अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दुदु॒ह्रे व॒ज्रिणे॒ मधु॑। यत्सी॑मुपह्व॒रे वि॒दत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । गाव॑: । आ॒ऽशिर॑म् । दु॒दु॒ह्रे । व॒ज्रिणे॑ । मधु॑ । यत् । सी॒म् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । वि॒दत् ॥२२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु। यत्सीमुपह्वरे विदत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । गाव: । आऽशिरम् । दुदुह्रे । वज्रिणे । मधु । यत् । सीम् । उपऽह्वरे । विदत् ॥२२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(वज्रिणे) वज्रधारी (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले राजा] के लिये (गावः) वेदवाणियों ने (आशिरम्) सेवने वा पकाने योग्य पदार्थ [दूध, दही, घी आदि] को और (मधु) मधुविद्या [यथार्थ ज्ञान] को (दुदुह्रे) भर दिया है। (यत्) जब कि उसने [उन वेदवाणियों] को (उपह्वरे) अपने पास (सीम्) सब प्रकार (विदत्) पाया ॥६॥
भावार्थ
ऐश्वर्यवान् पुरुष वेदवाणियों से सुशिक्षित होकर दूध आदि भोग्य पदार्थ प्राप्त करके यथार्थ ज्ञान बढ़ावे ॥६॥
टिप्पणी
६−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते राज्ञे (गावः) वेदवाण्यः (आशिरम्) अपस्पृधेथामानृचु०। पा० ६।१।३६। आङ्+श्रिञ् सेवायां श्रीञ् पाके वा-क्विप्, धातोः शिर इत्यादेशः। यद्वा। अशेर्नित्। उ० १।२। आङ्+अश भोजने अशू व्याप्तौ वा-किरन् नित्। आशीराश्रयणाद् वाश्रपणाद् वा, अथेयमितराशीराशास्तेः-निरु० ६।८। आश्रययोग्यं परिपाकयोग्यं वा दुग्धदधिघृतादिपदार्थम् (दुदुह्रे) दुह प्रपूरणे लिटि रुट्। दुदुहिरे। पूरितवत्यः (वज्रिणे) वज्रधारिणे (मधु) मधुविद्याम्। यथार्थज्ञानम् (यत्) यदा (सीम्) अवितॄस्तृ० तु० ३।१९। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। सीमिति परिग्रहार्थीयो वा पदपूरणो वा सर्वत इति वा-निरु० १।७। सर्वतः (उपह्वरे) उप+ह्वृ कौटिल्ये-अप्। निकटे। युद्धे (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। प्राप्तवान् स इन्द्रस्ता वाणीः ॥
विषय
उपह्वरे विदत्
पदार्थ
१. (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय (वज्रिणे) = क्रियाशीलतारूप वन को हाथ में लिये हुए पुरुष के लिए (गाव:) = प्रकाश की रशिमयाँ (मधु) = उस मधुर ज्ञान का (दुदहे) = दोहन करती हैं, जोकि (आशिरम्) = वासनामल को समन्तात् शीर्ण करनेवाला है। २. यह वह समय होता है (यत्) = जबकि (सीम्) = निश्चय से (उपहरे) = एकान्त हृदयदेश में समीप ही [Prominently] उस प्रभु को (विदत्) = प्राप्त करता है।
भावार्थ
हम जितेन्द्रिय बनें। हमें वह मधुर ज्ञान प्राप्त होगा जो हमें हृदयदेश में प्रभु की प्राप्ति के योग्य बनाएगा। यह प्रभु को पानेवाला व्यक्ति 'विश्वामित्र' बनता है-सबके प्रति स्नेहवाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(वज्रिणे इन्द्राय) न्यायवज्रधारी परमेश्वर के लिए, (गावः) स्तुतियाँ करनेवाले उपासकों ने (मधु) मधुर, (आशिरम्) तथा परिपक्व भक्तिरसरूपी-दुग्ध का (दुदुह्रे) दोहन किया है। (यत्) जिस भक्तिरस को उपासकों ने (उपह्वरे) पर्वतों की गुफाओं में अभ्यास द्वारा (विदत्) पाया है। (सीम्) और जो भक्तिरस उपासकों के जीवन में फैल गया है।
टिप्पणी
[गावः=गौः=स्तोता (निघं০ ३.१६)। उपह्वरे=“उपह्वरे गिरीणाम्” (साम, प्र০ १, अर्ध प्र০ १, द০ ५, मं০ ९)।]
विषय
राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(गावः आशिरम्) गौवें जिस प्रकार स्वामी के लिये दूध उत्पन्न करती हैं उसी प्रकार (वज्रिणे) वज्रधारी, बलवान् (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् इन्द्र राजा के लिये (गावः) भूमियें (मधु) अन्न (दुदुह्रे) उत्पन्न करतीं हैं। और (इन्द्राय) विभूतिमान् ज्ञानी जीव के लिये (गावः) वेदवाणियें (आशिरम्) आत्मा के आश्रय देने वाले (मधु) ज्ञानरस का दोहन करती हैं। (यत्) जिसके (सीम्) वह (उपह्वरे) समीप ही (विदत्) प्राप्त होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-३ त्रिशोकः काण्वः। ४-६ प्रियमेधः काण्वः। गायत्र्यः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Lands and cows, suns and planets, indeed all objects in motion, exude for Indra, wielder of thunder, the ichor of emotional adoration seasoned with ecstasy like honey sweet milk mixed with soma which he receives close at hand and cherishes.
