अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 3
त्वं धृ॑ष्णो धृष॒ता वी॒तह॑व्यं॒ प्रावो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ सु॒दास॑म्। प्र पौरु॑कुत्सिं त्र॒सद॑स्युमावः॒ क्षेत्र॑साता वृत्र॒हत्ये॑षु पू॒रुम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । धृ॒ष॒ता । वी॒तऽह॑व्यम् । प्र । आ॒व॒: । विश्वा॑भि: । ऊ॒तिऽभि:॑ । सु॒ऽदास॑म् ॥ प्र । पौरु॑ऽकुत्सिम् । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒व॒: । क्षेत्र॑ऽसा॒ता । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑षु । पू॒रुम् ॥३७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम्। प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आव: । विश्वाभि: । ऊतिऽभि: । सुऽदासम् ॥ प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आव: । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(धृष्णो) हे निडर पुरुष ! (त्वम्) तूने (धृषता) निडरपन से (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (वीतहव्यम्) पाने योग्य पदार्थ के पानेवाले, (सुदासम्) बड़े दाता को (प्र) अच्छे प्रकार (आवः) बचाया है। और (पौरुकुत्सिम्) बहुत वज्र आदि हथियारों के जाननेवाले के सन्तान, (त्रसदस्युम्) डाकुओं के डरानेवाले (पूरुम्) मनुष्य को (क्षेत्रसाता) रणक्षेत्र के विभाग में (वृत्रहत्येषु) शत्रुओं के मारनेवाले सङ्ग्रामों के बीच (प्र) अच्छे प्रकार (आवः) तृप्त किया है ॥३॥
भावार्थ
राजा लोग सङ्ग्राम में शत्रुओं को जीतनेवाले, शस्त्रविद्या में चतुर वीरों का सत्कार करके सुखी होवें ॥३॥
टिप्पणी
३−(त्वम्) (धृष्णो) अ०१।१३।४। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। हे निर्भय (धृषता) अ०२०।३६।६। प्रागल्भ्येन (वीतहव्यम्) अ०६।१३७।१। प्राप्तप्राप्तव्यपदार्थम् (प्र) प्रकर्षेण (आवः) रक्षितवानसि (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (सुदासम्) बहुदातारम् (प्र) (पौरुकुत्सिम्) अत इञ्। पा०४।१।९। पुरुकुत्स-इञ्। पुरुकुत्सस्य बहुवज्रादिशस्त्रास्त्रविदः पुरुषस्य सन्तानम् (त्रसदस्युम्) त्रसी उद्वेगे-अच्। त्रसा उद्विग्ना भयभीता दस्यवः साहसिका यस्मात् तम् (आवः) अव तृप्तौ। तर्पितवानसि (क्षेत्रसाता) क्षेत्रसातौ। रणक्षेत्रविभागे (वृत्रहत्येषु) अ०२०।२१।६। शत्रुहननेषु सङ्ग्रामेषु (पूरुम्) पॄभिदिव्यधि०। उ०१।२३। पूरी आप्यायने कु। मनुष्यम्-निघ०२।३॥
विषय
वीतहव्य, सुदास, पौरुकुत्सि, त्रसदस्यु, पूरु
पदार्थ
१. हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्रभो! आप (धृषता) = शत्रुधर्षक बल को प्राप्त कराके (वीतहव्यम्) = हव्य का भक्षण करनेवाले-यज्ञशेष का सेवन करनेवाले–यज्ञशील पुरुष को (प्राव:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। आप (सुदासम्) = वासना का सम्यक् उपक्षय करनेवाले को [दस् उपक्षये] अथवा दानशील पुरुष को [दा] (विश्वाभिः ऊतिभि:) = सब रक्षणों के द्वारा रक्षित करते हैं। २. आप (पौरुकुत्सिम्) = वासनाओं का खूब ही संहार करनेवाले को तथा (त्रसदस्युम्) = जिससे दास्यव वृत्तियाँ भयभीत होकर दूर रहती हैं, उस (त्रसदस्यु) = को (प्र आव:) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं। आप (वृत्रहत्येषु) = संग्रामों में (क्षेत्रसाता) = उत्तम शरीर-क्षेत्र की प्राप्ति के निमित्त (पूरुम्) = अपना पालन व पूरण करनेवाले को रक्षित करते हैं।
भावार्थ
