अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 6
तं वो॒ वाजा॑नां॒ पति॒महू॑महि श्रव॒स्यवः॑। अप्रा॑युभिर्य॒ज्ञेभि॑र्वावृ॒धेन्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒: । वाजा॑नाम् । पति॑म् । अहू॑महि । अ॒व॒स्यव॑: ॥ अप्रा॑युऽभि: । य॒ज्ञेभि॑: । व॒वृ॒धेन्य॑म् ॥६४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो वाजानां पतिमहूमहि श्रवस्यवः। अप्रायुभिर्यज्ञेभिर्वावृधेन्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । व: । वाजानाम् । पतिम् । अहूमहि । अवस्यव: ॥ अप्रायुऽभि: । यज्ञेभि: । ववृधेन्यम् ॥६४.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्यो !] (वः) तुम्हारे लिये (तम्) उस (वाजानाम्) बलों के (पतिम्) स्वामी, (अप्रायुभिः) बिना भूल (यज्ञेभिः) पूजनीय व्यवहारों से (वावृधेन्यम्) बढ़ानेवाले [परमात्मा] को (श्रवस्यवः) कीर्ति चाहनेवाले हम लोगों ने (अहूमहि) पुकारा है ॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! सब बलों के दाता, सदा उपकार करके बढ़ानेवाले परमात्मा की आराधना से हम सामर्थ्य बढ़ाकर कीर्ति पावें ॥६॥
टिप्पणी
६−(तम्) प्रसिद्धम् (वः) युष्मदर्थम् (वाजानाम्) बलानाम् (पतिम्) स्वामिनम् (अहूमहि) ह्वयतेर्लुङ्। वयमाहूतवन्तः (श्रवस्यवः) कीर्तिकामाः (अप्रायुभिः) न+प्र+आङ्+युञ् बन्धने, यद्वा युङ् निन्दने-डु। निर्बन्धैः। निरालसैः। अप्रमोदिभिः (यज्ञेभिः) पूजनीयव्यवहारैः (ववृधेन्यम्) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। वृधु वृद्धौ-एण्यः, स च कित् द्वित्वं च, अन्तर्गतण्यर्थः। वर्धयितारम् ॥
विषय
'शक्तियों के स्वामी, यज्ञों से वर्धनीय' प्रभु
पदार्थ
१. (श्रवस्यवः) = ज्ञान व यश की कामनावाले हम (तम्) = उस (व:) = तुम सबके (वाजानां पतिम्) = बलों के स्वामी प्रभु को (अमहि) = पुकारते हैं। प्रभु हमारी सब इन्द्रियों के बल का वर्धन करके हमारे ज्ञान व बल का वर्धन करते हैं। इसप्रकार हमारा जीवन यशस्वी बनता है। हम उस प्रभु को पुकारते हैं जो (अप्रायुभि:) = प्रमाद से रहित यज्ञेभिः-यज्ञों से (वावृधेन्यम्) = वर्धनीय हैं। जब हम प्रमादशून्य होकर यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं तब प्रभु का प्रकाश हममें निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता हैं।
भावार्थ
प्रभु सब शक्तियों के स्वामी हैं। यज्ञों के द्वारा हममें प्रभु का प्रकाश होता है। ज्ञानी व यशस्वी होने के लिए हम प्रभु को पुकारते हैं। अगले सूक्त के ऋषि हैं-'विश्वमना'-व्यापक, उदार मनवाले। विश्वमना कहते हैं -
भाषार्थ
हे उपासको! (वः श्रवस्यवः) तुम्हारे लिए आनन्दरसरूपी अन्न चाहनेवाले हम गुरुओं ने, (वाजानाम्) विभूतियों बलों और शक्तियों के (पतिम्) पति, तथा (अप्रायुभिः) स्थिर चित्तवृत्तियों द्वारा किये गये (यज्ञेभिः) उपासना यज्ञों द्वारा (वावृधेन्यम्) अत्यन्त बढ़ानेवाले परमेश्वर को, (अहूमहि) तुम्हारी ओर आवर्जित किया है।
टिप्पणी
[श्रवः=अन्न (निघं০ २.७)। अप्रायुभिः=अ+प्र+अय् (गतौ) प्रायुः=गतिशील, अस्थिर। अप्रायुः=गतिरहित, स्थिर।]
विषय
