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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदो मेधातिथिर्वा देवता - द्रविणोदाः छन्दः - एकवसाना साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-२
    89

    दे॒वो द्र॑विणो॒दाः पो॒त्रात्सु॒ष्टुभः॑ स्व॒र्कादृ॒तुना॒ सोमं॑ पिबतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व: । द्र॒वि॒ण॒:ऽदा: । पो॒त्रात् । सु॒ऽस्तुभ॑: । सु॒ऽअ॒र्कात् । ऋ॒तुना॑ । सोम॑म् । पि॒ब॒तु॒ ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो द्रविणोदाः पोत्रात्सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देव: । द्रविण:ऽदा: । पोत्रात् । सुऽस्तुभ: । सुऽअर्कात् । ऋतुना । सोमम् । पिबतु ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के व्यवहार का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवः) विद्वान् (द्रविणोदाः) धन वा बल का दाता पुरुष (सुष्टुभः) बड़े स्तुतियोग्य, (स्वर्कात्) बड़े पूजनीय (पोत्रात्) पवित्र व्यवहार से (ऋतुना) ऋतु के अनुसार (सोमम्) उत्तम ओषधियों के रस को (पिबतु) पीवे ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग सुपात्रों को योग्य दान देकर सुख को प्राप्त होवें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(देवः) विद्वान् (द्रविणोदाः) द्रविणशब्दस्य सकार उपजनः, ददातेरसुनि बाहुलकादाकारलोपः। द्रविणोदाः कस्माद्धनं द्रविणमुच्यते यदेनदभिद्रवन्ति बलं वा द्रविणं यदेनेनाभिद्रवन्ति तस्य दाता द्रविणोदाः-निरु० ८।१। धनस्य बलस्य वा दाता। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    देव: द्रविणोदा! [ दानवृत्ति]

    पदार्थ

    १. (देवः) = सब-कुछ देनेवाला देववृत्ति का पुरुष (द्रविणोदा:) = धनों को देनेवाला बनता है। यह धनों के दान से ही (पोत्रात्) = अपने जीवन को पवित्र बनाने के कर्म के द्वारा (ऋतुना) = समय रहते (सोमं पिबतु) = सोम का पान करे। धन का दान ही हमारे जीवन को पवित्र बनाता है, अन्यथा वह विषय-विलास में मग्न करके हमें विनष्ट कर देता है। २. यह धनों का दान करनेवाला (सुष्टुभः) = वासनाओं को रोकने के द्वारा तथा (स्वर्कात्) = उत्तम ज्ञानरश्मियों व प्रभु-पूजन के द्वारा सोम का रक्षण करे।

    भावार्थ

    हम देव बनें-धनों का दान करनेवाले हों। अन्यथा ये धन हमें विषयासक्त कर डालेंगे। दान से जीवन को पवित्र बनाकर, वासनाओं के निरोध व प्रभु-पूजन के द्वारा हम सोम को सुरक्षित रक्खें।

    सूचना

    ऋग्वेद २.३७.१ में पोत्रात् के स्थान में शब्द ही होत्रात् है, अर्थात् धन का तो होत्र-दान ही करना है। दान ही धन की गति का सात्त्विक मार्ग है। 'दानं भोगो नाशस्तिलो गतयो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुड़े तस्य तृतीया गतिर्भवति ।

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    भाषार्थ

    (द्रविणोदाः) आध्यात्मिक-बल और आध्यात्मिक-धनरूपी विभूतियों का प्रदाता (देवः) परमेश्वर-देव, (पोत्रात्) पवित्र (सुष्टुभः) उत्तम-स्तुतियोंवाले, (स्वर्कात्) उत्तम-अर्चना के साधनभूत मन्त्रों का स्वाध्याय और जप करनेवाले उपासक से (ऋतुना) ऋतु-ऋतु के अनुसार (सोमम्) भक्तिरस का (पिबतु) पान करे।

    टिप्पणी

    [द्रविणम्=“धनं द्रविणमुच्यते यदेनमभिद्रवन्ति। बलं वा द्रविणं यदनेनाभिद्रवन्ति, तस्य दाता” (निरु० ८.१.१)। परमेश्वर जिन उपासकों के भक्तिरसों को स्वीकार करता है, वे या तो मन-वचन-कर्म से पवित्र होने चाहिएँ, या ज्ञानाग्नि-सम्पन्न होने चाहिएँ, ब्रह्मद्रष्टा होने चाहिएँ।]

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    विषय

    परमेश्वर की उपासना।

    भावार्थ

    (द्रविणोदाः) द्रविण, ज्ञान और धन का प्रदाता (देवः) विद्वान् पुरुष (सुस्तुभः स्वर्कात्) उत्तम स्तुति योग्य परम पूजनीय, अर्चनीय (पोत्रात्) सबके परम पावन परमेश्वर से (ऋतुना) अपने ज्ञान और प्राण सामर्थ्य से (सोमं पिबतु) सोमरस का पान करे।

