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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    ऋषिः - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५५
    43

    यमि॑न्द्र दधि॒षे त्वमश्वं॒ गां भा॒गमव्य॑यम्। यज॑माने सुन्व॒ति दक्षि॑णावति॒ तस्मि॒न्तं धे॑हि॒ मा प॒णौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । इ॒न्द्र॒ । द॒धि॒षे । त्वम् । अश्व॑म् । गाम् । भा॒गम् । अव्य॑यम् ॥ यज॑माने । सु॒न्व॒ति । दक्षिणाऽवति । तस्मि॑न् । तम् । धे॒हि॒ । मा । प॒णौ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमिन्द्र दधिषे त्वमश्वं गां भागमव्ययम्। यजमाने सुन्वति दक्षिणावति तस्मिन्तं धेहि मा पणौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । इन्द्र । दधिषे । त्वम् । अश्वम् । गाम् । भागम् । अव्ययम् ॥ यजमाने । सुन्वति । दक्षिणाऽवति । तस्मिन् । तम् । धेहि । मा । पणौ ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (यम्) जिस (अश्वम्) घोड़े को, (गाम्) गौ को और (अव्ययम्) अक्षय (भागम्) सेवनीय धन को (त्वम्) तू (दधिषे) धारण करता है, (तम्) उसको (तस्मिन्) उस (सुन्वति) तत्त्व निचोड़नेवाले, (दक्षिणावति) दक्षिणा [प्रतिष्ठा के दान] वाले (यजमाने) यजमान [यज्ञ श्रेष्ठ कर्म करनेवाले] में (धेहि) धारण कर और (पणौ) कुव्यवहारी में (आ) नहीं ॥३॥

    भावार्थ

    राजा को योग्य है कि अवसर विचारकर घोड़े, गौएँ, सुवर्ण आदि धन दक्षिणा देकर सुपात्रों का सन्मान करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यम्) भागम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (दधिषे) लडर्थे लिट्। धत्से। धरसि (त्वम्) (अश्वम्) (गाम्) धेनुम् (भागम्) सेवनीयं धनम् (अव्यययम्) अक्षयम् (यजमाने) श्रेष्ठकर्मकर्तरि (सुन्वति) तत्त्वरसं संस्कुर्वाणि (दक्षिणावति) प्रतिष्ठाधनयुक्ते (तस्मिन्) (तम्) भागम् (धेहि) धारय (मा) निषेधे (पणौ) कुव्यवहारिणे असुरे ॥

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    विषय

    'यजमान, सुन्वन, दक्षिणावान्'

    पदार्थ

    १.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (यम्) = जिस (अश्वं गाम्) = कर्मेन्द्रियसमूह तथा ज्ञानेन्द्रियसमूह को तथा (अव्ययं भागम्) = [अवि अय्] विविध योनियों में भटकने का कारण न बननेवाले भजनीय धन को यजमाने यज्ञशील पुरुष में, सुन्वति-सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष में तथा दक्षिणावति-दानशील पुरुष में दधिषे धारण करते हैं, तस्मिन्-उसी 'गौ, अश्व व अव्ययभाग' में तम्-उस स्तोता को धेहि-धारण कीजिए। २. उस 'गौ, अश्व व अव्ययभाग' को मा मत दीजिए जिसे हम पणी-वणिक् वृत्तिवाले कृपण पुरुष में देखते हैं। कृपण-पुरुष का धन भी अव्यय-[अ-व्यय] दान आदि में व्ययित न होकर गढ़ा ही रहता है।

    भावार्थ

    प्रभु के अनुग्रह से हम यज्ञशील, सोम का सम्पादन करनेवाले व दानशील बनें। ऐसे बनकर उत्तम कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व प्रशस्त धनोंवाले हों। कृपण न बनें। यह प्रशस्तेन्द्रियोंवाला स्तोता 'गोतम' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप (यम्) जिस (अश्वं गाम्) अश्व तथा गौ आदि, और (अव्ययम्) अविनाशी (भागम्) सेवनीय मोक्षरूपी सम्पत्ति को (दधिषे) धारण करते हैं, इनके स्वामी हैं, (तम्) उस सम्पत्ति को आप, (तस्मिन् यजमाने) उस परोपकार-यज्ञ करनेवाले, (सुन्वति) भक्तिरसार्द्र हृदयवाले, (दक्षिणावति) सबकी वृद्धि तथा प्रगति चाहनेवाले में (धेहि) स्थापित तथा पोषित कीजिए, (पणौ मा) कंजूस व्यापारी में उस सम्पत्ति को स्थापित न कीजिए।

