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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
    सूक्त - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६६
    40

    स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्। अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒हि । इन्द्र॑म् । व्य॒श्व॒ऽवत् । अनू॑र्मिम् । वा॒जिन॑म् । यम॑म् ॥ अ॒र्य: । गय॑म् । मंह॑मानम् । वि । दा॒शुषे॑ ॥६६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिं वाजिनं यमम्। अर्यो गयं मंहमानं वि दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुहि । इन्द्रम् । व्यश्वऽवत् । अनूर्मिम् । वाजिनम् । यमम् ॥ अर्य: । गयम् । मंहमानम् । वि । दाशुषे ॥६६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (1)

    विषय

    ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् !] (व्यश्ववत्) विविध वेगवाले पुरुष के समान (अनूर्मिम्) बिना पीड़ाओंवाले, (वाजिनम्) पराक्रमी, (यमम्) न्यायकारी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] की (स्तुहि) स्तुति कर। (अर्यः) स्वामी (दाशुषे) आत्मदानी भक्त के लिये (वि) विविध प्रकार (मंहमानम्) बढ़ते हुए (गयम्) धन सदृश हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जो पुरुष पराक्रम करके भूख आदि पीड़ाओं से बचा रहता है, उसके गुणों को ग्रहण करके मनुष्य सुखी होवें। विद्वानों ने छह पीड़ाएँ मानी हैं, जिनसे बचने का मनुष्य उपाय करता रहे−

    टिप्पणी

    [बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः स्मृतौ। शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः ॥१॥] प्राण की भूख और प्यास, मन का शोक और मोह, शरीर की जरा और मृत्यु, यह छह पीड़ाएँ कही गयी हैं ॥१॥ यह तृच ऋग्वेद में है-गत सूक्त से आगे, ८।२४।२२-२४ ॥ १−(स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (व्यश्ववत्) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्, सादृश्ये वतिः। विविधवेगवान् पुरुष इव (अनूर्मिम्) ऊर्मिभिर्बुभुक्षापिपासादिषट्पीडाभी रहितम् (वाजिनम्) पराक्रमिणम् (यमम्) न्यायिनम् (अर्यः) स्वामी (गयम्) धनरूपम् (मंहमानम्) महि वृद्धौ-शानच्। वर्धमानम् (वि) विविधम् (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥

    इंग्लिश (1)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Like the sage of perfect mental and moral discipline, worship Indra, constant lord of eternity without fluctuation, omnipresent power over universal energy, controller and guide of the evolution of the universe, omnificent lord giver of a prosperous household to the generous devotees of yajna.

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    [बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः स्मृतौ। शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः ॥१॥] प्राण की भूख और प्यास, मन का शोक और मोह, शरीर की जरा और मृत्यु, यह छह पीड़ाएँ कही गयी हैं ॥१॥ यह तृच ऋग्वेद में है-गत सूक्त से आगे, ८।२४।२२-२४ ॥ १−(स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (व्यश्ववत्) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्, सादृश्ये वतिः। विविधवेगवान् पुरुष इव (अनूर्मिम्) ऊर्मिभिर्बुभुक्षापिपासादिषट्पीडाभी रहितम् (वाजिनम्) पराक्रमिणम् (यमम्) न्यायिनम् (अर्यः) स्वामी (गयम्) धनरूपम् (मंहमानम्) महि वृद्धौ-शानच्। वर्धमानम् (वि) विविधम् (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥

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