almighty God who is the master of all wealth, who like an infuriated bull permeates through the world who make these atoms of matter the dames of worthy master, bestows light on the man who prays him, gives gifts to others and perform the Yajna.
Translation
Almighty God who is the master of all wealth, who like an infuriated bull permeates through the world who make these atoms of matter the dames of worthy master, bestows light on the man who prays him, gives gifts to others and perform the Yajna.
Translation
He, who makes these natural forces, the controlled protective powers of the master, Himself, pervades all the regions like a furious bull. He, the Lord of Riches, displays His Brilliance to the living person, who offers his oblations, with devotion and prayers
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(वृषा) बलीवर्दः (न) यथा (क्रुद्धः) कुपितः (पतयत्) पतयति पतति शीघ्रं धावति (रजःसु) देशेषु (आ) समन्तात् (यः) सेनापतिः (अर्यपत्नीः) अर्येण स्वामिना पालिताः (अकृणोत्) अकरोत् (इमा) दृश्यमानाः (अपः) प्राप्ताः प्रजाः (सः) (सुन्वते) तत्त्वस्य निष्पादयित्रे (मघवा) महाधनी (जीरदानवे) अ० ७।१८।२। शीघ्रदानिने (अविन्दत्) अलभत (ज्योतिः) प्रकाशम् (मनवे) मननवते पुरुषाय (हविष्मते) ग्राह्यपदार्थयुक्ताय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ক্রুদ্ধঃ) ক্রুদ্ধ (বৃষা ন) বলদের/বৃষ-এর ন্যায়, (যঃ) যে [সেনাপতি] (রজঃসু) দেশেগুলোতে (আ পতয়ৎ) ঝাঁপিয়ে পড়ে, এবং [যে] (ইমাঃ) এই (অপঃ) প্রজাদের (অর্যপত্নীঃ) স্বামী দ্বারা রক্ষিত (অকৃণোৎ) করেছে। (সঃ) সেই (মঘবা) মহাধনী [সেনাপতি] (সুন্বতে) তত্ত্ব অনুসন্ধানী/নিষ্পাদনকারী, (জীরদানবে) শীঘ্রদানী ও (হবিষ্মতে) গ্রাহ্য পদার্থযুক্ত (মনবে) মননশীল মনুষ্যদের জন্য (জ্যোতিঃ) প্রকাশ (অবিন্দৎ) প্রাপ্ত হয়েছে।।৮।।
भावार्थ
পরাক্রমশালী সেনাপতি শত্রুদের যথাযথ শাস্তি দিয়ে প্রজাদের রক্ষা করুক এবং রাজভক্তদের যথোচিত উচ্চ করে প্রতাপী করুক।।৮।।
भाषार्थ
(যঃ) যে পরমেশ্বর (স্বাঃ) নিজের (ইমাঃ) এই (অর্যপত্নীঃ) পরমেশ্বর দ্বারা পালিত (অপঃ) সাত প্রাণ (অকৃণোৎ) রচনা করেছেন, তিনিই এখন (রজঃ) এই প্রাণ-সমূহের রজোগুণ (পতয়ৎ) পতিত করেছেন, দূর করেছেন। (ন) যেমন (ক্রুদ্ধঃ) ক্রুদ্ধ (বৃষা) বলদ (রজঃ) মাটি খুঁড়ে। (সুন্বতে) ভক্তিরসসম্পন্ন, (হবিষ্মতে) ভক্তিরস হবিরূপে প্রাপ্ত, (জীরদানবে) এবং শীঘ্রতাপূর্বক এই হবি সমর্পণকারী (মনবে) মননশীল উপাসকের জন্য (সঃ মঘবা) সেই ঐশ্বর্যশালী পরমেশ্বর (জ্যোতিঃ) নিজ জ্যোতি (অবিন্দৎ) প্রকট করেন।
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