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    विषय

    ईश्वर से ऐश्वर्य की याचना।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (यजमाने सुन्वति) यजमान, यज्ञ करनेहारे पुरुष के सवन करते हुए और (तस्मिन्) उसके (दक्षिणावति) दक्षिणा प्रदान करते समय (तं) उसको (अव्ययम्) अक्षय (भागम्) सेवन करने योग्य (गाम् अश्वम्) गौ और अश्व आदि ऐश्वर्य (धेहि) प्रदान कर (यम्) जिसको (त्वम्) तू (दधिषे) धारण करता है। उस ऐश्वर्य को (पणौ) कुव्यसनी पुरुष के हाथ (मा धेहि) प्रदान मत कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेभ ऋषिः। इन्दो देवता। बृहत्यः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord of glory, the light and energy, nourishment, knowledge and dynamism and all our share of natural and spiritual gifts of divinity which you bear and bring for us, all that, pray, vest in the generous yajamana, the soma maker and the giver of charity (who all keep these in creative circulation) but never in the uncreative, miserly hoarders and selfish exploiters.

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    Translation

    O Almighty God, whatever inexhaustible praiseworthy wealth, cow and horse etc. you keep assigned to give please bestow upon that Yajmans who performs Yajna and gives remuneration to priests and not wicked hoarder.

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    Translation

    O Almighty God, whatever inexhaustible praiseworthy wealth, cow and horse etc. you keep assigned to give please bestow upon that Yajmans who performs Yajna and gives remuneration to priests and not wicked hoarder.

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    Translation

    Whatever limitless, enjoyable wealth, in the form of cows and horses. Thou bearest, O Lord of Fortunes, invest the same on the donating sacrificer, who offers oblations, and not on the niggard.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यम्) भागम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (दधिषे) लडर्थे लिट्। धत्से। धरसि (त्वम्) (अश्वम्) (गाम्) धेनुम् (भागम्) सेवनीयं धनम् (अव्यययम्) अक्षयम् (यजमाने) श्रेष्ठकर्मकर्तरि (सुन्वति) तत्त्वरसं संस्कुर्वाणि (दक्षिणावति) प्रतिष्ठाधनयुक्ते (तस्मिन्) (तम्) भागम् (धेहि) धारय (मा) निषेधे (पणौ) कुव्यवहारिणे असुरे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (যম্) যে (অশ্বম্) অশ্ব, (গাম্) গাভী এবং (অব্যয়ম্) অক্ষয় (ভাগম্) সেবনীয় ধন (ত্বম্) তুমি (দধিষে) ধারণ করো, (তম্) তা (তস্মিন্) সেই (সুন্বতি) তত্ত্ব নিষ্পাদনকারী, (দক্ষিণাবতি) দক্ষিণা [প্রতিষ্ঠার দান] প্রাপক (যজমানে) যজমানের [যজ্ঞ শ্রেষ্ঠ কর্ম সম্পন্নকারীর] মধ্যে (ধেহি) প্রদান কর/ধারণ করাও কিন্তু (পণৌ) অনাচারীদের মধ্যে (আ) নয় ॥৩॥

    भावार्थ

    রাজার উচিত, যোগ্য অযোগ্য বিচার করে সুপাত্রকে অশ্ব, গাভী, সুবর্ণাদি ধন দক্ষিণা প্রদান করে সম্মান করা। ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি (যম্) যে (অশ্বং গাম্) অশ্ব তথা গাভী আদি, এবং (অব্যযম্) অবিনাশী (ভাগম্) সেবনীয় মোক্ষরূপী সম্পত্তি (দধিষে) ধারণ করেন, সেগুলোর স্বামী, (তম্) সেই সম্পত্তি আপনি, (তস্মিন্ যজমানে) সেই পরোপকার-যজ্ঞকারী, (সুন্বতি) ভক্তিরসার্দ্র হৃদয়সম্পন্ন, (দক্ষিণাবতি) সকলের বৃদ্ধি তথা প্রগতিকামনাকারীর মধ্যে (ধেহি) স্থাপিত তথা পোষিত করুন, (পণৌ মা) কৃপণ ব্যবসায় সেই সম্পত্তি স্থাপিত করবেন না।

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