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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३७
    52

    प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः। नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रियास॑: । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नर॑: । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑य: ॥ नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒त‍ि॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥३७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रियास: । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नर: । मदेम । शरणे । सखाय: ॥ नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अत‍िथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥३७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (मघवन्) हे महाधनी ! (अभिष्टौ) सब प्रकार इष्टसिद्धि में (नरः) हम नेता लोग (ते इत्) तेरे ही (प्रियासः) प्यारे (सखायः) मित्र होकर (शरणे) शरण में [रहकर] (मदेम) प्रसन्न होवें। (शंस्यम्) बड़ाई योग्य कर्म (करिष्यन्) करता हुआ तू (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले (याद्वम्) प्रयत्नशील मनुष्य को (अतिथिग्वाय) अतिथियों [विद्वानों] की प्राप्ति के लिये (नि) निश्चय करके (नि) नित्य (शिशीहि) तीक्ष्ण कर ॥८॥

    भावार्थ

    राजा अपनी और प्रजा की बढ़ती के लिये शान्ति स्थापित करके सबको प्रसन्न रक्खे, जिससे विद्वान् लोग बे-रोक आ-जाकर उन्नति का उपदेश करते रहें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(प्रियासः) प्रीताः (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्टौ) पररूपम्। अभित इष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि (सखायः) सुहृदः सन्तः (नि) निश्चयेन (तुर्वशम्) तुर तूर त्वरणहिंसनयोः-क्विप्+वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा०३।३।८। वश कान्तौ-अप्। तुरां हिंसकानां वशयितारम् (नि) नित्यम् (याद्वम्) इण्शिभ्यां वन्। उ०१।१२। यती प्रयत्ने वा यत ताडने-वन्, णित्, तस्य दः। यद्वो मनुष्यनाम-निघ०२।३। प्रयत्नवन्तं मनुष्यम् (शिशीहि) अ०।२।७। शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, लोट्। बहुलं छन्दसि। पा०७।४।७८। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। आत ईत्वम्। तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) अ०२०।२१।८। अतिथीनां विदुषां गमनाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) कुर्वन् ॥

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    विषय

    प्रियासः इत् ते

    पदार्थ

    १. हे (मघवन्) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो। (ते अभिष्टौ) = आपके अन्वेषण में प्रार्थना व आराधना में (प्रियासः इत्) = निश्चय से आपके प्रिय होते हुए, (नरः) = उन्नति-पथ पर चलते हुए [ते] (सखायः) = आपके मित्र बनकर (शरणे) = आपकी शरण में (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। २. हे प्रभो। आप (तुर्वशम्) = त्वरा से शत्रुओं को वश में करनेवाले उपासक को (निशिशीहि) = खूब तीक्ष्ण कीजिए-इसे तीक्ष्ण-बुद्धि बनाइए। (याद्वम्) = इस यत्नशील मनुष्य को नि [शिशीहि] तीक्ष्ण कीजिए। इसे काम-क्रोध आदि शत्रुओं के लिए भयंकर बनाइए। (अतिथिग्वाय) = अतिथियों के प्रति उनके सत्कार के लिए जानेवाले इस पुरुष के लिए (शंस्यं करिष्यन्) = आप सदा प्रशंसनीय बातों को ही करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु की आराधना करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें। प्रभु के प्रिय बनकर प्रभु की शरण में आनन्द का अनुभव करें। शत्रुओं को वश में करनेवाले, यत्नशील व अतिथिसेवी बनें, प्रभु अवश्य हमारा कल्याण करेंगे।

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    भाषार्थ

    (मघवन्) हे धनपते! (ते) आपके (इत्) ही (प्रियासः) प्यारे बनकर, (अभिष्टौ) आपकी साक्षात् स्तुतियाँ करते हुए, (नरः) हम उपासक नर-नारियाँ, (सखायः) परस्पर सखा बनकर, (शरणे) आपकी शरण में (मदेम) आनन्दित रहें। (अतिथिग्वाय) अतिथिरूप में प्राप्त सद्गुरु की शरण में जानेवाले उपासक की (शंस्यम्) कीर्ति को (करिष्यन्) बढ़ाते हुए आपने, (तुर्वशम्) शीघ्र इन्द्रियों को वश में करनेवाले को—ऐसे उपासक के प्रति (निशिशीहि) शिष्यरूप में प्रदान किया है, और (याद्वम्) अभ्यासमार्ग में प्रयत्नशील व्यक्ति को भी (निशिशीहि) ऐसे उपासक के प्रति शिष्यरूप में प्रदान किया है। [अभिष्टौ=अभि+ष्टुञ् स्तुतौ।]

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य और परमात्मा के गुण

    भावार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! (ते अभिष्टौ) तेरी ही इच्छा की अनुकूलता में हम (ते प्रियासः सखायः) तेरे प्रिय मित्र (नरः) जन तेरे (शरणे) शरण में रहकर (मदेम) आनन्द प्रसन्न होकर रहें। तू (तुर्वशं) हिंसकों के वश करने में समर्थ, (याद्वं) प्रयत्नशील, उत्साही पुरुष को (अतिथिग्वाय) पूजनीय पुरुषों के लिये (शंस्यं) प्रशंसनीय कार्य (करिष्यत्) करने की इच्छा करता हुआ (नि नि शिशीहि) खूब तीक्ष्ण कर, उनको शत्रुओं के बध के लिये उत्तेजित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। त्रिष्टुभः। इन्द्रो देवता। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Lord of wealth, honour and excellence, let us all, leaders and friends of yours, abide and rejoice as your dearest in the protective shelter of your love and good will for our desired aims. Inspire and refine the nearest settled neighbour as well as the traveller on the move, raising the generous host in honour and praise for hospitality.

