अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒म एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्या॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑। यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ति॒ग्मऽशृ॑ङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । न । भी॒म: । एक॑: । कृ॒ष्टी: । च्य॒वय॑ति । प्र । विश्वा॑: ॥ य: । शश्व॑त: । अदा॑शुष: । गय॑स्य । प्र॒ऽय॒न्ता । अ॒सि॒ । सुस्वि॑ऽतराय । वेद॑: ॥३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः। यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि सुष्वितराय वेदः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । तिग्मऽशृङ्ग: । वृषभ: । न । भीम: । एक: । कृष्टी: । च्यवयति । प्र । विश्वा: ॥ य: । शश्वत: । अदाशुष: । गयस्य । प्रऽयन्ता । असि । सुस्विऽतराय । वेद: ॥३७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (2)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(एकः) अकेला [वही] (विश्वा) सब (कृष्टीः) मनुष्य प्रजाओं को (प्र) अच्छे प्रकार (च्यावयति) चलाता है, (यः) जो (तिग्मशृङ्गः न) तीखी किरणोंवाले सूर्य के समान (भीमः) भयङ्कर और (वृषभः) बरसा करनेवाला है। और (यः) जो (शश्वतः) निरन्तर (अदाशुषः) न देनेवाले के (गयस्य) घर का (वेदः) धन (सुष्वितराय) अधिक ऐश्वर्यवाले व्यवहार के लिये (प्रयन्ता) देनेवाला (असि) है ॥१॥
भावार्थ
जैसे सूर्य अपने ताप से जल खींच बरसा करके उपकार करता है, वैसे ही राजा कुदानी वा कंजूसों से धन लेकर विद्या आदि शुभ कर्मों में लगावे ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-७।१९।१-११॥१−(यः) पुरुषः (तिग्मशृङ्गः) तिग्मानि तेजःस्वीनि शृङ्गाणि किरणा यस्य स सूर्यः (वृषभः) वृष्टिकरः (न) इव (भीमः) भयङ्करः (एकः) अद्वितीयः (कृष्टीः) मनुष्यप्रजाः (च्यावयति) चालयति (प्र) प्रकर्षेण (विश्वाः) सर्वाः (यः) (शश्वतः) निरन्तरस्य, सदा वर्तमानस्य (अदाशुषः) अदातुः पुरुषस्य (गयस्य) गृहस्य (प्रयन्ता) नियमयिता। प्रदाता (असि) अस्ति (सुष्वितराय) अ०२०।३।१। अधिकैश्वर्यवते व्यवहाराय (वेदः) धनम्-निघ०२।१०॥
Vishay
…
Padartha
…
Bhavartha
…
English (1)
Subject
lndra Devata
Meaning
Indra, lord commander of weapons sharp and blazing as rays of light, virile, generous and yet fearsome as a bull, is the one supreme who guides, controls, rules and inspires the world community, and he is the one who always is the supporting power of the house and children of the indigent who cannot afford to pay for education and development. O lord, you are the guide and giver of wealth and knowledge to the man dedicated to the yajnic development of humanity.
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