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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भुवनः साधनो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-६३
    46

    प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नयं॒ छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्कम् । अ॒न॒य॒न् । शची॑भि: । आत् । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥ अ॒या । वाज॑म् । दे॒वऽहि॑तम् । स॒ने॒म॒ । मदे॑म । श॒तऽहि॑मा: । सु॒ऽवीरा॑: ॥६३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यञ्चमर्कमनयं छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन्। अया वाजं देवहितं सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्यञ्चम् । अर्कम् । अनयन् । शचीभि: । आत् । इत् । स्वधाम् । इषिराम् । परि । अपश्यन् ॥ अया । वाजम् । देवऽहितम् । सनेम । मदेम । शतऽहिमा: । सुऽवीरा: ॥६३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    १-६ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्ष पाने योग्य (अर्कम्) पूजनीय व्यवहार को (शचीभिः) अपने कर्मों से (अनयन्) उन [विद्वानों] ने प्राप्त कराया है, और (आत् इत्) तभी (इषिराम्) चलानेवाली (स्वधाम्) आत्मधारण शक्ति को (परि) सब ओर (अपश्यन्) देखा है। (अया) इसी [नीति] से (शतहिमाः) सौ वर्षों जीते हुए (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले हम (देवहितम्) विद्वानों के हितकारी (वाजम्) विज्ञान को (सनेम) देवें और (मदेम) आनन्द करें ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् लोग अपने उत्तम कर्मों से संसार का उपकार करते रहे हैं, वैसे ही हम श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति से मनुष्यों को वीर बनाकर आनन्द देवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षेण गन्तव्यं प्रापणीयम् (अर्कम्) अर्चनीयं व्यवहारम् (अनयन्) प्रापयन् ते विद्वांसः (शचीभिः) स्वकर्मभिः (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (इषिराम्) अ० ।१।९। गमयित्रीम् (परि) सर्वतः (अपश्यन्) अवलोकितवन्तः (अया) अनया नीत्या (वाजम्) विज्ञानम् (देवहितम्) विद्वद्भ्यो हितकारिणम् (सनेम) विभजेम। दद्याम (मदेम) आनन्देम (शतहिमाः) शतवर्षजीविनः (सुवीराः) उत्तमवीरोपेताः ॥

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    विषय

    इषिरा स्वधा

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के 'स्वस्थ-शरीर, शान्त मन व दीप्त बुद्धि' वाले देव (शचीभि:) = प्रज्ञापूर्वक कर्मों से (अर्कम्) = उपास्य प्रभु को (प्रत्यञ्चम् अनयन्) = अपने अभिमुख प्राप्त कराते हैं। अन्त:स्थित प्रभु का ये दर्शन करते हैं और (आत् इत्) = अब शीघ्र ही निश्चय से (स्वधाम) = उस आत्मधारणशक्ति को (पर्यपश्यन्) = ये देखते हैं-अपने में अनुभव करते हैं, जोकि (इषिराम्) = इन्हें लोकहित के कार्यों में प्रेरित करती है। ये आत्मधारणशक्ति को प्राप्त करके लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। २. हम भी (अया) = [अनया] इस आत्मधारणशक्ति से (देवहितम) = देवों में स्थापित किये गये (वाजम्) = बल को (सनेम) = प्राप्त करें और (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले होते हुए (शतं हिमा:) = शतवर्ष पर्यन्त (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें। इसप्रकार इस मन्त्रभाग के ऋषि भरद्वाज' बनें।