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    Translation

    O Wealthy King, we people who are your friends be your favourites in concordance and prosper under your protection, You performing the daring act persuade the man controlling violence, the man of perseverance for the man who is guardian of guests.

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    Translation

    O Wealthy King, we people who are your friends be your favorites in concordance and prosper under your protection, You performing the daring act persuade the man controlling violence, the man of perseverance for the man who is guardian of guests.

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    Translation

    O Lord of fortunes, may we live in joy and pleasure under Thy protection, acting according to Thy will, thus enduring to Thee alone as Thy friends. Letest Thee fully energise the person, who is keen to control the violent pushing and respectful towards the guests, thus wishing to do a noble deed.

    Footnote

    Turvasha, Yadu, stithigana are not the persons as declared by Sayāna and Griffith. They have lowered the dignity of the Vedic teachings of high order by reading history here and there.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(प्रियासः) प्रीताः (इत्) एव (ते) तव (मघवन्) महाधनिन् (अभिष्टौ) पररूपम्। अभित इष्टसिद्धौ (नरः) नेतारः (मदेम) आनन्देम (शरणे) शरणागतपालने कर्मणि (सखायः) सुहृदः सन्तः (नि) निश्चयेन (तुर्वशम्) तुर तूर त्वरणहिंसनयोः-क्विप्+वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा०३।३।८। वश कान्तौ-अप्। तुरां हिंसकानां वशयितारम् (नि) नित्यम् (याद्वम्) इण्शिभ्यां वन्। उ०१।१२। यती प्रयत्ने वा यत ताडने-वन्, णित्, तस्य दः। यद्वो मनुष्यनाम-निघ०२।३। प्रयत्नवन्तं मनुष्यम् (शिशीहि) अ०।२।७। शो तनूकरणे-श्यनः श्लुः, लोट्। बहुलं छन्दसि। पा०७।४।७८। अभ्यासस्य इत्वम्। ई हल्यघोः। पा०६।४।११३। आत ईत्वम्। तीक्ष्णीकुरु (अतिथिग्वाय) अ०२०।२१।८। अतिथीनां विदुषां गमनाय (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) कुर्वन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মঘবন্) হে মহাধনী! (অভিষ্টৌ) সকল প্রকার ইষ্টসিদ্ধিতে (নরঃ) আমরা নেতাগন (তে ইৎ) তোমারই (প্রিয়াসঃ) প্রিয় (সখায়ঃ) মিত্র হয়ে (শরণে) শরণে [থেকে] (মদেম) প্রসন্ন হব/হই। (শংস্যম্) প্রশংসাযোগ্য কর্ম (করিষ্যন্) করে তুমি (তুর্বশম্) হিংসকদের বশবর্তীকারী তুমি (যাদ্বম্) প্রচেষ্টাশীল মনুষ্যকে (অতিথিগ্বায়) অতিথিদের [বিদ্বানদের] প্রাপ্তির জন্য (নি) নিশ্চিতরূপে (নি) নিত্য (শিশীহি) তীক্ষ্ণ করো॥৮॥

    भावार्थ

    রাজা নিজের ও প্রজার বৃদ্ধির জন্য শান্তি স্থাপিত করে সকলকে প্রসন্ন রাখেন, যা থেকে বিদ্বানগন বাধাহীনভাবে যাওয়া-আসা করে উন্নতির উপদেশ করতে থাকে ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (মঘবন্) হে ধনপতি! (তে) আপনার (ইৎ)(প্রিয়াসঃ) প্রিয় হয়ে, (অভিষ্টৌ) আপনার সাক্ষাৎ স্তুতি করে, (নরঃ) আমরা [উপাসক] নর-নারী, (সখায়ঃ) পরস্পর সখা হয়ে, (শরণে) আপনার শরণে (মদেম) আনন্দিত থাকি। (অতিথিগ্বায়) অতিথিরূপে প্রাপ্ত সদ্গুরুর শরণে আশ্রিত উপাসকের (শংস্যম্) কীর্তি (করিষ্যন্) বর্ধিত করে আপনি, (তুর্বশম্) শীঘ্র ইন্দ্রিয়-সমূহকে বশবর্তীকারী—এমন উপাসকের প্রতি (নিশিশীহি) শিষ্যরূপে প্রদান করেছেন, এবং (যাদ্বম্) অভ্যাসমার্গে প্রয়ত্নশীল ব্যক্তিকেও (নিশিশীহি) এরূপ উপাসকের প্রতি শিষ্যরূপে প্রদান করেছেন। [অভিষ্টৌ=অভি+ষ্টুঞ্ স্তুতৌ।]

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