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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१९
    59

    अ॑र्वा॒चीनं॒ सु ते॒ मन॑ उ॒त चक्षुः॑ शतक्रतो। इन्द्र॑ कृ॒ण्वन्तु॑ वा॒घतः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्वा॒चीन॑म् । सु । ते॒ । मन॑: । उ॒त । चक्षु॑: । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥ इन्द्र॑ । कृ॒ण्वन्तु॑ । वा॒घत॑: ॥१९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो। इन्द्र कृण्वन्तु वाघतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाचीनम् । सु । ते । मन: । उत । चक्षु: । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ इन्द्र । कृण्वन्तु । वाघत: ॥१९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (शतक्रतो) हे सैकड़ों कर्मों वा बुद्धियोंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवान् राजन्] (वाघतः) निबाहनेवाले बुद्धिमान् लोग (ते) तेरे (मनः) मन (उत) और (चक्षुः) नेत्र को (अर्वाचीनम्) हमारी ओर आनेवाला (सु) आदर के साथ (कृण्वन्तु) करें ॥२॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् लोग चतुर पुरुषार्थी राजा को प्रजापालन आदि शुभ गुणों में प्रवृत्त करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अर्वाचीनम्) अस्मदभिमुखीगतम् (सु) पूजायाम् (ते) तव (मनः) चित्तम् (उत) अपि च (चक्षुः) नेत्रम् (शतक्रतो) क्रतुः कर्मनाम-निघ० २।१। प्रज्ञानाम ३।९। हे बहुकर्मन् ! हे बहुप्रज्ञ (इन्द्र) (कृण्वन्तु) कुर्वन्तु (वाघतः) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। वह प्रापणे-अतिप्रत्ययः, उपधावृद्धिर्हस्य घः। निर्वाहकाः मेधाविनः-निघ० ३।१ ॥

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    विषय

    यज्ञशीलता तथा प्रभु-कृपा-पात्रता

    पदार्थ

    १. हे (शतक्रतो) = अनन्त शक्ति व प्रज्ञानबाले प्रभो! (वाघत:) = यज्ञ आदि उत्तम कर्मों का वहन करनेवाले ऋत्विज लोग (ते मन:) = आपके मन को (सु) = सम्यक (अर्वाचीनम) = अपने अभिमख (कृण्वन्तु) = करनेवाले हों २. (उत) = और, हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (चक्षुः) = आपकी आँख को ये ऋत्विज अपने अभिमुख करनेवाले हों।

    भावार्थ

    यज्ञशीलपुरुष ही प्रभु की कृपा के पात्र बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (शतक्रतो) हे सर्वशक्तिमन् या सैकड़ों अद्भुत कर्मोंवाले! (इन्द्र) हे परमेश्वर! (वाघतः) उपासना-यज्ञ के ऋत्विक् (ते) आपके (मनः) मन को (उत) और (चक्षुः) आपकी कृपादृष्टि को (अर्वाचीनम्) हमारी ओर अर्थात् हम शिष्य उपासकों की ओर (सु) सुगमतापूर्वक (कृण्वन्तु) कर दें। अर्थात् वे ऋत्विक् हमें साधनामार्ग पर प्रेरित करें। ताकि आपकी कृपादृष्टि हम नव-उपासकों की ओर भी हो सके।

    टिप्पणी

    [वाघतः=ऋत्विजः (निघं০ ३.१५)।]

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    विषय

    परमेश्वर और राजा की शरणप्राप्ति।

    भावार्थ

    हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों और प्रजाओं वाले ! हे (इन्द) ऐश्वर्यवन् ! (वाघतः) स्तुति करने हारे भक्त जन (ते मनः उत चक्षुः) तेरी शुभ चित्त और कृपामय दुष्टि के (सु अर्वाचीनं कृण्वन्तु) उत्तम रीति से अपने अभिमुख करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Indra, lord destroyer of evil and enemies, hero of a hundred acts of yajnic creation and development, may the sages of vision, imagination and effective communication refresh and update your mind and eye with foresight so that you face the challenges of the present time successfully.

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    Translation

    O Almighty God, you are endowed with hundred powers and operations. Let these devotees of yours make their spirit and eye upto date and upto standard.

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    Translation

    O Almighty God, you are endowed with hundred powers and operations. Let these devotees of yours make their spirit and eye upto date and upto standard.

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    Translation

    O mighty God, king, commander or electricity, the Performer of hundred sacrifices we draw thy mind and eyes towards us by our praise-songs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अर्वाचीनम्) अस्मदभिमुखीगतम् (सु) पूजायाम् (ते) तव (मनः) चित्तम् (उत) अपि च (चक्षुः) नेत्रम् (शतक्रतो) क्रतुः कर्मनाम-निघ० २।१। प्रज्ञानाम ३।९। हे बहुकर्मन् ! हे बहुप्रज्ञ (इन्द्र) (कृण्वन्तु) कुर्वन्तु (वाघतः) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। वह प्रापणे-अतिप्रत्ययः, उपधावृद्धिर्हस्य घः। निर्वाहकाः मेधाविनः-निघ० ३।१ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শতত্রুতো) হে বহু কর্ম বা বুদ্ধিযুক্ত (ইন্দ্র) ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান্ রাজন] (বাঘতঃ) নির্বাহক বুদ্ধিমানগণ (তে) তোমার (মনঃ) মন (উত) এবং (চক্ষুঃ) নেত্রকে (অর্বাচীনম্) আমাদের অভিমুখগামী (সু) আদরপূর্বক (কৃণ্বন্তু) করুক।।২।।

    भावार्थ

    বুদ্ধিমানগণ চতুর পুরুষার্থী রাজাকে প্রজাপালন আদি শুভ গুণকর্মে প্রবৃত্ত করতে থাকুক।।২।।

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    भाषार्थ

    (শতক্রতো) হে সর্বশক্তিমান্ বা শত অদ্ভুত কর্মশীল/কর্মযুক্ত! (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (বাঘতঃ) উপাসনা-যজ্ঞের ঋত্বিক্ (তে) আপনার (মনঃ) মন (উত) এবং (চক্ষুঃ) আপনার কৃপাদৃষ্টি (অর্বাচীনম্) আমাদের দিকে অর্থাৎ আমাদের শিষ্য উপাসকের দিকে (সু) সুগমতাপূর্বক (কৃণ্বন্তু) করুক। অর্থাৎ সেই ঋত্বিক্ আমাদের সাধনামার্গে প্রেরিত করুখ। যাতে আপনার কৃপাদৃষ্টি আমাদের [নব-উপাসকদের] দিকেও হয়।

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