Translation
The cows pour sweet milk for the mighty ruler who is equipped with fatal weapon as he comes near.
Translation
The cows pour sweet milk for the mighty ruler who is equipped with fatal weapon as he comes near.
Translation
Just as cows give milk to the cowherd, similarly the lands produce foodgrains to the powerful king, the Ved-mantras generate sweet nectar of spiritual knowledge to the evil-destroying soul, who attains to the Almighty Father in his heart’s cave.
Footnote
उपहरे- in the cavity of the heart, appears to me to be a suitable rendering.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(इन्द्राय) परमैश्वर्यवते राज्ञे (गावः) वेदवाण्यः (आशिरम्) अपस्पृधेथामानृचु०। पा० ६।१।३६। आङ्+श्रिञ् सेवायां श्रीञ् पाके वा-क्विप्, धातोः शिर इत्यादेशः। यद्वा। अशेर्नित्। उ० १।२। आङ्+अश भोजने अशू व्याप्तौ वा-किरन् नित्। आशीराश्रयणाद् वाश्रपणाद् वा, अथेयमितराशीराशास्तेः-निरु० ६।८। आश्रययोग्यं परिपाकयोग्यं वा दुग्धदधिघृतादिपदार्थम् (दुदुह्रे) दुह प्रपूरणे लिटि रुट्। दुदुहिरे। पूरितवत्यः (वज्रिणे) वज्रधारिणे (मधु) मधुविद्याम्। यथार्थज्ञानम् (यत्) यदा (सीम्) अवितॄस्तृ० तु० ३।१९। षिञ् बन्धने-ईप्रत्ययः। सीमिति परिग्रहार्थीयो वा पदपूरणो वा सर्वत इति वा-निरु० १।७। सर्वतः (उपह्वरे) उप+ह्वृ कौटिल्ये-अप्। निकटे। युद्धे (विदत्) विद्लृ लाभे-लुङ्। प्राप्तवान् स इन्द्रस्ता वाणीः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(বজ্রিণে) বজ্রধারী (ইন্দ্রায়) ইন্দ্রের [ঐশ্বর্যবান্ রাজার] জন্য (গাবঃ) বেদবাণীসমূহ (আশিরম্) সেবন বা রন্ধনযোগ্য পদার্থ [দুধ, দই, ঘী আদি] কে (মধু) মধুবিদ্যা [যথার্থ জ্ঞান] কে (দুদুহ্রে) পরিপূর্ণ করে। (যৎ) যখন রাজা [সেই বেদবাণীসমূহ]কে (উপহ্বরে) নিজের মধ্যে (সীম্) সকলপ্রকারে (বিদৎ) প্রাপ্ত করে/হয় ॥৬॥
भावार्थ
ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ বেদবাণীসমূহ দ্বারা সুশিক্ষিত হয়ে দুধ আদি ভোগ্য পদার্থ প্রাপ্ত করে যথার্থ জ্ঞান বৃদ্ধি করুক ॥৬॥
भाषार्थ
(বজ্রিণে ইন্দ্রায়) ন্যায়বজ্রধারী পরমেশ্বরের জন্য, (গাবঃ) স্তবনকারী উপাসকরা (মধু) মধুর, (আশিরম্) তথা পরিপক্ব ভক্তিরসরূপী-দুগ্ধের (দুদুহ্রে) দোহন করেছে। (যৎ) যে ভক্তিরস উপাসকেরা (উপহ্বরে) পর্বতের গুহায় অভ্যাস দ্বারা (বিদৎ) প্রাপ্ত করেছে। (সীম্) এবং যে ভক্তিরস উপাসকদের জীবনে বিস্তৃত হয়েছে।
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