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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७
    137

    उद्घेद॒भि श्रु॒ताम॑घं वृष॒भं नर्या॑पसम्। अस्ता॑रमेषि सूर्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । घ॒ । इत् । अ॒भि । श्रु॒तऽम॑घम् । वृ॒ष॒भम् । नर्य॑ऽअपसम् ॥ अस्ता॑रम् । ए॒षि॒ । सू॒र्य॒ ॥७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्घेदभि श्रुतामघं वृषभं नर्यापसम्। अस्तारमेषि सूर्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । घ । इत् । अभि । श्रुतऽमघम् । वृषभम् । नर्यऽअपसम् ॥ अस्तारम् । एषि । सूर्य ॥७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! [सर्वव्यापक वा सर्वप्रेरक परमेश्वर] (श्रुतमघम्) विख्यात धनवाले, (वृषभम्) बलवान्, (नर्यापसम्) मनुष्यों के हितकारी कर्मवाले, (अस्तारम् अभि) शत्रुओं के गिरानेवाले पुरुष को (इत्) ही (घ) निश्चय करके (उद् एषि) तू उदय होता है ॥१॥

    भावार्थ

    परमपिता जगदीश्वर पुरुषार्थी सर्वहितकारी शूर पुरुष का सदा सहाय करता है ॥१॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।१-३। मन्त्र १ साम० पू० २।४।१, मन्त्र १-३ साम० उ० ६।३। तृच० ४ ॥ १−(उद् एषि) ऊर्ध्वं गच्छसि (घ) अवश्यम् (इत्) एव (अभि) प्रति (श्रुतमघम्) प्रख्यातधनयुक्तम् (वृषभम्) बलवन्तम् (नर्यापसम्) अपः कर्मनाम-निघ० २।१। तस्मै हितम्। पा० ।१।। इति नर-यत्। नरेभ्यो हितकर्माणम् (अस्तारम्) असु क्षेपणे-तृन्। रधादिभ्यश्च। पा० ७।२।४। इति इड्विकल्पः। शत्रूणां निरसितारम्। क्षेप्तारम् (सूर्य) सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे यद्वा, सु+ईर गतौ-क्यप्। सूर्यः सर्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्यतेर्वा-निरु० १२।१४। हे सर्वव्यापक सर्वप्रेरक वा परमेश्वर ॥

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    विषय

    प्रभु-प्राप्ति का मार्ग

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभो! आप (घा इत्) = निश्चय से उस व्यक्ति का (अभि) = लक्ष्य करके (उदेषि) = उदति होते हो-उसके हृदयाकाश में प्रकाशित होते हो जोकि (श्रुतामघम्) = ज्ञान के ऐश्वर्यवाला है तथा (वृषभम्) = शक्तिशाली है। प्रभु उसी को प्राप्त होते हैं जो अपने में ज्ञान और शक्ति का समन्वय करता है। २. हे प्रभो! आप उसे प्राप्त होते हो जो (नर्यापसम्) = दयुलोक हितकारी कर्मों में प्रवृत्त होता है और (अस्तारम्) = वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर फेंकता है [असु क्षेपणे]।

    भावार्थ

    प्रभ-प्राति उसे होती है जो [क] ज्ञान का ऐश्वर्य प्राप्त करता है, [ख] शक्तिशाली बनता है, [ग] लोकहितकर कर्मों में प्रवृत्त होता है, [घ] वासनाओं को अपने से दूर करता है।

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे सूर्यों के सूर्य! आप (घ) निश्चय से (इत्) अवश्य, (अभि) ऐसे उपासक के प्रति (उद् एषि) प्रत्यक्षरूप में उदित होते हैं, (श्रुतामघम्) जिसकी कि आध्यात्मिक-सम्पत्ति विश्रुत है, प्रसिद्ध है, (वृषभम्) और जो अन्यों पर उपदेशामृत की वर्षा करता है, तथा (नर्यापसम्) जिसके कर्म नर-नारियों के लिए हितकर हैं, (अस्तारम्) और जिसने अपने पापशत्रुओं को परास्त कर दिया है।