    टिप्पणी

    (१) द्यावा पृथिव्यौ वा एष यदाग्नीध्रः। श० १। ६। १। ४१। अन्तरिक्षम् अग्नीघ्रम्। तै० २। १। ५। १। बाहू वा अस्य यज्ञस्य आग्नीघ्रीयश्च मार्जालीयश्च। श० ३। १। ३। ४॥ (२) ‘ब्रह्मणात्’—ब्राह्मणो वै सर्वाः देवताः। तै० १। ४। ४। २, ४ ब्रह्मणो वा एतत् रूपं यद ब्राह्मणः। श०। १३। १। १। २। ब्राह्मणो वै प्रजानानुपदष्टा। श०। २। २। ७। ३॥ (३) ‘द्रविणोदाः’ - प्राणावै देवो द्रविणोदाः। श०६। ७। २। ३॥ द्रविणोदाः इति द्रविणं ह्येभ्यो ददाति। श० ६। ३। ३। ३। १३। अर्थात्—(१) जिस प्रकार वायुगण सूर्य से केवल ऋतु के अनुसार सोम-जल को ग्रहण करते हैं उसी प्रकार प्राणगण अपने आत्मा से अपने सामर्थ्यानुसार बल प्राप्त करें। उसी प्रकार विद्वान् गण स्तुत्य परमेश्वर से अपने ज्ञान सामर्थ्य के अनुसार सोम, ज्ञान और बल प्राप्त करें। (२) अग्नि जिस प्रकार सूर्य से अपना तेज ग्रहण करता है उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष उस परमस्तुत्य समस्त अग्नियों के आश्रय परमेश्वर से अपने बल के अनुसार सोम, ज्ञानमय प्रकाश प्राप्त करे। (३) महान् शक्तिमान् इन्द्र विद्युत् जिस प्रकार महान् शक्तिमय सूर्य से जैसे अपने ऋतु के अनुसार बल वीर्य प्राप्त करता है उसी प्रकार ऐश्वर्यवान् वेदज्ञ पुरुष समस्त देवतामय, सर्वं शक्तिमान् परमेश्वर से अपने बल सामर्थ्यानुसार बल और ज्ञान प्राप्त करे। (४) अग्नि या मेघ जिस प्रकार सूर्य से अपने ऋतु के अनुसार जल धारण करता है उसी प्रकार ज्ञान और सम्पत्ति का देने वाला दानी पुरुष भी सबके देने वाले (होत्रात्) सर्वप्रद परमेश्वर से (सोमं) ज्ञानी ऐश्वर्य को प्राप्त करे। होवानसोमं द्रविणोद पिब ऋतुभिः। ऋ० २। ३७। १॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समदो मेधातिथिर्वा ऋषिः। मरुदिन्द्राग्निर्द्रविणोदाः देवताः। १, २ विराड गायत्र्यौ। आर्ष्युष्णिक्। ४ साम्नी त्रिष्टुप्। चतुऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Paramatma

    Meaning

    Let the divine, brilliant and generous Dravinoda, producer and giver of substantial wealth, accept soma from the holy vessel of the pure heart’s love sanctified by the chant of sacred Rks, in accordance with the seasons.

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    Translation

    Let the shining Dravinoda (electricity in the cloud) drink the juice of herbs from the praisewothy extolled Potra according to the season. N. B. :—Marutah, Agni, Indra and Dravinodas are the Devas of Yajna and Potra, Agnidhra, Brahmana, are the priests of Yajna. So according to season the oblations are grasped by these Devas from the priests of the Yajna.

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    Translation

    Let the shining Dravinoda (electricity in the cloud) drink the juice of herbs from the praiseworthy extolled Potra according to the season. [N. B. :—Marutah, Agni, Indra and Dravinodas are the Devas of Yajna and Potra, Agnidhra, Brahmana, are the . priests of Yajna. So according to season the oblations are grasped by these Devas from the priests of the Yajna.]

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    Translation

    Let the learned donor of riches drink the essence of herbs suitable to the season from the purifying, praiseworthy and respectable physician, possessing knowledge of Ayurveda.

    Footnote

    Rig, 1.15.5.6, Rig, 1.15. (8, 9, 10).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(देवः) विद्वान् (द्रविणोदाः) द्रविणशब्दस्य सकार उपजनः, ददातेरसुनि बाहुलकादाकारलोपः। द्रविणोदाः कस्माद्धनं द्रविणमुच्यते यदेनदभिद्रवन्ति बलं वा द्रविणं यदेनेनाभिद्रवन्ति तस्य दाता द्रविणोदाः-निरु० ८।१। धनस्य बलस्य वा दाता। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    বিদুষাং ব্যবহারোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দেবঃ) বিদ্বান (দ্রবিণোদাঃ) ধন অথবা বলদাতা পুরুষ (সুষ্টুভঃ) অত্যন্ত স্তুতিযোগ্য, (স্বর্কাৎ) অত্যন্ত পূজনীয় (পোত্রাৎ) পবিত্র ব্যবহারের মাধ্যমে (ঋতুনা) ঋতু অনুসারে (সোমম্) উত্তম ঔষধিসমূহের রস (পিবতু) পান করুক॥৪

    भावार्थ

    বিদ্বানগণ যোগ্য ব্যক্তিদের যোগ্য দান করে সুখ প্রাপ্ত হোক॥৪॥

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    भाषार्थ

    (দ্রবিণোদাঃ) আধ্যাত্মিক-বল এবং আধ্যাত্মিক-ধনরূপী বিভূতির প্রদাতা (দেবঃ) পরমেশ্বর-দেবতা, (পোত্রাৎ) পবিত্র (সুষ্টুভঃ) উত্তম-স্তুতিযুক্ত, (স্বর্কাৎ) উত্তম-অর্চনার সাধনভূত মন্ত্র-সমূহের স্বাধ্যায়ী এবং জপকারী উপাসক হতে (ঋতুনা) প্রত্যেক ঋতুর অনুসারে (সোমম্) ভক্তিরসের (পিবতু) পান করেন।

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