हम 'वीतहव्य-सुदास-पौरुकुत्सि-त्रसदस्यु-व पूरु' बनें और इसप्रकार प्रभु से रक्षणीय हों।
भाषार्थ
(धृष्णो) पापों का धर्षण करनेवाले हे परमेश्वर! (त्वम्) आपने (धृषता) अपने धर्षण सामर्थ्य द्वारा (वीतहव्यम्) प्राकृतिक आहुतियाँ छोड़कर आत्म समर्पण की आहुतियाँ करनेवाले की (प्रावः) रक्षा की है, और (सुदासम्) उत्तम दानी की रक्षा (विश्वाभिः ऊतिभिः) सब प्रकार के रक्षासाधनों द्वारा की है। आपने (त्रसदस्युम्) उपक्षयकारी प्रवृत्तियों को मानो त्रस्त करनेवाले, भयभीत करनेवाले, (पौरुकुत्सिम्) पुरुकुत्स की सन्तान की (प्र आवः) रक्षा की है। तथा (क्षेत्रसाता=क्षेत्रसातौ) कर्मक्षेत्रशरीर परम्परा के विनाश के निमित्त जिसने (वृत्रहत्येषु) पाप-वृत्रों के हनन में (पूरुम्) पूर्ण सफलता प्राप्त की है, उसकी भी आपने रक्षा की है।
टिप्पणी
[सुदासम्=सु+दासृ दाने। पुरुकुत्सः=नाना पापों की जड़ काटने वाला। कुत्स (मन्त्र २)। त्रसदस्युम्=त्रस्=त्रास, भय+दसु उपक्षये। क्षेत्रसाता=क्षेत्र (शरीर)+साति (विनाश)। पुरुम्=पृ पूरणे।]
विषय
राजा के कर्त्तव्य और परमात्मा के गुण
भावार्थ
हे (धृष्णो) शत्रुओं के घर्षण करने में समर्थ ! इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् प्रभो ! तू (धृषता) अपने घर्षण सामर्थ्य या शत्रुनाशक वज्र से (विश्वाभिः ऊतिभिः) अपने समस्त रक्षाकारी सेनाओं से (सुदासं) शोभन, कल्याण दानशील, (वीतहव्यं) पवित्र अन्न के प्राप्त करने वाले पुरुष को (प्र अवः) उत्तम रीति से रक्षा करता है। और (क्षेत्रसाता) क्षेत्र के प्राप्ति के लिये ये (वृत्रहत्येषु) विघ्नकारी पुरुषों के विनाश करने के कार्यों में (पूरुम्) प्रजा के पालक (पौरुकुत्सिम्) बहुत से शत्रु नाश करने वाले (त्रसदस्युम्) चोर डाकुओं में त्रासभय उत्पन्न करने वाले वीर पुरुषों की भी (प्र अवः) अच्छे प्रकार रक्षा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। त्रिष्टुभः। इन्द्रो देवता। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
lndra Devata
Meaning
O bold and determined ruler, with all your power and determination, and with all your methods and tactics of defence and offence, protect and preserve the assets of the nation acquired, support the commander of services, guard the wielders of high class weapons and protect their families, defend the powers of law and order against crime, and in the battle against want and darkness and for victory in the battle field of defence and development, protect the supply line and citizens of the land.
Translation
O crusher of the foe-men, you through your bold action and with all your aids, guard man who offers oblations in Yajna and is giver of nice gifts (Vihavyam Sudasm). You protect in acquirement of land and the battle of foes, the man who smites away a large number of foe-men and who creates fear among the wickeds and the protector of People.
Translation
O crusher of the foe-men, you through your bold action and with all your aids, guard man who offers oblations in Yajna and is giver of nice gifts (Vihavyam Sudasm). You protect, in acquirement of land and the battle of foes, the man who smites away a large number of foe-men and who creates fear among the wickeds and the protector of people.
