अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 6
मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न। वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्म॑न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठमात्रे॒ इति॑ । नु । ते॒ । सुमि॑ते॒ इति॒सुऽमि॑ते । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्वी इति॑ । द्यौ: । म॒ज्मना॑ । पृ॒थि॒वी । काव्ये॑न ॥ वरा॑य । ते॒ । घृ॒तऽव॑न्त: । सु॒तास॑: । स्वाद्म॑न् । भ॒व॒न्तु॒ । पी॒तये॑। मधू॑नि ॥७६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
मात्रे नु ते सुमिते इन्द्र पूर्वी द्यौर्मज्मना पृथिवी काव्येन। वराय ते घृतवन्तः सुतासः स्वाद्मन्भवन्तु पीतये मधूनि ॥
स्वर रहित पद पाठमात्रे इति । नु । ते । सुमिते इतिसुऽमिते । इन्द्र । पूर्वी इति । द्यौ: । मज्मना । पृथिवी । काव्येन ॥ वराय । ते । घृतऽवन्त: । सुतास: । स्वाद्मन् । भवन्तु । पीतये। मधूनि ॥७६.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (नु) निश्चय करके (ते) तेरी (मात्रे) दो मात्राएँ [उपाय शक्तियाँ] (सुमिते) अच्छे प्रकार नापी गयी [जाँची गयीं], (पूर्वी) सनातनी हैं कि तू (मज्मना) अपने बल से और (काव्येन) बुद्धिमत्ता से (द्यौः) चमकते हुए सूर्य [के समान] और (पृथिवी) फैली हुई पृथिवी [के समान] है।। (ते) तेरे (वराय) वर [इष्टफल] के लिये (घृतवन्तः) प्रकाशमान (सुतासः) निचोड़े हुए तत्त्वरस हैं (मधूनि) निश्चित ज्ञान रस (पीतये) पीने के लिये (स्वाद्मन्) स्वादिष्ठ (भवन्तु) होवें ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य दो उपायों अर्थात् पराक्रम और बुद्धि से सूर्य और भूमि के समान उपकारी होता है, उसकी इष्ट सिद्धि के लिये संसार के सब पदार्थ उपयोगी होते हैं ॥६॥
टिप्पणी
६−(मात्रे) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। माङ् माने-त्रन्। द्वे मानकर्त्र्यौ यत्नशक्ती (नु) निश्चयेन (ते) तव (सुमिते) सुपरिमिते (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पूर्वी) सनातन्यौ (द्यौः) द्योतमानः सूर्यो यथा (मज्मना) अ० १३।१।१४। शोधकेन बलेन (पृथिवी) विस्तृता भूमिर्यथा (काव्येन) कविकर्मणा। बुद्धिमत्तया (वराय) इष्टफलप्राप्तये (ते) तव (घृतवन्तः) दीप्तिमन्तः (सुतासः) निष्पादितास्तत्त्वरसाः (स्वाद्मन्) सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१३। ष्वद स्वाद वा आस्वादने-मनिण्, विभक्तेर्लुक्। स्वाद्मनि। स्वादिष्ठानि (भवन्तु) (पीतये) पानाय। ग्रहणाय (मधूनि) निश्चितज्ञानानि ॥
विषय
क्षीणमल-दीप्तज्ञान व मधुरस्वभाव' वाला जीवन
पदार्थ
१. प्रभु जीव से कहते हैं-हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (मात्रे ते) = अपने जीवन का निर्माण करनेवाले तेरे लिए (मज्मना काव्येन) = जीवन को शुद्ध बनानेवाले वेदरूप काव्य के साथ (द्यौः पृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक (नु) = निश्चय से (सुमिते) = उत्तमता से बनाये गये हैं। ये पूर्वी-तेरा पूरण व पालन करनेवाले हैं। वेदज्ञान के अनुसार चलनेवाले पुरुष के लिए ये सारा ब्रह्माण्ड कल्याण-ही-कल्याण करनेवाला है। २. हे स्वाद्यन्-[सु आ अद्मन्] सदा उत्तम भोजन करनेवाले जीव! वराय []-ठीक चुनाव करनेवाले तेरे लिए-भोग की अपेक्षा योग को, प्रेय की अपेक्षा श्रेय को, अनित्य की अपेक्षा नित्य को चुननेवाले तेरे लिए सुतासः सात्त्वि आहार से उत्पन्न सोमकण घृतवन्तः-मलों के क्षरणवाले तथा ज्ञानदीप्ति को बढ़ानेवाले भवन्तु-हों। ये सोमकण पीतये रक्षण के लिए हों। मधूनि [भवन्तु]-ये हमारे स्वभाव में माधुर्य उत्पन्न करने का कारण बनें। इस सोम के रक्षण से द्वेष के स्थान में प्रेमवाले हों, ईर्ष्या को छोड़कर मुदितावाले हों दूसरों की उन्नति में प्रसन्न हों, क्रोध को छोड़कर करुणावाले बनें।
