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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 87/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः, बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८७
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    बृह॑स्पते यु॒वमिन्द्र॑श्च॒ वस्वो॑ दि॒व्यस्ये॑शाथे उ॒त पा॑र्थिवस्य। ध॒त्तं र॒यिं स्तु॑व॒ते की॒रये॑ चिद्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । यु॒वम् । इन्द्र॑: । च॒ । वस्व॑: । दि॒व्यस्य॑ । ई॒शा॒थे॒ इति॑ । उ॒त । पार्थि॑वस्य ॥ ध॒त्तम् । र॒यिम् । स्तु॒व॒ते । की॒रये॑ । चि॒त् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभि॑: । सदा॑ । न॒: ॥८७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते युवमिन्द्रश्च वस्वो दिव्यस्येशाथे उत पार्थिवस्य। धत्तं रयिं स्तुवते कीरये चिद्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते । युवम् । इन्द्र: । च । वस्व: । दिव्यस्य । ईशाथे इति । उत । पार्थिवस्य ॥ धत्तम् । रयिम् । स्तुवते । कीरये । चित् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभि: । सदा । न: ॥८७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थी के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी वेदवाणी के रक्षक विद्वान्] (च) और (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी राजन्] (युवम्) तुम दोनों (दिव्यस्य) आकाश के (उत) और (पार्थिवस्य) पृथिवी के (वस्वः) धन के (ईशाथे) स्वामी हो (स्तुवते) स्तुति करते हुए (कीरये) विद्वान् को (रयिम्) धन (चित्) अवश्य (धत्तम्) तुम दोनों दो, [हे वीरो !] (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (सदा) सदा (नः) हमें (पात) रक्षित रक्खो ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वान् मन्त्री और पराक्रमी राजा और सब शूर पुरुष आकाशस्थ वायु वृष्टि आदि और पृथिवीस्थ अन्न सुवर्ण आदि का सुप्रबन्ध करके प्रजा की रक्षा करें ॥७॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र आ चुका है-अ० २०।१७।१२ और चौथे पाद के लिये देखो-अ० २०।३७।११ ॥ ७-अयं मन्त्रो गतः-अ० २०।१७।१२ ॥

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    विषय

    'सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान्' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! आप (इन्द्रः च) = और सर्वशक्तिमान् प्रभु (युवम्) = आप दोनों क्रमश: (दिव्यस्य वस्व:) = मस्तिष्करूप झुलोक के ज्ञानधन को (उत) = तथा (पार्थिवस्य) = शरीररूप पृथिवी के शक्तिरूप धन के (ईशाथे) = ईश हैं। वस्तुत: 'बृहस्पति व इन्द्र' प्रभु के ही दो रूप है-प्रभु ही सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् हैं। २. (स्तुवते) = स्तुति करनेवाले (कीरये) = [क विक्षेपे] वासनाओं को विदीर्ण कर देनेवाले स्तोता के लिए (चित्) = निश्चय से (रयिं धत्तम्) = ऐश्वर्य को धारण कीजिए। (यूयम्) = हे देवो! आप (स्वस्तिभि:) = कल्याणों के द्वारा (सदा) = सदा (नः पात) = हमारा रक्षण कीजिए।

    भावार्थ

    बृहस्पति व इन्द्र के रूप में प्रभु की आराधना करते हुए हम ज्ञान व शक्ति प्राप्त करें। हे प्रभो! स्तवन करनेवालों के लिए आप ऐश्वर्य प्राप्त कराएँ। ज्ञान व शक्ति प्राप्त करके यह 'वामदेव' बनता है-सुन्दर दिव्य गुणोंवाला। यह प्रभु की आराधना निम्न शब्दों में करता है -

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    भाषार्थ

    (बृहस्पते) हे महती-वेदवाणी के पति! आप, (च) और (इन्द्रः) आप का समग्र-जगत् का अधीश्वरस्वरूप, (युवम्) अर्थात् आपके ये दोनों स्वरूप, (दिव्यस्य) द्युलोक के (उत) और (पार्थिवस्य) पृथिवीलोक के समग्र पदार्थों के (ईशाथे) अधीश्वर हैं। (स्तुवते) सदा स्तुति करनेवाले (कीरये चित्) स्तोतृवर्ग के लिए, (रयिम्) आपके दोनों स्वरूपों ने समग्र लौकिक-आध्यात्मिक सम्पत्ति (धत्तम्) प्रदान कर रखी है। हे सम्पत्ति-प्राप्त उपासको! (यूयम्) तुम सब (स्वस्तिभिः) कल्याणों तथा उत्तम स्थितियों द्वारा, (सदा नः पात) सदा हमारी रक्षा करते रहो।

    टिप्पणी

    [बृहस्पति=बृहती वाक् तस्याः पतिः। कीरि=स्तोता (निघं০ ३.१६)।]