    भावार्थ

    देव प्रज्ञापूर्वक कर्म करते हुए अन्त:स्थित प्रभु का दर्शन करते हैं वे आत्मधारण शक्ति का अनुभव करते हैं जो उन्हें लोकहित के कार्यों में प्रेरित करती हैं। हम भी इस आत्मधारणशक्ति के द्वारा बल प्राप्त करें और सुवीर होते हुए शतवर्षपर्यन्त उत्तम जीवनवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त, (अर्कम्) आदित्यसम प्रकाश मान, तथा अर्चनीय परमेश्वर को, उपासक लोग, (शचीभिः) प्रज्ञालोकों स्तुतियों और क्रियायोग की विधियों द्वारा (अनयन्) स्वाभिमुख कर लेते हैं, (आत् इत्) तदनन्तर ही वे उपासक (इषिराम्) अभीष्ट आध्यात्मिक अन्न, और (स्वधाम्) निज-आत्मा की असलीयत का (पर्यपश्यन्) साक्षात्कार कर सकते हैं। (अया) इस विधि द्वारा हम (देवहितम्) परमेश्वर देव द्वारा प्रदत्त (वाजम्) बल को (सनेम) प्राप्त करते हैं, और (सुवीराः) आध्यात्मिक जीवन में वीर बनकर (शतहिमाः) सौ वर्षों तक (मदेम) आनन्दित रहते हैं।

    टिप्पणी

    [(प्रत्यञ्चम्)=प्रतिपदार्थ में अञ्च् (प्राप्त)। इषिरा=इष् (अभीष्ट)+इरा=अन्न (निघं০ २.७)। आध्यात्मिक अन्न=परमेश्वर। स्वधा= one's own nature (आप्टे) “ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च” (योग १.२९) में कहा है कि “ईश्वर-प्रणिधान द्वारा प्रत्यक्-चेतना अर्थात् जीवात्मा को अपने स्वरूप का अधिगम अर्थात् साक्षात्कार हो जाता है, और परमेश्वर का भी अधिगम हो जाता है, और योगाभ्यास में अन्तरायों का भी अभाव हो जाता है।]

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    विषय

    राजा और ईश्वर।

    भावार्थ

    विद्वान् लोग (प्रत्यञ्चम्) शत्रुओं पर चढ़ाई करने में समर्थ (अर्कम्) स्तुति योग्य, एवं आदित्य के समान तेजस्वी पुरुष को (शचीभिः) शक्तिशाली सेनाओं के साथ (अनयन्) ले जाते हैं, उसको सेनाओं से युक्त करते हैं (आत इत्) और तदनन्तर (इषिराम्) बलवती सर्वप्रेरक (स्वधाम्) अपने राष्ट्र के ऐश्वर्य को धारण करने वाली शक्ति को (परि अपश्यन) साक्षात् करते हैं। (अया) इस बड़ी भारी राज्य की शक्ति से प्रेरित होकर हम लोग (देवहितम्) विजय चाहने वाले वीरों एवं राजा के हितकारी या अभिलाषा योग्य (वाजसे) संग्राम को या बल को (सनेम) प्राप्त करें और (सुवीराः) उत्तम वीरों और पुत्रों वाले होकर (शतं हिमाः) आयु के सौ वर्षों तक (मदेम) आनन्द प्रसन्न एवं तृप्त रहें। परमात्मा और आत्मा के पक्ष में—(अर्के) अर्चनीय उपास्य आत्मा को आत्मज्ञानी लोग (शचीभिः) यज्ञ और कर्म सहित साक्षात् करते हैं और उस सर्व प्रेरक, स्वयं शरीर और ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली शक्ति को ही (परि अपश्यन्) सर्वत्र विद्यमान पाते हैं, उस शक्ति से ही हम (देवहितम्) विद्वानों और प्राणों के हितकारी, उनके पोषक पालक (वाजं) अन्न का हम (सनेम) भोग करें और सौ वर्षों तक पुत्रादि सहित हर्षित रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ प्र० द्वि० भुवनः आप्रयः साधनो वा भौवनः। ३ तृ० च० भारद्वाजो वार्हस्पत्यः। ४–६ गोतमः। ७-९ पर्वतश्च ऋषिः। इन्दो देवता। ७ त्रिष्टुम् शिष्टा उष्णिहः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    When the divinities and nobilities of nature offer their yajnic homage at their best to Indra, then they see and experience divine inspiration and vigour descending on them from Divinity through nature to humanity. Thus may we too offer adoration and seek to share divine favour and inspiration fit for dedicated humanity and live a full happy hundred years blest with noble and heroic generations of progeny.