ईश्वर और राजा।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! (वः) आप लोगों के (वाजानां) समस्त ऐश्वर्यों, बलों, सेनाओं और अन्नादि समृद्धियों के (पतिम्) पालक और (अप्रायुभिः) निरन्तर किये जाने वाले, कभी न टूटने वाले (यज्ञेभिः) यज्ञों उपासना के कर्मों से (वावृधेन्यम्) नित्य बढ़ने वाले, या भक्तों को चढ़ाने वाले (तम्) उस परमेश्वर को (श्रवस्यवः) यश, ज्ञान और अन्न समृद्धि के इच्छुक हम लोग (अहूमहि) स्मरण करते हैं। राजा के पक्ष में—(अप्रायुभिः) निरन्तर किये जाने वाले (यज्ञेभिः) राजा प्रजा के परस्पर मिलकर किये कार्यों द्वारा (वावृधेन्यम्) बढ़ने वाले राजा को हम (श्रवस्यवः) यश समृद्धि के अभिलाषी सदा (अहूमहि) आदर से स्वीकार करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-३ नृमेधाः। ४-६ गोसूक्त्यश्वसूक्तिनौ। इन्द्रो देवता। उष्णिहः॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O people, we, seekers of honour and fame, invoke and adore the protector and promoter of your food, energies and victories by assiduous congregations of yajna and thereby exalt the splendour and glory of the lord supreme.
Translation
O men, we, the desirers of fame and strength remember, with respect Almighty God who is the absolute master of your wealth and who is strengthener of all through the Yajnas held and performed in continuity.
Translation
O men, we, the desirers of fame and strength remember, with respect Almighty God who is the absolute master of your wealth and who is strengthener of all through the Yajnas held and performed in continuity.
Translation
O people, we, the learned persons, desirous of getting foodgrains, strength, knowledge, riches and fame, invoke Him, Who is your Defender of all these things, i.e., food, energy, knowledge and wealth and renown, and Who is the Progresser of His devotees, by our constant acts of sacrifice and devotion.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(तम्) प्रसिद्धम् (वः) युष्मदर्थम् (वाजानाम्) बलानाम् (पतिम्) स्वामिनम् (अहूमहि) ह्वयतेर्लुङ्। वयमाहूतवन्तः (श्रवस्यवः) कीर्तिकामाः (अप्रायुभिः) न+प्र+आङ्+युञ् बन्धने, यद्वा युङ् निन्दने-डु। निर्बन्धैः। निरालसैः। अप्रमोदिभिः (यज्ञेभिः) पूजनीयव्यवहारैः (ववृधेन्यम्) वृञ एण्यः। उ० ३।९८। वृधु वृद्धौ-एण्यः, स च कित् द्वित्वं च, अन्तर्गतण्यर्थः। वर्धयितारम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে মনুষ্যগণ!] (বঃ) তোমাদের জন্য (তম্) সেই (বাজানাম্) বল-সমূহের (পতিম্) স্বামী, (অপ্রায়ুভিঃ) নিরলসভাবে (যজ্ঞেভিঃ) পূজনীয় ব্যবহার দ্বারা (বাবৃধেন্যম্) বৃদ্ধিকারক [পরমাত্মা] কে (শ্রবস্যবঃ) কীর্তি অভিলাষী আমরা (অহূমহি) আহ্বান করছি ॥৬॥
भावार्थ
হে মনুষ্য ! সমস্ত বলের দাতা, সদা উপকার করে বর্ধিতকারী পরমাত্মার আরাধনার মাধ্যমে সামর্থ্য বৃদ্ধি করে আমরা যেন কীর্তি অর্জন করি ॥৬॥
भाषार्थ
হে উপাসকগণ! (বঃ শ্রবস্যবঃ) তোমাদের জন্য আনন্দরসরূপী অন্ন কামনাকারী আমরা গুরুরা , (বাজানাম্) বিভূতিবল এবং শক্তি-সমূহের (পতিম্) পতি, তথা (অপ্রায়ুভিঃ) স্থির চিত্তবৃত্তিসম্পন্নদের দ্বারা কৃত (যজ্ঞেভিঃ) উপাসনা যজ্ঞ দ্বারা (বাবৃধেন্যম্) অত্যন্ত বর্ধিতকারী পরমেশ্বরকে, (অহূমহি) তোমাদের দিকে নিয়ে এসেছি।
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