अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । ब्र॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुष॑: । रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । ब्रध्नम् । अरुषम् । चरन्तम् । परि । तस्थुष: । रोचन्ते । रोचना । दिवि ॥२६.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
४-६ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(तस्थुषः) मनुष्यादि प्राणियों और लोकों में (परि) सब ओर से (चरन्तम्) व्यापे हुए, (ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) हिंसारहित [परमात्मा] को (रोचना) प्रकाशमान पदार्थ (दिवि) व्यवहार के बीच (युञ्जन्ति) ध्यान में रखते और (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं ॥४॥
भावार्थ
परमाणुओं से लेकर सूर्य आदि लोक और सब प्राणी सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमात्मा की आज्ञा को मानते हैं, उसीकी उपासना से मनुष्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके आत्मा की उन्नति करें ॥४॥
टिप्पणी
मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में है-१।६।१-३, सामवेद में-उ० ६।३। तृच १४ और आगे हैं-अ० २०।४७।१०-१२ तथा ६९।९-११। मन्त्र ४, यजुर्वेद में है-२३।, ६ और मन्त्र ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय में व्याख्यात है ॥ ४−(युञ्जन्ति) युज समाधौ। ध्यायन्ति (ब्रध्नम्) अ० ७।२२।२। महान्तम्-निघ० ३।३। (अरुषम्) रुष हिंसायाम्-अप्रत्ययः। अहिंसकम् (चरन्तम्) व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठतेः क्वसुः शसि रूपम्। तस्थुष इति मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्यादिप्राणिनो लोकांश्च (रोचन्ते) प्रकाशन्ते (रोचना) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च-युच्, शेर्लोपः। रोचनानि। प्रकाशमानानि वस्तूनि (दिवि) व्यवहारे ॥
Vishay
…
Padartha
…
Bhavartha
…
English (1)
Subject
Self-integration
Meaning
Pious souls in meditation commune with the great and gracious lord of existence immanent in the steady universe and transcendent beyond. Brilliant are they with the lord of light and they shine in the heaven of bliss.
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