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    Translation

    These learned men through their wisdom and powers bring straight the act of righteousness and realize All-impelleing Svadham, the self-existent God. In this way may we living hundred autumns and blessed with heroes disseminate the knowledge benefitting the learned men and enjoy happiness.

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    Translation

    These learned men through their wisdom and powers bring straight the act of righteousness and realize All-impelling Svadham, the self-existent God. In this way may we living hundred autumns and blessed with heroes disseminate the knowledge benefitting the learned men and enjoy happiness.

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    Translation

    Bringing, down to a focus the mobile, sustaining energy of the rising Sun, through the rays, catching them from all around, let us gain strength, speed, grains and wealth thereby and rejoice for hundred years, along with brave offspring.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षेण गन्तव्यं प्रापणीयम् (अर्कम्) अर्चनीयं व्यवहारम् (अनयन्) प्रापयन् ते विद्वांसः (शचीभिः) स्वकर्मभिः (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (स्वधाम्) आत्मधारणशक्तिम् (इषिराम्) अ० ।१।९। गमयित्रीम् (परि) सर्वतः (अपश्यन्) अवलोकितवन्तः (अया) अनया नीत्या (वाजम्) विज्ञानम् (देवहितम्) विद्वद्भ्यो हितकारिणम् (सनेम) विभजेम। दद्याम (मदेम) आनन्देम (शतहिमाः) शतवर्षजीविनः (सुवीराः) उत्तमवीरोपेताः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৬ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (প্রত্যঞ্চম্) প্রত্যক্ষ প্রাপ্তিযোগ্য (অর্কম্) পূজনীয় ব্যবহারকে (শচীভিঃ) নিজ কর্ম সমূহের দ্বারা (অনয়ন্) তারা [বিদ্বানগণ] প্রাপ্ত করিয়েছেন এবং (আৎ ইৎ) তখনই (ইষিরাম্) চালনাকারী (স্বধাম্) আত্মধারণ শক্তিকে (পরি) সকল দিক হতে (অপশ্যন্) অবলোকন করেছেন। (অয়া) এই [নীতি] দ্বারা (শতহিমাঃ) শত বর্ষ জীবিত থেকে (সুবীরাঃ) শ্রেষ্ঠ বীরযুক্ত আমরা যেষ (দেবহিতম্) বিদ্বানদের হিতকারী (বাজম্) বিজ্ঞান (সনেম) প্রদান করি এবং (মদেম) আনন্দ করি ॥৩॥

    भावार्थ

    যেমন বিদ্বানগণ নিজেদের উত্তম কর্মের মাধ্যমে সংসারের উপকার করতে থাকে, তেমনই আমরা যেন শ্রেষ্ঠ জ্ঞানের প্রাপ্তি দ্বারা মনুষ্যকে বীর করে আনন্দ প্রদান করি॥৩॥

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    भाषार्थ

    (প্রত্যঞ্চম্) প্রত্যেক পদার্থে ব্যাপ্ত, (অর্কম্) আদিত্যসম প্রকাশমান, তথা অর্চনীয় পরমেশ্বরকে, উপাসকগণ, (শচীভিঃ) প্রজ্ঞালোক স্তুতি এবং ক্রিয়াযোগের বিধি দ্বারা (অনয়ন্) স্বাভিমুখ/নিজের অভিমুখে করে নেয়, (আৎ ইৎ) তদনন্তর সেই উপাসকগণ (ইষিরাম্) অভীষ্ট আধ্যাত্মিক অন্ন, এবং (স্বধাম্) নিজ-আত্মার সত্যতার (পর্যপশ্যন্) সাক্ষাৎকার করতে পারে। (অয়া) এই বিধি দ্বারা আমরা (দেবহিতম্) পরমেশ্বর দেব দ্বারা প্রদত্ত (বাজম্) বল (সনেম) প্রাপ্ত করি, এবং (সুবীরাঃ) আধ্যাত্মিক জীবনে বীর হয়ে (শতহিমাঃ) শত বর্ষ পর্যন্ত (মদেম) আনন্দিত থাকি।

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