भावार्थ
वेदज्ञान के अनुसार चलने पर यह संसार हमारा पूरण व पालन करनेवाला होता हैं।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (ते) आपके (मज्मना) बल से (पूर्वी) पूर्वकाल से प्रकट हुआ (द्यौः) द्युलोक, तथा आपके बल से पूर्वकाल से प्रकट हुई (काव्येन पृथिवी) वेदकाव्य से सम्पन्न पृथिवी—ये दोनों, (नु) निश्चय से, (सुमिते) सुविज्ञात (मात्रे) निर्माता आप में आश्रय पाए हुए हैं। (स्वाद्मन्) हे भक्तिरस का आस्वादन लेनेवाले! (घृतवन्तः) अग्निहोत्र में घृताहुतियोंवाले या ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित (सुतासः) उपासक-पुत्र, (ते) आप द्वारा (वराय) वरण करने योग्य हो जाएँ, तथा आपके (मधूनि) मधुर आनन्दरसों के (पीतये) पीने के योग्य (भवन्तु) हो जाएँ—यह हमारी प्रार्थना है।
विषय
आत्मा और राजा।
भावार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्र ! आत्मन् ! (ते) तुझ (मात्रे) प्रमाता, ज्ञानकर्त्ता के लिये तो (मज्मना) तेरे बल से और (काव्येन) तेरी क्रान्तदर्शी प्रज्ञा के यत्न से (पूर्वी द्यौः) पूर्ण द्यौ (पृथिवी) और पृथिवी ये दोनों (सुमिते) उत्तम रीति से जानी जावें। (वराय) श्रेष्ठ, वरण करने योग्य (ते) तेरे (स्वाद्मन्) सुखपूर्वक भोजन के लिये (घृतवन्तः) घृत, दूध आदि पुष्टिकारक (सुतासः) पदार्थ और (पीतये) पान करने के लिये (मधूनि) मधुर पदार्थ (भवन्तु) हों अथवा (वराय) सब से वरण करने योग्य (ते) तेरे लिये (घृतवन्तः) तेज से युक्त (स्वाद्मन्=स्वाद्मानः) अति आस्वादयुक्त (सुतासः) उत्पन्न आनन्द रस और (पीतये) पान करने के लिये (मधूनि) मधु के समान मधुर ब्रह्मरस और मधुर अनुभव और ज्ञान प्राप्त हों। राजा के पक्ष में—हे (इन्द्र) राजन् ! (मज्मना द्यौः) तेरी शक्ति से आकाश और (काव्येन पृथिवी) क्रान्तदर्शिता से पृथिवी (सुमिते) उत्तम रीति से मापी जायं। (वराय ते०) तेरे लिये खाने को उत्तम पदार्थ पान करने के लिये मधुर तृप्तिकर जल हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक ऐन्द्रो ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O Indra, lord omniscient and omnipotent, Mother Earth and the heaven of light, both ancient and eternal in the existential cycle, are created in excellent measure of form and function by your vision and power. May the delicious and refined honey drinks of soma and sumptuous foods gifted by sun and earth be exhilarating and delightful for noble humanity and for their yajnic homage to you. O Indra, lord omniscient and omnipotent, mother earth and the heaven of light, both ancient and eternal in the existential cycle, are created in excellent measure of form and function by your vision and power. May the delicious and refined honey drinks of soma and sumptuous foods gifted by sun and earth be exhilarating and delightful for noble humanity and for their yajnic homage to you.