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    विषय

    परमेश्वर और राजा।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) सूर्य ! सूर्य के समान तेजस्वी ज्ञानवान् योगिन् ! तू (श्रुतामघम्) प्रसिद्ध ऐश्वर्यवान् (वृषभम्) सब सुखों के वर्षक, सब को अपनी व्यवस्था में बांधने वाले, बड़े बैल के समान शक्तिमान् होकर समस्त ब्रह्माण्ड को वहन करने वाले (नर्यापसम्) समस्त मनुष्यों और जीवात्मा के हितकारी कर्म या व्यापार करने वाले (अस्तारम्) सबके प्रेरक उस परमेश्वर को (अभि) लक्ष्य करके तू (उद् एषि घ) निश्चय से उदित होता है। राजा के पक्ष में—हे (सूर्य) विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! नरश्रेष्ठ, सर्वहितकारी, तू (अस्तारम्) शत्रु पर शस्त्रास्त्र फेंकने में शूरवीर पुरुष को प्राप्त होकर उदय को प्राप्त हो ! शिष्यपक्ष में—हे शिष्य सूर्य के व्रत को अनुसरण करने हारे ! तू श्रुत, वेदस्वरूप ज्ञान के धनी, ज्ञानवर्धक, हितकारी, ज्ञानसम्पन्न, ज्ञानान्धकार के नाशक आचार्य को प्राप्त होकर उन्नति को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-३ सुकक्षः। ४ विश्वामित्रः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    O Surya, self-refulgent light of the world, you rise and move in the service of Indra, lord of the wealth of revelation, generous and virile, lover of humanity and dispeller of the darkness and negativities of the mind, soul and the universe. (Indra is interpreted in this Sukta as the omnipotent, self-refulgent lord and light of the universe, as the sublime soul, and as the enlightened mind according to the context of meaning reflected by the intra-structure of the mantra.)

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    Translation

    Surya, the sun (Indra) mounts over sky (keeping with the law) of God who possesses praiseworthy wealth, who pours the happiness, who is benevolent to men and who is the inspirer of all.

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    Translation

    Surya, the sun (Indra) mounts over sky (keeping with the law) of God who possesses praiseworthy wealth, who pours the happiness, who is benevolent to men and who is the inspirer of all.

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    Translation

    O brilliant yogin, shining like the Sun, thou risest up by the spiritual attainment to the All-stirring God, Well-known Lord of fortunes, the Powerful Showerer of blessings and well-being, the Doer of deeds, beneficial to men.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १-३ ऋग्वेद में है-८।९३ [सायणभाष्य ८२]।१-३। मन्त्र १ साम० पू० २।४।१, मन्त्र १-३ साम० उ० ६।३। तृच० ४ ॥ १−(उद् एषि) ऊर्ध्वं गच्छसि (घ) अवश्यम् (इत्) एव (अभि) प्रति (श्रुतमघम्) प्रख्यातधनयुक्तम् (वृषभम्) बलवन्तम् (नर्यापसम्) अपः कर्मनाम-निघ० २।१। तस्मै हितम्। पा० ।१।। इति नर-यत्। नरेभ्यो हितकर्माणम् (अस्तारम्) असु क्षेपणे-तृन्। रधादिभ्यश्च। पा० ७।२।४। इति इड्विकल्पः। शत्रूणां निरसितारम्। क्षेप्तारम् (सूर्य) सृ गतौ यद्वा षू प्रेरणे यद्वा, सु+ईर गतौ-क्यप्। सूर्यः सर्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्यतेर्वा-निरु० १२।१४। हे सर्वव्यापक सर्वप्रेरक वा परमेश्वर ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সূর্য) হে সূর্য ! [সর্বব্যাপক বা সর্বপ্রেরক পরমেশ্বর] (শ্রুতমঘম্) বিখ্যাত ধনযুক্ত, (বৃষভম্) বলবান্, (নর্যাপসম্) মনুষ্যদের হিতকারী কর্মযুক্ত, (অস্তারম্ অভি) শত্রুদের বিনাশকারী পুরুষ (ইৎ)(ঘ) নিশ্চিতরূপে (উদ্ এষি) তুমি উদয় হও ॥১॥

    भावार्थ

    পরমপিতা জগদীশ্বর সর্বহিতকারী বীর পুরুষের সদা সহায়তা করেন।।১।। মন্ত্র ১-৩ ঋগ্বেদে আছে-৮।৯৩ [সায়ণভাষ্য ৮২]।১-৩। মন্ত্র ১ সাম০ পূ০ ২।৪।১, মন্ত্র ১-৩ সাম০ উ০ ৬।৩। তৃচ০ ৪ ॥

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    भाषार्थ

    (সূর্য) হে সূর্যে-সমূহের সূর্য! আপনি (ঘ) নিশ্চিতরূপে (ইৎ) অবশ্যই, (অভি) এমন উপাসকের প্রতি (উদ্ এষি) প্রত্যক্ষরূপে উদিত হন, (শ্রুতামঘম্) যার আধ্যাত্মিক-সম্পত্তি বিশ্রুত, প্রসিদ্ধ, (বৃষভম্) এবং যে অন্যদের ওপর উপদেশামৃতের বর্ষণ করে, তথা (নর্যাপসম্) যার কর্ম নর-নারীদের জন্য হিতকর, (অস্তারম্) এবং যে নিজের পাপশত্রুদের পরাস্ত করেছে।

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