Translation
O Smasher of foes, thou protectest the good doner, capable of acquiring good provisions, by all means of protection with thy smashing force. In case of winning land and destruction of obstructing enemies, you provide a complete protection to the defender of the subjects equipped with various weapons of destruction, striking terror in the minds of wicked mischief-mongers.
Footnote
Similarly as above, Sayāna and Griffith are wrong in speaking of Sudasa, Paurukutsa, Trasdasyu, Pūru as persons of history.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(त्वम्) (धृष्णो) अ०१।१३।४। ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। हे निर्भय (धृषता) अ०२०।३६।६। प्रागल्भ्येन (वीतहव्यम्) अ०६।१३७।१। प्राप्तप्राप्तव्यपदार्थम् (प्र) प्रकर्षेण (आवः) रक्षितवानसि (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (सुदासम्) बहुदातारम् (प्र) (पौरुकुत्सिम्) अत इञ्। पा०४।१।९। पुरुकुत्स-इञ्। पुरुकुत्सस्य बहुवज्रादिशस्त्रास्त्रविदः पुरुषस्य सन्तानम् (त्रसदस्युम्) त्रसी उद्वेगे-अच्। त्रसा उद्विग्ना भयभीता दस्यवः साहसिका यस्मात् तम् (आवः) अव तृप्तौ। तर्पितवानसि (क्षेत्रसाता) क्षेत्रसातौ। रणक्षेत्रविभागे (वृत्रहत्येषु) अ०२०।२१।६। शत्रुहननेषु सङ्ग्रामेषु (पूरुम्) पॄभिदिव्यधि०। उ०१।२३। पूरी आप्यायने कु। मनुष्यम्-निघ०२।३॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(ধৃষ্ণো) হে নির্ভয় পুরুষ! (ত্বম্) তুমি (ধৃষতা) নির্ভয়তা দ্বারা (বিশ্বাভিঃ) সকল (ঊতিভিঃ) রক্ষার সহিত (বীতহব্যম্) প্রাপ্তি যোগ্য পদার্থ প্রাপ্তকারী, (সুদাসম্) বড় দাতাকে (প্র) উত্তমরূপে (আবঃ) রক্ষা করেছো। এবং (পৌরুকুৎসিম্) বহু বজ্রাদি অস্ত্রশস্ত্রের জ্ঞাতা/বিজ্ঞ-এর সন্তান, (ত্রসদস্যুম্) ডাকাতদের ভীতকারী (পূরুম্) মনুষ্যকে (ক্ষেত্রসাতা) রণক্ষেত্রের বিভাগে (বৃত্রহত্যেষু) শত্রুহত্যাকারী সংগ্রামে (প্র) ভালোভাবে (আবঃ) তৃপ্ত করেছো ॥৩॥
भावार्थ
রাজা সংগ্রামে শত্রুদের জয় করে, শস্ত্রবিদ্যায় পারদর্শী বীরদের সৎকার করে সুখী হন॥৩॥
भाषार्थ
(ধৃষ্ণো) পাপের ধর্ষণকারী হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি (ধৃষতা) নিজের ধর্ষণ সামর্থ্য দ্বারা (বীতহব্যম্) প্রাকৃতিক আহুতি ত্যাগ/বর্জন করে আত্ম সমর্পণের আহুতি প্রদানকারীর (প্রাবঃ) রক্ষা করেছেন, এবং (সুদাসম্) উত্তম দানীর রক্ষা (বিশ্বাভিঃ ঊতিভিঃ) সব প্রকারের রক্ষাসাধন দ্বারা করেছেন। আপনি (ত্রসদস্যুম্) উপক্ষয়কারী প্রবৃত্তি-সমূহকে মানো ত্রস্তকারী, ভয়ভীতকারী, (পৌরুকুৎসিম্) পুরুকুৎস এর সন্তানের (প্র আবঃ) রক্ষা করেছেন। তথা (ক্ষেত্রসাতা=ক্ষেত্রসাতৌ) কর্মক্ষেত্রশরীর পরম্পরা বিনাশের নিমিত্ত যে (বৃত্রহত্যেষু) পাপ-বৃত্র-সমূহের হননে (পূরুম্) পূর্ণ সফলতা প্রাপ্ত করেছে, তাঁরও আপনি রক্ষা করেছেন।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal