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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोषूक्तिः, अश्वसूक्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६२
    34

    स रा॑जसि पुरुष्टुतँ॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे। इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रवस्या च॒ यन्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । रा॒ज॒सि॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । एक॑:। वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒से॒ ॥ इन्द्र॑ । जैत्रा॑ । श्र॒व॒स्या॑ । च॒ । यन्त॑वे ॥६२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स राजसि पुरुष्टुतँ एको वृत्राणि जिघ्नसे। इन्द्र जैत्रा श्रवस्या च यन्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । राजसि । पुरुऽस्तुत । एक:। वृत्राणि । जिघ्नसे ॥ इन्द्र । जैत्रा । श्रवस्या । च । यन्तवे ॥६२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र -१० परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुष्टुत) हे बहुत स्तुति किये हुए (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (सः) सो (एकः) अकेला तू (जैत्रा) जीतनेवालों के योग्य धनों (च) और (श्रवस्या) यश के लिये हितकारी कर्मों को (यन्तवे) नियम में रखने में लिये (राजसि) राज्य करता है, और (वृत्राणि) रोकनेवाले विघ्नों को (जिघ्नसे) मिटाता है ॥१०॥

    भावार्थ

    अकेला महाविद्वान् और महापुरुषार्थी परमात्मा सबको परस्पर धारण-आकर्षण से चलाता हुआ अपने विश्वासी भक्तों को उनके पुरुषार्थ के अनुसार धन और कीर्ति देता है ॥९, १०॥

    टिप्पणी

    ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥

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    विषय

    व्याख्या देखो अथर्व २०.६१.४-६

    पदार्थ

    सब लोगों के हित की कामनावाला [भुवनस्य अस्ति इति] 'भुवनः' तथा साधनामय जीवनवाला 'साधनः' अगले सूक्त में प्रथम तीन मन्त्रों का ऋषि है। तृतीय के उत्तरार्ध में 'भरद्वाज' ऋषि है-अपने में शक्ति को भरनेवाला। बीच के तीन मन्त्रों के ऋषि 'गोतम' है प्रशस्तेन्द्रिय। अन्तिम तीन के ऋषि पर्वत' हैं-अपना पूरण करनेवाले। 'भुवन' प्रार्थना करते -

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    भाषार्थ

    [देखो—२०.६१.६।]

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    विषय

    ईश्वर का स्तवन।

    भावार्थ

    (८-१०) इन तीन मन्त्रों की व्याख्या देखो अथर्व० २० ६२। ४। ६॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः। इन्दो देवता। उष्णिहः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, universally praised and celebrated, you rule and shine alone, one, unique, without an equal, to destroy darkness, ignorance and adversities, to control and contain what is won and to manage what is heard and what ought to be heard.

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    Translation

    Such a one alone are you, O Almighty Lord, you praised by many shine and smite the clouds causing drought and are able to give wining power and fame.

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    Translation

    Such a one alone are you, O Almighty Lord, you praised by many shine and smite the clouds causing drought and are able to give wining power and fame.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८-१०−एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।६१।४-६ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ -১০ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুষ্টুত) হে বহুস্তুত্য (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যশালী পরমাত্মন্] (সঃ) সেই (একঃ) একাকী আপনি (জৈত্রা) বিজয় প্রাপ্তকারীর যোগ্য ধন (চ) এবং (শ্রবস্যা) যশের জন্য হিতকারী কর্মকে (যন্তবে) নিয়মপূর্বক রাখার জন্য, (রাজসি) রাজ্য করেন এবং (বৃত্রাণি) বাধা প্রদানকারী বিঘ্ন সমূহকে (জিঘ্নসে) দূর করেন ॥১০॥

    भावार्थ

    একাকী মহাবিদ্বান্ এবং মহাপুরুষার্থী পরমাত্মা সকলকে পরস্পর ধারণ-আকর্ষণ দ্বারা নিয়ন্ত্রণ করে নিজের বিশ্বাসী ভক্তদের তাঁদের পুরুষার্থ অনুসারে ধন ও কীর্তি প্রদান করেন ॥১০॥

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    भाषार्थ

    [দেখো—২০.৬১.৬।]

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