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    विषय

    राजा, आत्मा।

    भावार्थ

    हे राजन् ! (इदं) यह (अभितः) इधर उधर सर्वत्र राष्ट्र में विचारने वाला (विश्वं पशव्यम्) समस्त पशु समूह (यत्) जिसको तू (सूर्यस्य) सूर्य के (चक्षसा) प्रकाश से (पश्यसि) देखता ही है (इदं तव) यह तेरा ही है। तू (गवां गोपतिः एकः) अकेले समस्त गोओं के पति, गोपाल के समान भूमियों का एकमात्र पालक है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (प्रयतस्य) उत्कृष्ट, उत्तम नियन्ता रूप (ते) तेरे ही (वस्वः) ऐश्वर्य का हम (भक्षीमहि) भोग करें। ईश्वरपक्ष में—(इदम्) यह (अभितः) सब और फैला (पशव्यं) दोपायों चौपायों का हितकारी (विश्वम्) समस्त संसार (यत्) जिसको (सूर्यस्य चक्षसा पश्यसि) सूर्य के प्रकाश से तु प्रकाश करता मानो देखता ही है वह (तव) तेरा ही है। (गवाम्) गौओं के स्वामी गोपाल के समान एकमात्र समस्त प्राणियों और भूमियों का पालक तू ही गोपति है। (प्रयतस्य) उत्तम शासक नियन्ता एवं सर्वत्र प्रयत्न या व्यापार चेष्टा करने वाले तेरे ही (वस्वः) ऐश्वर्य का हम (भक्षीमहि) भोग करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    Brhaspati, lord of the vast universe, Indra, omnipotent and illustrious ruler, you are the lord of the beauty and majesty of the light of heaven and wealths of the earth. You alone rule and order these. Pray bear and bring light and wealth to bless the celebrant and the worshipper. O lord and divinities of nature and humanity, protect and promote us with all modes and means of peace, prosperity and excellence all ways all time.

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    Translation

    O learned men and O mighty ruler, you both have under your possession the wealth in the earth and heaven. You give the riches to worshipping learned devotee of God. You both protect us ever with the means of pleasure and comfort.

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    Translation

    O learned men and O mighty ruler, you both have under your possession the wealth in the earth and heaven. You give the riches to worshipping learned devotee of God. You both protect us ever with the means of pleasure and comfort.

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    Translation

    The ancient, wise seers, engrossed in deep meditation, set before themselves the Blissful God, shedding Radiance and Glory all around, the selfsame Lord of the Great Vedic lore, and the vast universe present in all three places, heavens, interspace and the earth, who completely upholds the extremes of the earth by His Power and mobile force and energy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र आ चुका है-अ० २०।१७।१२ और चौथे पाद के लिये देखो-अ० २०।३७।११ ॥ ७-अयं मन्त्रो गतः-अ० २०।१७।१२ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বৃহস্পতে) হে বৃহস্পতি! [বেদবাণীর রক্ষক বিদ্বান্] (চ) এবং (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [মহাপ্রতাপী রাজন্] (যুবম্) তোমরা দুজনে (দিব্যস্য) আকাশের (উত) এবং (পার্থিবস্য) পৃথিবীর (বস্বঃ) ধনসম্পদের (ঈশাথে) স্বামী! (স্তুবতে) স্তুতিকারী/প্রশংসাকারী (কিরয়ে) বিদ্বানকে (রয়িম্) ধন (চিৎ) অবশ্যই (ধত্তম্) তোমরা দুজন দান করো, [হে বীরগণ!] (যূয়ম্) তোমরা (স্বস্তিভিঃ) সুখ দ্বারা (সদা) সদা (নঃ) আমাদের (পাত) রক্ষিত রাখো।।৭।।

    भावार्थ

    বিদ্বান মন্ত্রী ও পরাক্রমশালী রাজা এবং বীর পুরুষ আকাশস্থ বায়ু বৃষ্টি আদি, এবং পৃথিবীস্থ অন্ন সুবর্ণাদির সুব্যবস্থা করে প্রজাদের রক্ষা করুক।।৭।। এই মন্ত্র আছে-অ০ ২০।১৭।১২ এবং চতুর্থ পাদের জন্য দেখুন -অ০ ২০।৩৭।১১ ॥

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    भाषार्थ

    (বৃহস্পতে) হে মহতী-বেদবাণীর পতি! আপনি, (চ) এবং (ইন্দ্রঃ) আপনার সমগ্র-জগতের অধীশ্বরস্বরূপ, (যুবম্) অর্থাৎ আপনার এই দুই স্বরূপ, (দিব্যস্য) দ্যুলোকের (উত) এবং (পার্থিবস্য) পৃথিবীলোকের সমগ্র পদার্থ-সমূহের (ঈশাথে) অধীশ্বর। (স্তুবতে) সদা স্তুতি কর্তা (কীরয়ে চিৎ) স্তোতৃবর্গের জন্য, (রয়িম্) আপনার উভয় স্বরূপ সমগ্র লৌকিক-আধ্যাত্মিক সম্পত্তি (ধত্তম্) প্রদান করেছে। হে সম্পত্তি-প্রাপ্ত উপাসকগণ! (যূয়ম্) তোমরা সবাই (স্বস্তিভিঃ) কল্যাণ তথা উত্তম স্থিতি দ্বারা, (সদা নঃ পাত) সদা আমাদের রক্ষা করতে থাকো।

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