Translation
O Almighty God, your two measures are well-known. The wide heaven is measured with your majesty and the earth with your wisdom. The created thinge possessing light, the palatable things and that sweet ones are for the protection of excellent you.
Translation
O Almighty God, your two measures are well-known. The wide heaven is measured with your majesty and the earth with your wisdom. The created thinge possessing light, the palatable things and that sweet ones are for the protection of excellent you.
Translation
O Almighty Creator, verily well-measured and well-planned are the vast heavens by Thy great power and the earth by Thy high intelligence. All the articles created by Thee, like butter, milk/etc., are quite tasteful and of high quality for eating and sweet for drinking.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(मात्रे) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। माङ् माने-त्रन्। द्वे मानकर्त्र्यौ यत्नशक्ती (नु) निश्चयेन (ते) तव (सुमिते) सुपरिमिते (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (पूर्वी) सनातन्यौ (द्यौः) द्योतमानः सूर्यो यथा (मज्मना) अ० १३।१।१४। शोधकेन बलेन (पृथिवी) विस्तृता भूमिर्यथा (काव्येन) कविकर्मणा। बुद्धिमत्तया (वराय) इष्टफलप्राप्तये (ते) तव (घृतवन्तः) दीप्तिमन्तः (सुतासः) निष्पादितास्तत्त्वरसाः (स्वाद्मन्) सातिभ्यां मनिन्मनिणौ। उ० ४।१३। ष्वद स्वाद वा आस्वादने-मनिण्, विभक्तेर्लुक्। स्वाद्मनि। स्वादिष्ठानि (भवन्तु) (पीतये) पानाय। ग्रहणाय (मधूनि) निश्चितज्ञानानि ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত রাজন্] (নু) নিশ্চিতরূপে (তে) তোমার (মাত্রে) দুই মাত্রা [উপায় শক্তি] (সুমিতে) উত্তমরূপে পরিমিত হয়েছে [নিরীক্ষণ করা হয়েছে], (পূর্বী) অবিনাশী, শাশ্বত সত্য হল যে, তুমি (মজ্মনা) নিজ বল দ্বারা এবং (কাব্যেন) বুদ্ধিমত্তা দ্বারা (দ্যৌঃ) দীপ্যমান সূর্য [এর সমান] এবং (পৃথিবী) বিস্তৃত পৃথিবী [এর সমান] বর্তমান॥ (তে) তোমার (বরায়) বরের [ইষ্টফলের] জন্য (ঘৃতবন্তঃ) প্রকাশমান (সুতাসঃ) নিষ্পাদিত তত্ত্বরস (মধূনি) নিশ্চিত জ্ঞান রস (পীতয়ে) পানের জন্য (স্বাদ্মন্) স্বাদিষ্ঠ/উপযোগী (ভবন্তু) হোক ॥৬॥
भावार्थ
যে মনুষ্য দু'টি উপায়/কৌশল অর্থাৎ পরাক্রম ও বুদ্ধি দ্বারা সূর্য এবং ভূমির সমান উপকারী হয়, তার ইষ্ট সিদ্ধির জন্য সংসারের সকল পদার্থ উপযোগী হয় ॥৬॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার (মজ্মনা) বল দ্বারা (পূর্বী) পূর্বকাল থেকে প্রকটিত (দ্যৌঃ) দ্যুলোক, তথা আপনার বল দ্বারা পূর্বকাল থেকে প্রকটিত (কাব্যেন পৃথিবী) বেদকাব্য দ্বারা সম্পন্ন পৃথিবী—এই দুটি, (নু) নিশ্চিতরূপে, (সুমিতে) সুবিজ্ঞাত (মাত্রে) নির্মাতা আপনার মধ্যে আশ্রিত। (স্বাদ্মন্) হে ভক্তিরস আস্বাদনকারী! (ঘৃতবন্তঃ) অগ্নিহোত্রে ঘৃতাহুতিযুক্ত বা জ্ঞানপ্রকাশ দ্বারা প্রকাশিত (সুতাসঃ) উপাসক-পুত্র, (তে) আপনার দ্বারা (বরায়) বরণ যোগ্য হয়ে যাক, তথা আপনার (মধূনি) মধুর আনন্দরস (পীতয়ে) পান করার যোগ্য (ভবন্তু) হয়ে যাক—ইহা আমাদের প্রার্থনা।
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